|
पाकिस्तान अल्पसंख्यक समुदायों के लिए कब्रिस्तान बन चुका है। वहां के चरमपंथियों ने पहले हिंदुओं को निशाना बनाया था। अब ईसाई भी निशाने पर हैं। जान बचाने के लिए पाकिस्तानी ईसाई वहां से पलायन कर रहे हैंै। ईशनिंदा कानून की आड़ में और उसका दुरुपयोग कर सभी अल्पसंख्यक समुदायों, यहां तक कि उदारवादी मुसलमानों को भी निशाना बनाया जा रहा है
सतीश पेडणेकर
‘‘आप अब आजाद हैं पाकिस्तान के राज में, अपने मंदिर में जाने के लिए, अपनी मस्जिद में जाने के लिए या किसी भी इबादतगाह की ओर रुख करने के लिए। आप किसी भी मजहब, जाति या विश्वास से ताल्लुक रखते हों, इससे राज्य के कारोबार का कोई लेना-देना नहीं है।’’ यह अंश है 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा में मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दिए गए बहुचर्चित भाषण का। इस भाषण के कारण, कहा जाता है कि, जिन्ना भले ही अलग पाकिस्तान चाहते थे, लेकिन उनके सपनों का पाकिस्तान एक सेकुलर पाकिस्तान था। हर कोई अपनी आस्था के मुताबिक जीवन जीने को स्वतंत्र होना था। लेकिन आने वाले समय ने यह साबित कर दिया कि इस्लाम को छोड़ बाकी मत-पंथों के लोगों से किया गया वह वायदा फरेब ही निकला। आजादी तो दूर, पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिए नरक ही साबित हुआ जहां मुसलमानों को छोड़ बाकी सबका जीना दुश्वार बना दिया गया। लोग कहने लगे हैं कि पाकिस्तान कब्रिस्तान साबित हो रहा है। पहले बहुसंख्य समाज के जुल्मों और भेदभाव के कारण हजारों हिंदू भारत में शरण लेने को मजबूर हुए। अब बढ़ती हिंसा और भेदभाव के कारण ईसाई लगातार पाकिस्तान छोड़ने को मजबूर हैं और वे थाईलैंड वगैरह देशों में जाकर बसने की कोशिश में हैं। इस्लामवादी ईशनिंदा कानून का दुरुपयोग करके अल्पसंख्यकों को खत्म करने पर उतारू हैं। पिछले साल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के राजनीतिक गढ़ लाहौर के एक पार्क में आत्मघाती हमला हुआ था जहां लोग ईस्टर अवकाश का मजा ले रहे थे, हमले में 72 लोग मारे गए। इनमें 14 ईसाई थे। दिसंबर, 2014 के बाद यह पाकिस्तान में हुआ सबसे बड़ा हमला था। इनमें मरने वालों में भले ही मुसलमान ज्यादा थे, लेकिन हमलावरों का निशाना मुख्य रूप से ईसाई थे। पाकिस्तानी तालिबान के एक धड़े जमात उल अहरार ने साफ तौर पर कहा, ‘‘लक्ष्य ईसाई लोग थे। हम प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को यह संदेश देना चाहते थे कि हम लाहौर पहुंच गए हैं।’’ लेकिन ईसाइयों पर ऐसा आत्मघाती आतंकवादी हमला पहली बार नहीं हुआ है। हाल के वर्षों में ईसाइयों को निशाना बनाकर कई बड़े हमले किए गए हैं। मार्च, 2015 में लाहौर के कई चर्चों में बम धमाके हुए थे, जिनमें 14 लोग मारे गए थे और 70 घायल हुए थे। 2013 में पेशावर के चर्च में हुए दो आत्मघाती धमाकों में 80 लोग मारे गए थे। 2009 में पंजाब के गोजरा कस्बे में भीड़ ने 40 घरों को आग लगा दी थी। इस वारदात में आठ ईसाइयों की जलकर मौत हो गई थी। इसके अलावा भी कई छोटे-मोटे आतंकी हमले होते रहे हैं।
कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ईसाइयों को निशाना बनाए जाने की वजह यह है कि कि ईसाई समुदाय को पश्चिम समर्थक माना जाता है और मुसलमानों पर किसी भी तरह पश्चिमी देशों के हमले का जवाब बताकर ईसाइयों पर हमले का औचित्य साबित किया जाता है। कई विश्लेषक यह मानते हैं कि 11 सितंबर और उसके बाद ईसाइयों पर हमले बढ़ गए हैं। हमले पहले भी होते थे मगर बहुत कम संख्या में और व्यक्तिगत ज्यादा होते थे।
पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों की मुश्किलें ईश-निंदा कानून ने काफी बढ़ाई हैं। जियाउल हक के दौर में इस कानून में संशोधन करके मौत की सजा का प्रावधान किया गया था। अब एक हथियार के रूप में अल्पसंख्यकों, खासकर ईसाइयों के खिलाफ इसका खूब इस्तेमाल होता है। कानून की खामियां तो अपनी जगह हैं ही, दिक्कत यह भी है कि जैसे ही किसी पर ईश-निंदा का आरोप लगता है, उसके खिलाफ सामाजिक भावना यूं भड़क उठती है कि अदालत से निर्दोष साबित होने पर भी उन पर खौफ का साया मंडराता रहता है। यह बताता है कि वहां के समाज पर कट्टरवादी सोच किस कदर हावी है। 1990 के बाद से कई ईसाइयों को कुरान का अपमान करने और पैगंबर की निंदा करने के आरोपों में दोषी ठहराया जा चुका है।
