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ओडिशा में 17 साल से नवीन पटनायक बिना किसी चुनौती के अपनी सरकार चला रहे हैं। लेकिन पंचायत चुनाव के नतीजों ने सत्तारूढ़ बीजद सरकार की चूलें हिलाकर रख दी हैं। गठबंधन टूटने के बाद प्रदेश में अब तक हाशिये पर रहने वाली भाजपा ने बीजद के गढ़ों में सेंध लगाई है
पंकज झा
राजा इंद्र्रद्युम्न ने ओडिशा स्थित जगन्नाथ मन्दिर का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि राजा की भक्ति से प्रसन्न हो भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो इंद्रद्युम्न ने यही मांगा कि उनके खानदान में आगे कोई संतान न हो, ताकि राजा के किये काम का श्रेय किसी को पारिवारिक आधार पर बिना कुछ किये ही न मिल पाए। यह उस समय की बात है जब राजा की संतान ही उसकी उत्तराधिकारी होती थी। इसके उलट मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब भी राजनीति में परिवारवाद की बात होगी, राजा इंद्रद्युम्न की यह कहानी उदाहरण के रूप में दोहराई जाती रहेगी। यह बात अलग है कि ऐसे राजा का अपना प्रदेश ही दशकों से वंशवाद की इस समस्या से ग्रस्त है।
देश की जनता जब पांच राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव पर टकटकी लगाए हुए है या मुंबई के नगरीय निकाय चुनाव आदि में व्यस्त थी, तब यह पूर्वी राज्य एक मौन क्रांति की तरफ बढ़ रहा था। ओडिशा में जमीनी तौर पर एक बड़े परिवर्तन की रूपरेखा तैयार की जा रही थी जिसके बारे में सूबे के बाहर शायद कम लोगों को ही मालूम था। तमाम चुनावी घमासान के उलट राज्य में पंचायत चुनाव परिणाम न सिर्फ चौंकाने वाला और अप्रत्याशित रहा, बल्कि इसने कई धारणाओं को ध्वस्त कर सूबे के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के लिए खतरे की घंटी बजा दी है।
अन्य राज्यों के विपरीत ओडिशा में पंचायत चुनाव पार्टियों के चिह्न पर ही होते हैं। इसलिए यह चुनाव परिणाम भाजपा के लिए उत्साहवर्धक संदेश लेकर आया है। 2012 के पंचायत चुनावों में भाजपा को जिला परिषद् की 851 सीटों में से मात्र 36 सीटें ही मिली थीं। लेकिन इस बार यह आंकड़ा आश्चर्यजनक रूप से 299 पर पहुंच गया है और करीब एक तिहाई जिला परिषदों पर भाजपा का कब्जा तय लग रहा है। यानी पिछली बार के मुकाबले इस बार पार्टी को दस गुना से भी ज्यादा सीटें हासिल हुई हैं। वहीं, सत्तारूढ़ बीजद को 180 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। सफलता ऐसी कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी सभाओं में इसका जिक्र करना नहीं भूलते। इस परिणाम के बाद पिछले 17 साल से सत्ता सुख भोगने वाले नवीन पटनायक अपने पार्टी विधायकों और नेताओं को अहंकार छोड़कर जनता से जुड़े रहने की सलाह दे रहे हैं।
यह तो होना ही था
पटनायक भले ही उक्त सलाह दे रहे हों, लेकिन जवाब तो उन्हें ही देना होगा कि लंबे समय से मिल रहे निर्बाध समर्थन के बदले राज्य की जनता को आखिर क्या हासिल हुआ? अपार संभावनाओं, उपजाऊ भूमि, प्राकृतिक एवं खनिज संपदा की प्रचुरता के बावजूद जिस राज्य में गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और अशिक्षा जैसी विकराल समस्याएं हों, वहां तो ऐसा परिणाम आना ही था। खाने को मोहताज जनजातीय बहुल कालाहांडी की 36 सीटों में से बीजद को सिर्फ एक सीट मिली, जबकि भाजपा ने 33 सीटों पर कब्जा जमाया। कभी यह इलाका कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था, लेकिन अब वह 2 सीटों पर सिमट गई है। यह वही कालाहांडी है, जहां दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश को कंधे पर मीलों ढोने के लिए दुनिया भर में चर्चा में रहा। आज जबकि भारत तेजी से दुनिया में अपना स्थान बना रहा है, वहां विकास के मखमल में टाट के ऐसे पैबंद लगे रहने देने की जिम्मेदारी से प्रदेश का नेतृत्व बच भी कैसे सकता है?
