|
माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और साथ ही अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा। विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढ़िए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
कुछ दिनों पहले में भिलाई से करीब 350 किलोमीटर दूर नारायणपुर प्रवास हुआ। बस्तर संभाग का यह छोटा-सा जिला लाल आतंक का सबसे बड़ा गढ़ है। जिला मुख्यालय से 5 किमी. दूर जंगल की सीमा शुरू होती है, जिसे अबूझमाड़ कहा जाता है। अबूझ यानी जिसके बारे में कोई नहीं जानता और माड़ मतलब वनवासियों का घर। अंदमान निकोबार द्वीप समूह के जारवा वनवासियों के बाद अबूझमाड़ के वनवासी सबसे पिछड़े माने जाते हैं। इन जंगलों में वनवासियों की अपनी सरकार है, जहां लोकतंत्र नाम की चिड़िया भी नहीं पहुंच सकती। नेता से लेकर अधिकारी तक अबूझमाड़ का नाम सुनते ही बगलें झांकने लगते हैं। माड़िया वनवासियों के साथ मेरा अनुभव कुछ खास रहा। दो बार नारायणपुर प्रवास के दौरान इनके जीवन को बहुत करीब से देखने का मौका मिला। शहरी लोग खुद को सभ्य, आधुनिक व विकसित मानते हैं, पर मेरे हिसाब से वनवासी हमसे कहीं आगे हैं। तमाम सुख-संसाधनों और सुविधाओं के बावजूद हमारी जिंदगी में चैन और सुकून नहीं है। लेकिन अपनी सारी जरूरतों के लिए प्रकृति पर निर्भर होने के बाद भी उनकी जिंदगी आराम से कट रही है।
तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद शहरी लोगों की जिंदगी में सुकून नहीं है। लेकिन प्रकृति पर निर्भर रहने वाले वनवासी न केवल जंगलों में आराम से रहते हैं, बल्कि प्राचीन विद्या को भी सदियों से संजो कर रखा है।
पिछले साल एक वनवासी परिवार सड़क किनारे बैठा मिला। इस परिवार में बड़े-बुजुर्ग, बच्चे मिलाकर 30 लोग थे। उन्हें देखा तो बात करने पहुंच गई, लेकिन संवाद में भाषा आड़े आ रही थी। माड़िया वनवासी गोंडी, हल्बी बोलते हैं। एक स्थानीय संवाददाता हमारे बीच संवाद के पुल बने। उस परिवार की मुख्य महिला से पूछा, ‘यहां क्यों आए हो?’ उसने बताया, ‘किसी ने कहा कि आधार कार्ड बनवाना है। इसलिए हम 50 किमी पैदल चलकर आए हैं।’ सुनकर मैं उनके पैर देखने लगी। चौड़े, मजबूत फैले हुए पंजे जो किसी भी रास्ते पर चलने के लिए तैयार रहते हैं। इनमें से एक-दो को छोड़कर किसी के पैर में चप्पल नहीं थी। फिर पूछा- ‘आधार कार्ड का क्या करोगे?’ एक ने कहा, ‘कुछ पैसे मिलेंगे उसे दिखाने से। हमने कभी सुना, न देखा, आज पहली बार देखेंगे कि आधार कार्ड क्या है। पहले सोचा, कोई आदमी होगा, फिर एक बाबू ने बताया कि कागज के पर्चे जैसा होता है, जिसमें फोटो बना होता है।’
यह पूछने पर कि जंगल में क्या-क्या करते हैं, तो एक ने बताया कि वह गांव का वैद्य है। फिर धीरे से कहा कि वह टूटी हुई हड्डियों को पूरी तरह जोड़ देता है, बिना किसी आॅपरेशन और प्लास्टर के। सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ तो मैंने स्थानीय संवाददाता से पुष्टि की। उन्होंने कहा कि वह सच कह रहा है। यहां माड़ के जंगलों में कई वनवासी प्लास्टिक सर्जरी की प्राचीन विद्या से परिचित हैं। अब तो जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। उनसे फिर पूछने लगी कि कैसे करते हैं? टूटे, कटे हुए अंग और हड्डियों को जोड़ने के लिए किन-किन औषधियों का उपयोग करते हैं? इतनी जांच पड़ताल और सवाल सुनकर वे झिझके, फिर धीरे से बताया कि टोड (बड़ा मेंढक) के शरीर में चमड़ी के नीचे मौजूद बेहद नाजुक नरम त्वचा को निकालकर वे कटे हुए अंग पर उसे लगाकर बांध देते हैं।
कुछ ही दिनों में घाव के साथ कटा हुआ अंग अपने आप जुड़ने लगता है। जंगल में मिलने वाली कुछ जड़ी-बूटियों का भी सर्जरी में उपयोग करते हैं। इसमें सर्जरी कराने वाले को दर्द भी नहीं होता। यह प्राचीन विद्या सदियों से माड़ के वनवासियों ने संजो कर रखी है।
यह सब सुनकर मन में ख्याल आया… हम किस आधुनिक दुनिया की बात करते हैं। यहां इनसान की आंखों के सामने सर्जरी हो रही है और हम उन्हें पिछड़े की संज्ञा देकर खुद का उपहास कर रहे हैं।
टिप्पणियाँ