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विश्व की अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा भारतीय संस्कृति सबसे प्रचुर है। जो 48 संस्कृतियां आज काल के गाल में समा गईं, उनमें से एकमेव भारतीय संस्कृति ऐसी है जो अभी तक जीवंत, प्रज्ज्वल और चैतन्य है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विवि. में तीन दिन चले भारत बोध सम्मेलन में भारत की इसी समृद्धपूर्ण संस्कृति-विरासत पर मंथन हुआ
अश्वनी मिश्र
किसी भी देश की महत्ता उस देश के क्षेत्रफल से नहीं बल्कि वहां के समृद्ध इतिहास और शिक्षा के स्तर से आंकी जाती है। लेकिन जब उस महत्ता को ही विकृत कर दिया गया हो तो? ऐसे में अनायास ही यह प्रश्न उभरता है कि आने वाली पीढ़ी कैसे अपने देश की सभ्यता, संस्कृति, परंपरा और वास्तविक इतिहास को समझ पाएगी? ऐसे ही प्रश्नों को सुलझाने के लिए आज की पीढ़ी उधेड़बुन में फंसी दिखती है। क्योंकि भारत का वास्तविक इतिहास उसे मालूम नहीं है और जो बताया जा रहा वी भ्रामकता से भरा है।
ऐसे में भारत बोध सम्मेलन में आए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का यह कहना स्वाभाविक ही था,'भारत की संस्कृति कहां से, कैसे और कब आई? इसके बारे में सिर्फ यही प्रमाण है कि यहां की संस्कृति सनातन है और मानवता का बोध कराने वाली है।' उनका यह कथन शायद उन लोगों के लिए एक स्पष्ट संदेश था जो भारत के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और सनातन संस्कृति को विकृत करने का काम करते हैं। इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति के अलावा देश के अनेक जाने-माने शिक्षाविद्, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, लेखक, शोधार्थी, अध्यात्म एवं संस्कृति से जुड़े विशिष्ट लोगों ने इसी तरह भारतीय ज्ञान परंपरा एवं उसके वास्तविक इतिहास के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए।
भारतीय शिक्षण मंडल एवं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा संयुक्त रूप से 23-25 फरवरी को नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन 'भारत बोध' का आयोजन किया गया था। राष्ट्रपति ने विवि. के भीमराव आंबेडकर सभागार में हुए इस सम्मेलन का उद्घाटन किया। कार्यक्रम में मंच पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख श्री अनिरुद्ध देशपांडे एवं मानव संंसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर भी उपस्थित थे।
उद्घाटन सत्र में राष्ट्रपति ने कहा,''भारतीय सभ्यता हमें मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाती है। इसलिए भारत की बौद्धिक विरासत को स्थापित करना एक महत्वपूर्ण प्रयास है। सभी के प्रति सहिष्णुता, दया और मातृभूमि से प्रेम ही भारतीय सभ्यता के वास्तविक मूल्य हैं। भारत की यही विशेषता है कि यहां सैकड़ों भाषाएं और सभी मत-पंथ एक व्यवस्था के अंदर रहते हैं।'' उन्होंने आगे कहा,''भारत का विचार सनातन ज्ञान की हमारी महान परंपरा से प्रवाहित होता आया है। हमारी सभ्यता के मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे 200 भाषाओं, 1,800 बोलियों और दुनिया के सात प्रमुख पंथों की विविधता को समेटे हुए हम एक व्यवस्था, एक झंडा और एक संविधान के अंतर्गत रहते हैं। भारतीय सभ्यता 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' का संदेश देती है।'' उन्होंने अपने उद्बोधन के अंत में जोड़ा कि तीन दिन के सम्मेलन में जो विचार मंथन होगा, वह देश के लिए लाभदायक होगा।
वहीं, अरणी मंथन सत्र में प्रमुख रूप से उपस्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी ने कहा,''बोध का संबंध अनुभूति के साथ है और अनुभूति मानव के पूरे व्यक्तित्व को बदलती है। आज ठीक समझ को शैक्षणिक पद्धति में अनुग्रहित करने की आवश्यकता है, क्योंकि पिछले एक हजार साल में भारत पर जो आक्रमण हुए वे विचारधाराओं के हमले थे और उन सबका एक विशेष प्रभाव भारत पर आज भी है।'' उन्होंने कहा,''लुप्त होती भारतीय जीवन पद्धति का संकलन कर उसे जीते-जागते समाज के व्यवहार में लाने की आवश्यकता है और प्रतिमानों के आधार पर समस्त प्राचीन बोध को एकत्रित कर उन्हें एक इतिहास में पिरोने की जरूरत है।''