आंखें मूंदना महंगा पड़ा
इसी तरह का उदाहरण नक्सल प्रभावित मलकानगिरि का है, जहां सौ से अधिक बच्चे जापानी बुखार से मर गए, लेकिन लोगों के लाख आग्रह के बावजूद मुख्यमंत्री ने वहां जाना मुनासिब नहीं समझा। वहां भी भाजपा को 13 में से 10 सीटें मिलीं, जबकि बीजद को एक सीट से संतोष करना पड़ा। स्वामी लक्ष्मणानंद की नृशंस हत्या वाले जिले कंधमाल को कैसे भुलाया जा सकता है। माओवादियों और मिशनरियों के गठजोड़ वाला यह इलाका जो बीजद (और कांग्रेस) का गढ़ है, वहां भी भाजपा ने सेंध लगाते हुए चार सीटें झटकने में कामयाबी पाई। यह भविष्य के बड़े बदलाव का संकेततो है ही। मयूरभंज की 56 में से 49 सीटें भाजपा को मिलना भी रेखांकित करने वाली सफलता है।
हालांकि बीजद अपने कई गढ़ों को बचाने में सफल रही। पुरी, झारसुगड़ा, कोरापुट जैसे कई इलाकों में उसका प्रदर्शन अच्छा रहा, लेकिन चुनाव परिणाम से यह तय हो गया है कि सूबे के वनवासी और पिछड़े इलाकों में उसका वोट बैंक बुरी तरह दरक गया है। आपदा प्रबंधन के लिए पटनायक के पास काफी कम समय बचा है, जबकि जमीनी जीत से उत्साहित भाजपा और ज्यादा ताकत के साथ प्रदेश में अपनी जड़ों को खाद-पानी देने का काम जारी रखने के लिए प्रेरित होगी। सवाल है कि बीजद ने अचानक आखिर ऐसा क्या किया जिससे उसका सिंहासन डोल गया? इसका जवाब यही है कि जनाक्रोश तो वर्षों से पटनायक सरकार के खिलाफ था ही, लेकिन भाजपा उसे भुना नहीं पा रही थी। पार्टी के पास ऐसा कोई नेता भी नहीं था जो उसकी रीत-नीत को नीचे तक पहुंचाता। बीजद ने जिस तरह एक झटके में गठबंधन तोड़ा था, उससे भाजपा उबर नहीं पा रही थी। इसके अलावा पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने भी पलायन कर अन्य राज्यों की मदद से किसी तरह अपना अस्तित्व बचाना ही सही समझा था।
जमीनी स्तर पर काम
जब भाजपा पांच राज्यों और कुछ निकाय चुनावों की तैयारी में जुटी हुई थी, तब पार्टी नेता ज्यादा महत्वपूर्ण माने जाने वाले उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में काम करने को सम्मान की बात समझ रहे थे। ऐसे में ओडिशा जैसे राज्य में पंचायत चुनाव का प्रभार संभालने को सम्मान की बात कौन समझता? खासकर जिस प्रदेश को पार्टी की नजर में बंजर माना जाता हो। तब पड़ोस के छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे प्रदेशों का अनुभव रखने वाले संगठन के सह महासचिव सौदान सिंह को यह जिम्मेदारी दी गई। प्रदेश के जमीनी हालात का अध्ययन करने के बाद उन्होंने 'कांग्रेस साफ, बीजद हाफ' नारे के साथ चुनाव अभियान शुरू किया और उसे मंडलों तक पहुंचाया। फिर सभी ब्लॉक प्रमुखों को हर माह अपने-अपने ब्लॉक में जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने के निर्देश दिए। इसी तरह जिला अध्यक्षों को भी लगातार धरना-प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया गया। इस दौरान इस बात का लगातार ध्यान रखा गया कि जमीनी स्तर पर सिर्फ काम हो, लेकिन चुनाव संयम के साथ ही लड़ा जाए। भले ओडिशा में पंचायत चुनाव पार्टी के चिह्न पर लड़ा जाता हो, लेकिन अभियान शुरू होने के बाद उसे निहायत स्थानीय रूप दिया गया। इसके अलावा, चुनाव अभियान की शुरुआत से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन जन सभाएं भी कराई गईं। बोलांगीर में आयोजित किसान रैली में जिस तरह किसानों की भीड़ उमड़ी थी, उससे हवा के रुख का पता चल गया था। बंदरगाह वाले शहर पारादीप के अलावा बालेश्वर में भी प्रधानमंत्री की दो अलग-अलग सभाएं आयोजित की गईं। इसके अलावा, भाजपाध्यक्ष अमित शाह की भुवनेश्वर में हुई जनाक्रोश रैली भी काफी सफल रही।
अभेद्य व्यूह रचना
बालेश्वर की सभाओं में भी जिला अध्यक्ष समेत सभी नेताओं को ताकीद थी कि वे सभी मोटरसाइकिल से ही रैली में आएं। इसके बाद तो तीस हजार से अधिक मोटरसाइकिलों के काफिले ने समूचे प्रदेश में माहौल बना दिया। केंद्र में भाजपा नीत सरकार ने जब दो साल पूरे किए तो उपलब्धियां गिनाने के लिए 'हिसाब देने आ रहा हूं दो साल का' और 'देश बदल रहा है, आगे चल रहा है' जैसे नारों आदि का ओडिया भाषा में ऑडियो तैयार किया गया। जिला केंद्रों में अनेक बैठेकें की गईं। कई जिले तो ऐसे थे जहां पहली बार संगठन का कोई राष्ट्रीय पदाधिकारी पहुंंचा था। बाद उन्होंने जिलों की कोर टीम की बैठक की रिपोर्ट भुवनेश्वर मंगाई। फिर मजबूत और कमजोर सीटों की पहचान कर उसे ग्रेड में बांटा गया और ग्रेड के मुताबिक हर सीट के लिए व्यूह रचना की गई।