2005 में कुरान जलाने की अफवाह के बाद पाकिस्तान के फैसलाबाद से ईसाइयों को अपने घर छोड़कर भागना पड़ा था। हिंसक भीड़ ने ईसाइयों के उपासना स्थलों और शिक्षण संस्थानों को आग लगा दी थी। जानकारों का कहना है कि ईसाइयों के खिलाफ ज्यादातर आरोप व्यक्तिगत नफरत और विवादों से प्रेरित थे। 2012 में पाकिस्तान की एक स्कूली छात्रा रिम्शा मसीह पहली गैर-मुसलमान थी जिसे ईशनिंदा के आरोपों से बरी किया गया था। बाद में पता चला था कि एक स्थानीय मौलवी ने उसे गलत तरीके से ईशनिंदा के आरोपों में फंसाया था। लेकिन सबसे चर्चित उदाहरण आयशा बीबी का है, जिन्हें 2010 में कुछ मुसलमान महिलाओं से बहस करने के बाद ईशनिंदा के आरोपों में फंसा दिया गया था। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर ने कहा था कि आयशा बीबी के मामले में ईशनिंदा कानून का दुरुपयोग किया गया है। उनकी यह बात कट्टरवादियों को नहीं सुहाई और उनके अंगरक्षक मुमताज कादरी ने ही गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी। कादरी को पिछले दिनों जब फांसी दी गई तो उसके खिलाफ 30-40 हजार लोग सड़कों पर उतर आए थे। वे मुमताज कादरी को शहीद का दर्जा देने के साथ-साथ उसका स्मारक बनाने की मांग कर रहे थे।
पाकिस्तान का ईशनिंदा कानून जितना मनमाना है, उतना दुनिया के किसी देश का नहीं है। सलमान तासीर इसी कानून को बदलवाना चाहते थे। उन्होंने एक ईसाई महिला के पक्ष में आवाज उठाई थी। पाकिस्तान में कोई यह मांग नहीं कर रहा है कि सलमान तासीर को शहीद घोषित किया जाए और उनका स्मारक बनाया जाए। पाकिस्तान की न्यायपालिका और सरकार ने बड़ी हिम्मत दिखाई कि उन्होंने सलमान तासीर के हत्यारे को सजा-ए-मौत दी।
ईशनिंदा कानून के जरिए कुछ लोगों पर मजहब-द्रोह का आरोप लगाया जाता है और उन्हें कठोरतम सजा दे दी जाती है। ये आरोप सिर्फ हिंदुओं और ईसाइयों पर नहीं, मुसलमानों पर भी थोप दिए जाते हैं। आसिया बीबी पर आरोप थोपा ही गया था। बहुत सारे लोग इस बात से सख्त नाराज हैं कि आसिया बीबी जिंदा है मगर मुमताज कादरी को फांसी चढ़ना पड़ा। यही गुस्सा लाहौर में ईसाइयों पर हमले के रूप में फूटा।
पाकिस्तान के अल्पसंख्यक मामलों के पूर्व मंत्री और ईसाई नेता शाहबाज भट्टी की तालिबान ने ईशनिंदा कानून का विरोध करने पर ही 2011 में हत्या कर दी थी। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को किस तरह अपमानित, प्रताड़ित किया जाता है, इसकी मिसाल खैबर पख्तूनख्वा सूबे में सफाईकर्मियों की नौकरी के लिए निकला वह विज्ञापन था, जिसमें सौ फीसदी सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करने की बात कही गई। इसका मतलब यह था कि अल्पसंख्यक साफ-सफाई के कामों तक ही खुद को सीमित रखें। यह अल्पसंख्यकों के प्रति वहां के समाज का नजरिया भी बताता है। इसी तरह इस्लामाबाद में एक ईसाई समुदाय की बस्ती को इस साल स्थानीय निकायों के चुनावों के दरम्यान प्रशासन ने जबरन इसलिए हटा दिया, क्योंकि उसके मुताबिक वहां रहने वाले ईसाई समुदाय के लोग मुस्लिम इलाकों का जनसंख्या संतुलन बदल देंगे। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस तरह की घटनाओं के खिलाफ और अल्पसंख्यकों के पक्ष में न वहां कोई मुंह खोलता है और न आवाज उठाता है।
पाकिस्तान के कुछ ईसाई जान बचाने के लिए अवैध रूप से थाईलैंड पहुंचे, जहां उन्हें जेलों में डाल दिया गया है। एक गैर-सरकारी संगठन चर्च वर्ल्ड सर्विस के अनुसार सैकड़ों लोगों ने थाईलैंड और श्रीलंका में शरण पाने के लिए आवेदन किया है। पाकिस्तान सरकार आतंकवादियों के सामने इतनी असहाय है कि वह अल्पसंख्यकों की चिंता को दूर करने के लिए भी प्रभावी कदम उठाने में असमर्थ है। ऐसे में ईसाइयों के सामने कोई विकल्प रह ही नहीं गया है। ल्ल
टिप्पणियाँ