सम्मेलन में भारत और विश्व के अलग-अलग शिक्षण संस्थानों से लगभग 900 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिन्होंने भारत से संबंधित विभिन्न पक्षों पर कई मौलिक शोध पत्र प्रस्तुत किए। गुजरात गोसेवा आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री वल्लभभाई कथीरिया ने कहा,''शिक्षण मंडल द्वारा 'भारत बोध' विषय को लेकर कार्यक्रम करना समय की महती आवश्यकता है, क्योंकि आज विश्व भारत की ओर देख रहा है। ऐसे में यहां जो चितंन-मनन होगा और जो अमृत निकलेगा, वह देश के काम आएगा।'' महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विवि. वर्धा के अधिष्ठाता प्रो. अनिल राय ने कहा,''भारत के पुनर्स्थापन में यह संगोष्ठी एक महत्वपूर्ण पहल है। ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर हमारे देश की मुख्य पहचान हैं। दुर्भाग्यवश राजनीतिक और औपनिवेशिक तत्वों ने इसे उलट कर विश्व के सामने प्रस्तुत करने के अनेक प्रयास किए। लेकिन अब समय आ गया है कि भारत को उसकी मूल राष्ट्रीय पहचान के रूप में पुनर्स्थापित किया जाए तथा सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पुनर्निमाण को सुनिश्चित किया जाए।''
सम्मेलन के दूसरे दिन महाशिवरात्रि के अवसर पर सभागार-2 में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें प्रख्यात नृत्यांगना डॉ. सोनल मानसिंह उपस्थित थीं। इस मौके पर उन्होंने शिव महिमा एवं कृष्ण लीला की सुंदर और मंत्रमुग्ध करने वाली प्रस्तुतियां दीं। उपस्थित दर्शकों ने उनकी प्रस्तुतियों को करतल ध्वनि से सराहा। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के न्यासी सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने उन्हें शॉल, श्रीफल एवं पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया।
दूसरे दिन गुजरात के अरो विश्वविद्यालय के प्रबंधन बोर्ड के अध्यक्ष डॉ़ शैलेंद्र राज मेहता के संबोधन से ज्ञान यत्र सत्र की शुरुआत हुई। उन्होंने कहा,''ब्रिटिश शासन काल से पहले भारत कहीं ज्यादा शिक्षित था, लेकिन अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा व्यवस्था का ढांचा ध्वस्त कर दिया। प्राचीन काल में तक्षशिला जैसे ज्ञान के केंद्र सभी प्रमुख सभ्यताओं में आदान-प्रदान का केंद्रबिंदु थे, लेकिन आज हम उस व्यवस्था से कोसों दूर हैं। जरूरत लोगों को साक्षरता के साथ शिक्षित करने की भी है।'' वहीं अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के कुलपति अनुराग बेहर ने कहा,''शिक्षा में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। वे मूल्यों का संवर्धन करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। किसी शिक्षा संस्थान का आकलन करना हो तो मूल्यों का संवर्धन करने में उसकी भूमिका को भी कसौटी बनाना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य होता है मजबूत समाज का आधार। लेकिन यह आधार तभी मजबूत होगा, जब हमारी शिक्षा व्यवस्था आचरणनिष्ठ होगी।''
सम्मेलन में प्रमुख रूप से उपस्थित एन.सी.ई.आर.टी. के पूर्व निदेशक एवं शिक्षाविद् प्रोफेसर जे.एस. राजपूत ने व्यक्तित्व के सवांर्गीण विकास में शिक्षकों की भूमिका पर बल दिया। उन्होंने कहा,''हम पश्चिम की विचारधारा की रौ में बह गए और आजादी के बाद अपने देश की निहित शक्तियों को विकास के नाम पर विस्मृत कर दिया। हम भूल गए कि हमारे यहां शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण था। अब हालत यह है कि शिक्षा से हम फायदा कमाना चाहते हैं, लेकिन अब इसे बदलना होगा।'' आहुति सत्र में अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले उपस्थित रहे। वहीं प्रमुख वक्ता के रूप मंे प्रसिद्ध लेखक राजीव मल्होत्रा एवं उदयपुर पेसिफिक विवि. के कुलपति डॉ. भगवती प्रकाश ने अपने विचार रखे।
श्री मल्होत्रा ने भारतीय ज्ञान-विज्ञान विषय पर कहा,''भारत को अपनी विशिष्टता का बोध करना चाहिए, क्योंकि यही विशिष्टता उसे श्रेष्ठता प्रदान करेगी। लेकिन दुख इस बात का है कि अमेरिका के लोग अपने राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रगान और अपनी विरासत पर गौरव करते हैं, जबकि भारत के लोगों में गौरव बोध नहीं है।''
मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित डॉ. भगवती प्रकाश ने कहा, ''हमारा समृद्धपूर्ण इतिहास ज्ञान से पूरिपूर्ण है। पुराण, परंपरा, संस्कृति और गं्रथ ही भारत को उसका स्वरूप प्रदान करते हैं। कुछ समय पूर्व जिस तरह से समाज में जहर घोला गया, ऊंच-नीच का भेदभाव फैलाया गया, ऐसे में सवाल उठता है कि यह हमारी परंपरा में कभी रहा ही नहीं तो कहां से आया? दरअसल, विदेशी आक्रांताओं ने समाज में फूट डालने के लिए ऐसे कार्य किए जो आज तक समाज में द्वेष उत्पन्न करते आ रहे हैं।'' एक सत्र में राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा,''भारत ज्ञान की धरती है। यहां अथाह ज्ञान भंडार समाया हुआ है। लेकिन उसे हमने कभी जानने की चेष्टा नहीं की। वहीं, दूसरी ओर इसे नष्ट करने के षड्यंत्र होते रहे। पर अब समाज को भारत की संस्कृति और ज्ञान के बारे में बताने का काम हमारा है।''
कार्यक्रम के अंतिम दिन विभिन्न सभागारों में अनेक विषयों पर चले चर्चा सत्रों में वक्ताओं ने अपने विचार रखे। भीमराव आंबेडकर सभागार में 'इतिहास दृष्टि' पर सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता मोनिका अरोड़ा ने महिलाओं को केन्द्र में रखकर कहा कि देश की महिलाएं किसी से कमजोर नहीं हैं। वे रानी लक्ष्मीबाई हैं तो दुर्गा भी हैं। सम्मेलन के आहुति सत्र में धर्म-संस्कृति विषय पर नालंदा विवि. के कुलपति डॉ. विजय भाटकर ने कहा,''भारत बोध कार्यक्रम का विचार बड़ा ही अच्छा है, क्योंकि हमें और हमारी पीढ़ी को भारत के बारे में पता ही नहीं। यहां षड्यंत्रपूर्वक गलत चीजों को बताया जाता है। हम भारत बोध के लिए 70 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं।'' उन्होंने आगे कहा कि भारत के पास अथाह ज्ञान का भंडार है। यह वेद, पुराण, दर्शन का देश है। वे हमें जीवन जीने के बारे में बताते हैं। अब हमारा दायित्व बनता है कि यह ज्ञान समाज तक पहुंचे। भारत की जो असल पहचान है, उसे विश्व देखे क्योंकि 21वीं सदी भारत की है।'' सम्मेलन के समापन सत्र में मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख श्री अनिरुद्ध देशपांडे उपस्थित रहे। उन्होंने सत्र को संबोधित करते हुए कहा,''पिछले कुछ समय से वामपंथियों द्वारा भारत को बांटने के प्रयास किए गए लेकिन ऐसी प्रवृत्तियों से अब सावधान रहने और उनका प्रतिकार करने की आवश्यकता है। हमारे पराक्रमी पुरुषों के जीवन चरित्र पर आघात हो रहा है। देश में कुछ ऐसे लोग हैं जो भारत की हर चीज में कोई न कोई कमी देखते हैं और उसे बढ़ा-चढ़ाकर बताने का प्रयास करते हैं। ऐसे प्रयासों की पहचान कर उनका निदान करने की जरूरत है।'' अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में देश-विदेश के बुद्धिजीवियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि मौजूदा दौर में विश्व कई भयानक समस्याओं से जूझ रहा है। भारतीय जीवन मूल्य और परंपरा को आत्मसात करके ही इन समस्याओं का स्थायी समाधान निकाला जा सकता है।
125 शोध पत्र पेश
तीन दिवसीय भारत बोध अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में 24 राज्यों से दर्जनों प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। इसके अलावा, 9 अन्तरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों सहित देश से 500 से अधिक प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। सम्मेलन में 31 सत्र हुए और 125 शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। इनमें से सबसे अधिक 33 शोध पत्र विज्ञान व प्रौद्योगिकी विषय पर थे। इसके अलावा कला क्षेत्र पर 12, शिक्षा पर 13 एवं धर्म संस्कृति पर 11 शोध पत्र प्रस्तुत किए गए।
इस सम्मेलन का आयोजन भारतीय शिक्षण मंडल ने किया था। शिक्षण मंडल का गठन 1969 में रामनवमी के दिन मुंबई में देशभर के 21 मूर्धन्य शिक्षाविदों ने किया था जिसमें शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के अध्यक्ष दीनानाथ बत्रा प्रमुख रूप से थे। इस दौरान प्रमुख शिक्षाविदों ने विचार किया कि देश स्वतंत्र हो गया, लेकिन 'स्व तंत्र' यानी अपना तंत्र नहीं हुआ। इसी विचार के साथ भारतीय शिक्षण मंडल की स्थापना की गई। मंडल 5 आयामों में काम करता है। अनुसंधान, प्रबोधन, प्रशिक्षण, प्रकाशन और इन चारों को कार्य रूप देने के लिए संगठन। इसकी देशभर में शाखाएं हैं और शिक्षा क्षेत्र में निरंतर कार्य चलता है।
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