बीजद की तैयारी भी कम नहीं
ऐसा नहीं था कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भाजपा के बढ़ते प्रभाव से अनजान थे। उन्होंने भी इस चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी थी। स्थानीय निकाय चुनाव में जहां राष्ट्रीय चुनाव आयोग का दखल नहीं होता, ऐसे में इसका फायदा सत्ताधारी दल को मिलना स्वाभाविक था। यही हुआ भी। चुनाव के कार्यक्रम कई चरणों में घोषित किए गए। पहले उन इलाकों में चुनाव करा लिया गया जो बीजद के गढ़ थे। इसके बाद हर चरण में उसी दिन चुनाव परिणाम घोषित करने का कार्यक्रम बनाया गया। इसके पीछे मंशा यह थी कि शुरुआती चरणों में बीजद की जीत की खबर से प्रदेश के अन्य हिस्सों में पार्टी के पक्ष में माहौल बनेगा। उल्लेखनीय है कि कई चरणों में होने वालेे अन्य चुनावों में इन्हीं कारणों से चुनावी सर्वेक्षणों के प्रसारण पर चुनाव आयोग ने पाबंदी लगाई हुई है, चुनाव परिणाम का प्रसारण तो दूर की बात है। लेेकिन ओडिशा इस मामले में अपवाद रहा। इन सबके बावजूद पटनायक का गढ़ पहले चरण से ही दरकना शुरू हो गया।
काम नहीं आई चाल
इसके अलावा राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़ के साथ जारी महानदी विवाद को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की। इसका मकसद छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार पर दोषारोपण कर भाजपा के खिलाफ लोगों में आक्रोश पैदा करना था। लेकिन भाजपा के नीतिकारों ने 150 से अधिक कार्यकर्ताओं को ओडिशा के 12 जिलों में पार्टी का पक्ष रखने के लिए बुलाया। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ़ रमन सिंह की अनेक चुनावी सभाएं कराई गईं, जो कारगर साबित हुईं। साथ ही, पटनायक द्वारा उडि़या भाषा नहीं बोल पाने को भी खूब भुनाया गया। पार्टी जनता को ओडिया में संबोधित कर यह संदेश पहुंचाने में सफल रही कि दूसरे प्रदेश से वास्ता रखने के बावजूद उसके नेता और कार्यकर्ता उनकी भाषा बोल रहे हैं, जबकि उनका मुख्यमंत्री ही उनकी भाषा नहीं बोल पाता। इन सब वजहों के कारण भाजपा इस क्षेत्र की करीब आधी सीटें जीतने में सफल रही। अभी तक केंद्रीय योजनाओं को प्रदेश की योजना बता कर राजनीतिक फायदा उठाने की मंशा का भी कार्यकर्ताओं ने जोरदार खंडन कर लोगों को इसकी हकीकत बताई।
कई मिथक टूटे
इस चुनाव परिणाम ने कई मिथकों को तोड़ा है। केंद्र में भाजपा नीत सरकार के गठन के बाद ढेरों निकाय चुनाव हुए। सभी में भाजपा को बड़ी सफलता मिली। लेकिन ऐसे हर चुनाव के बाद आलोचकों की प्रतिक्रिया होती थी कि शहरी इलाकों में तो भाजपा का परंपरागत आधार है। पार्टी के निशान पर होने वालेे इस चुनाव ने साबित किया कि ग्रामीण इलाकों में भी भाजपा का जनाधार लगातार बढ़ रहा है। इसी तरह खास वगार्ें की पार्टी होने का आरोप झेलती रही भाजपा को सबसे ज्यादा समर्थन यहां भी अति पिछड़े और वनवासी इलाकों से ही मिला है। इस वजह से आलोचकों को एक बार फिर माकूल जबाव मिल गया है।
भाजपा के लिए अहम
भाजपा के लिए यह चुनाव इस मायने में भी महत्वपूर्ण है, कि 2014 की मोदी लहर में भी पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और ओडिशा जैसे राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रपों के जिन दुर्गों को ढहा पाना संभव नहीं हुआ था, उनमें से एक में इस बार पार्टी ने बाजी मारी है। अभी तक प्रेक्षक यह कहते आए थे कि भाजपा कांग्रेस से भले जीत जाए, लेकिन उसके लिए क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को कम करना संभव नहीं है। भविष्य में पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे इलाकों में भी इसे उदाहरण बनाया जा सकता है। केरल जैसे प्रदेश, जहां हिन्दू प्राणपण से जूझ रहे हैं, वहां भी अगर सशक्त विकल्प मिले तो कमल खिल सकता है।
बहरहाल, नवीन पटनायक के शब्दों में, पंचायत चुनाव परिणाम बीजद के लिए 'खतरे की घंटी' हैं। वे यह संदेश भी जरूर ग्रहण कर पाए होंगे कि जैसी चुनौती उन्हें मिली है, उसका मुकाबला कार्यकर्ताओं की बदौलत ही किया जा
सकता है।
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