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मूलत: सफल चीजों की नकल होती है। सो, ऐसे वक्त जब तमिलनाडु के कोयम्बटूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में संघ के सांगठनिक विस्तार और व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता के वृत रखे जा रहे थे, उसी वक्त कहीं और एक अन्य अकुलाहट किसी को बेचैन किए थी। …संघ इतना सफल है तो क्यों न एक संघ ही बना लिया जाए? कितना अद्भुत विचार है! है न!
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व ओलंपियन असलम शेर खान ने इस संगठन की स्थापना की घोषणा भी कर दी है, नाम होगा राष्ट्रीय कांग्रेस स्वयंसेवक संघ। घोषणा के साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि कांग्रेसी बिल्ले वाले इस संगठन में गणवेश इत्यादि का झंझट नहीं होगा। यानी जो जरा सी दिक्कत थी वह भी पल में दूर…काम भी साफ है। यह संघ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव में कांग्रेस की गुपचुप तरीके से सहायता करेगा।
कितना सरल है न संघ बनाना। काम भी कितना सीधा सा है!
हंसिए मत! जिनके लिए राष्टÑ नहीं, राज ही सबकुछ है वहां आप और किस तरह के प्रयोग की कल्पना कर
सकते हैं?
हर मुद्दे में राजनीति, राजनीति में भी केवल हनक और सत्ता और दल में केवल एक ही परिवार को देखने से पैदा हुए निकट दृष्टि दोष के कारण ऐसी अनूठी सोच स्वाभाविक है।
सपने देखना बुरी बात नहीं है। जो संघ जैसा संगठन खड़ा करना चाहते हैं, उन्हें शुभकामनाएं देनी ही चाहिए किन्तु इसके लिए उन्हें वास्तव में ‘संघ’ होना पड़ेगा। कई लोगों का प्रश्न हो सकता है कि ‘संघ जैसा’ कैसे हुआ जा सकता है? सो, ऐसे में ठीक उत्तर यही बनता है कि बाहर से देखकर संघ की नकल करना मुश्किल है, इसलिए संघ का प्रतिरूप खड़ा करने के इच्छुक लोगों को संघ में इसकी शाखाओं में जाना चाहिए। यही सबसे सरल तरीका है संघ को भीतर तक समझने का। अच्छी बात यह कि देश के सभी प्रांतों में जगह-जगह लगती हजारों शाखाएं नए लोगों को जोड़ने, उनके स्वागत के लिए तैयार हैं। इसमें राजनीति करने वालों का दोष नहीं किन्तु यदि उनको राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ में सिर्फ राजनीति समझ आती है तो उनकी यह भ्रांति शाखा के परिचय से सहज दूर हो सकती है।
इस संदर्भ में एक तथ्य कई गलतफहमियां बुहार सकता है। राजनीति ने संघ से जो पहला कार्यकर्ता औपचारिक रूप से मांगा था वह थे पं. दीनदयाल उपाध्याय। आश्चर्य की बात है कि कालांतर में जब वे जनसंघ (भाजपा के पूर्ववर्ती रूप) के अध्यक्ष बने तब वे स्वयं इस पद के इच्छुक नहीं थे। तत्कालीन सरसरंघचालक श्री गुरुजी को अंतत: उनसे यह आग्रह करना पड़ा कि भले साल भर के लिए ही सही किन्तु आपद्धर्म के रूप में वे यह दायित्व स्वीकारें।
यह सिर्फ उदाहरण है जहां संघभाव से प्रेरित स्वयंसेवक की राजनैतिक निस्पृहता और पद व दायित्व में अंतर समझने के भाव की झलक मिलती है। लेकिन केवल एक झलक क्यों? संघ क्या करता है, इससे प्रेरणा पाने वाले संगठन क्या-क्या करते हैं, यह वास्तव में जानने की
बातें हैं।
संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सम्मिलित प्रमुख संगठनों के कार्यवृत के मुख्य बिन्दु इसमें सहायक हो सकते हैं (देखें पृष्ठ-26, 27)।
बहरहाल, तुच्छ हितों और कोरे परिवारवाद की बजबजाती राजनीति में गोता मारने के लिए कंबल खोज रहे लोग अपने इस अभियान को ‘संघ’ की खोज न ही ठहराएं तो अच्छा।
समाज के साथ, उसकी चिंता और हितों के साथ एकात्म संघ इस राष्टÑ की चरणधूल है, किसी परिवार के पांव पकड़ने वालों के हाथ संघ बनाने का फार्मूला नहीं आएगा।
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