|
श्रद्धाञ्जलि
जादुई शख्सियत के धनी पूर्व केन्द्रीय मंत्री और सांसद विनोद खन्ना का अवसान
आलोक गोस्वामी
विनोद खन्ना। फिल्म स्टार… आध्यात्मिक साधक… जननायक… सांसद…राजनेता…पति और स्नेही पिता… कितने स्वरूप थे उनके। विनोद खन्ना की जिंदादिली और खुशमिजाजी से मैं उस दिन पहली बार परिचित हुआ जब 1997 में वे भारतीय जनता पार्टी से जुड़े थे। मेरे संपादक ने चुनौती भरे अंदाज में कहा था- ''विनोद खन्ना का इंटरव्यू करके लाओ तो बात बने।'' भाजपा के अशोक रोड वाले दफ्तर में प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म करके वे गाड़ी में बैठने जा ही रहे थे कि मैंने पास जाकर उनसे अपने दिल की बात कही कि, ''मुझे आपका इंटरव्यू करना है और आज ही करना है।'' गाड़ी में एक कदम रख चुके थे वे…पर जाने क्या सोचकर पलटे और मुस्कराते हुए मुझसे बोले, ''चलिए किसी कमरे में अलग से बैठते हैं।'' और 20 मिनट के उस इंटरव्यू में उन्होंने अपने फिल्मी कैरियर, राजनीति की तरफ झुकाव और बहुत सी दूसरी बातें बताईं जो ज्यादातर के लिए अनजानी थीं। उनका वह मुस्कराहट के साथ बात शुरू करने का अंदाज और सरलता से अपनी बात रखने का लहजा आज भी भूला नहीं हूं मैं।
आज सुबह जब उनके संसार से विदा होने की खबर सुनी तो सहसा यकीन नहीं हुआ…! मुम्बई के रिलायंस अस्पताल में 70 साल के विनोद खन्ना ब्लेडर कार्सिनोमा बीमारी से लड़ते-लड़ते विदा हो गए। लगभग 5 दशक तक मुम्बइया फिल्मों और करीब ढाई दशक तक राजनीतिक क्षेत्र में अपनी धाक जमाने और हर किरदार को भरपूर तथा बखूबी निभाने वाले उस दरियादिल शख्स के जीवन का परदा आखिर गिर गया…
अभी कुछ दिन पहले सोशल साइट्स पर एक अस्पताल में खींची गई उनकी कुछ तस्वीरें सामने आई थीं जिनसे उनकी गिरती सेहत का कुछ अंदाजा लगा था। देशभर में, खासकर उनके गृह प्रदेश पंजाब में उनके चाहने वालों ने दुआएं मांगनी शुरू कर दीं…उनकी सेहत में सुधार के लिए लोगों ने यज्ञ-हवन किए, लेकिन…
उनकी जिंदगी में जाने कितने मोड़ आए थे, पर हरेक को पूरी तरह आत्मसात करने का गुर था उनमें। मिसाल के लिए, '80 के दशक में हिन्दी फिल्मों में अपनी अदाकारी, खास अंदाज और रौबीले व्यक्तित्व से शिखर को छूने वाले विनोद खन्ना ने अचानक अध्यात्म की तरफ आकर्षित हो उस दौर की आध्यात्मिक विभूति आचार्य रजनीश (बाद में ओशो के नाम से विख्यात) की शरण में जाकर गेरुआ चोला पहन लिया। कुछ वर्ष ध्यान-साधना के बाद फिर से फिल्मों में वापसी की और एक के बाद एक कई फिल्मों में छा गए। उनकी कुछ चुनिंदा, बॉक्स ऑफिस पर सफल फिल्मों में 'मेरा गांव, मेरा देश' 'मुकद्दर का सिकंदर', 'परवरिश', 'अमर अकबर एंथनी', 'दयावान', 'कुर्बानी', 'चांदनी', 'दबंग', 'दिलवाले' का नाम लिया जा सकता है। 1975 और 1999 में उन्हें फिल्मफेयर सम्मान प्राप्त हुआ था।
समाज के लिए कुछ करने को उनका मन बहुत पहले से कुलबुलाता रहा था सो '90 के दशक के उत्तरार्ध में उन्हें जो पार्टी उनके पंखों को परवाज देने में मददगार दिखी, वह थी भाजपा। 1997 में वे भाजपा के सदस्य बनकर समाज के लिए तमाम तरह के काम करने में सक्रिय हो गए। उसके बाद हुए 1998, 1999, 2004 और 2014 के चुनाव में वे गुरदासपुर से सांसद बने…उनकी ऊर्जा को देखते हुए उन्हें दो बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली। वे पहली बार संस्कृति व पर्यटन राज्यमंत्री बनाए गए, फिर विदेश राज्यमंत्री। वे रा. स्व. संघ के कार्यक्रमों में भी शामिल होते थे। उनके लोकसभा क्षेत्र में आने वाले पठानकोट के पूर्व विभाग संघचालक श्री अशोक महाजन का उनसे करीबी संपर्क रहा था चुनावों के दौरान और अन्य अवसरों पर भी। अशोक जी बताते हैं, ''संघ कार्यकर्ताओं से मिलने-जुलने में विनोद खन्ना देर रात तक सक्रिय रहते थे। पूछने पर कहते थे, मुझे योग-निद्रा लेने की आदत है इसलिए लेटने की जरूरत नहीं पड़ती। योग और अध्यात्म में उनकी गहरी रुचि थी ही।'' श्री महाजन बताते हैं कि वे किसी की बुराई या किसी के खिलाफ चुगली करने वालों को तरजीह नहीं देते थे। विनोद खन्ना गुरदासपुर के सांसद के नाते क्षेत्र के लोगों की मदद के लिए हर वक्त तैयार रहते थे…ऐसा गुरदासपुर वालों का कहना था। वहां गरीब छात्रों को पढ़ने के लिए पैसे की कमी न आने देना, बेरोजगारों को नौकरी लगे, इसकी चिंता करना। उन्हें हर सुख-दुख में अपने बीच पाने वाले गुरदासपुर के लोग तो अपने प्रिय सांसद के यूं अचानक चले जाने की खबर सुनकर जैसे टूट से गए। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि विनोद जी अब नहीं रहे। वे अपने पीछे अपनी पत्नी कविता तथा तीन बेटों अक्षय, राहुल, साक्षी और एक पुत्री श्रद्धा को छोड़ गए हैं।
टिप्पणियाँ