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देश का सेकुलर मीडिया अपने हितों को साधने की खातिर पत्रकारिता के सिद्धांतों को ताक पर धर सच को दबाता रहा है। यही कारण है कि न तो गोधरा में जिंदा जला दिए गए लोगों की खबर दिखाई जाती है और न ही कश्मीर की आजादी के नारे लगाने वालों की खबर ली जाती है
संदीप देव
आज से 15 साल पहले 27 फरवरी, 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस को जलाने की घटना हुई थी। इसमें 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया था। इनमें 25 महिलाएं, 19 पुरुष और 15 बच्चे शामिल थे। इनका कसूर क्या था? बस इतना ही कि ये लोग अयोध्या में आयोजित पूर्णाहुति महायज्ञ में भाग लेकर घर लौट रहे थे। इसके बाद देश ने इन 59 मृतकों और उनके परिवारवालों के प्रति सेकुलर मीडिया का जो पूर्वाग्रह देखा, वह मीडिया के पूरे इतिहास में सबसे अधिक शर्मनाक और वीभत्स था। गोधरा में मरने वाले सभी हिंदू थे। इसलिए उन्हें ही दोषी ठहराने की कोशिश की गई। मारने वाले सभी मुसलमान थे और इनमें से कई कांग्रेस के कार्यकर्ता भी रहे थे। आरोपियों को बचाने के लिए कलम, की-बोर्ड और कैमरे के जरिए करीब एक दशक तक नग्न नाच चला। सेकुलर मीडिया ने यह बताने की कोशिश की कि आग गाड़ी के अंदर से ही लगी थी। और यह सब हुआ छद्म सेकुलरवाद के नाम पर!
गोधरा कांड पर विशेष अदालत ने 25 फरवरी, 2011 को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने 94 आरोपियों में से 31 को दोषी ठहराया। इनमें से 20 को उम्रकैद और 11 को फांसी की सजा मिली। सेकुलर मीडिया ने दोषियों की करतूतें बताने की बजाए, उन 63 आरोपियों को 'बेचारा' बताने की साजिश रची, जिन्हें संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया गया था। अदालती फैसले वाले दिन ज्यादातर चैनलों में बहस का मुद्दा यह नहीं था कि गोधरा जैसी घटना क्यों हुई, बल्कि यह था कि अब उन 63 लोगों का क्या होगा, जिन्हें बिना सबूत आठ साल तक जेल में बंद रखा गया? आरोप-मुक्त हुए गोधरा की एक मस्जिद के मौलाना उमर के परिवार के बयान को 24 घंटे के तमाशे में तब्दील कर दिया गया। सेकुलर मीडिया ने पत्रकारिता के मूल तत्व को तार-तार कर दिया। इन्होंने गोधरा में जिंदा जला दिए गए लोगों को कभी हिंदू नहीं लिखा बल्कि उन्हें हमेशा विश्व हिंदू परिषद से जुड़े कारसेवक बताया। वहीं दूसरी ओर बाद में हुए दंगों में जो लोग मारे गए, उन्हें केवल मुसलमान के रूप में प्रस्तुत किया गया, जबकि हिंदू भी बड़ी संख्या में मरे थे।
अब एक दूसरा मामला देखें। 1993 के मुंबई बम धमाके के दोषी याकूब मेनन को 2015 में जब फांसी दी गई तो इसी सेकुलर मीडिया ने उसे आतंकवादी से 'शहीद' बना दिया और भारतीय न्यायपालिका और संविधान को उसका हत्यारा घोषित कर दिया! कश्मीर में सैनिकों के हाथों मारे गए बुरहान वानी को इसी मीडिया ने आतंकवादी की जगह कश्मीर की लड़ाई लड़ने वाले योद्धा के रूप में प्रस्तुत किया।
9 फरवरी, 2016 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संसद हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु की बरसी मनाई गई। वहां 'भारत तेरे टुकड़े होंगे', 'अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं' जैसे आपत्तिजनक नारे लगाए गए। इसके बावजूद मीडिया के कुछ मठाधीशों ने 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के नाम पर नारे लगाने वालों का पक्ष लिया। यूपीए सरकार के समय 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ घोटाले में फंसे मीडिया घरानों ने देशद्रोही नारा लगाने वालों को 'नायक' बनाने का लंबा कार्यक्रम चलाया! जब अदालत ने देशद्रोह के आरोपियों को जमानत दी तो यह खबर बनी, लेकिन जब उसी अदालत ने अपने फैसले में ऐसे राष्ट्रविरोधी तत्वों को समाज के लिए नासूर बताया तो न्यायाधीश को ही अभिव्यक्ति की आजादी का पाठ पढ़ाने का खेल टीवी स्टूडियो और अखबार के कार्यालयों से शुरू हो गया। अभी हाल में ही जेएनयू की घटना को दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में दोहराया गया। देशद्रोह के आरोपी जेएनयू के छात्र उमर खालिद को रामजस कॉलेज में 'वॉर ऑन बस्तर' विषय पर बोलने के लिए बुलाया गया। अभाविप ने इसका विरोध किया तो मीडिया के इसी तबके ने उसे गुंडों का सरगना बताया। रामजस कॉलेज में भी कश्मीर और बस्तर की आजादी के नारे लगे, लेकिन सेकुलर मीडिया ने इसे पूरी तरह से छुपाने का खेल रचा और छात्रों के बीच हुई भिड़ंत को मुख्य मुद्दा बनाकर प्रस्तुत कर दिया। सवाल उठता है कि आखिर सेकुलर मीडिया का ऐसा पाखंडी चेहरा क्यों है? इसका जवाब हमें रूसी गुप्तचर एजेंसी केजीबी द्वारा 2005 में जारी 'मित्रोखिन आर्काइव', 2011 में अमेरिका द्वारा पकड़े गए आईएसआई एजेंट गुलाम नबी फई की स्वीकारोक्ति, 2016 में अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए द्वारा जारी दस्तावेज, कॉमनवेल्थ घोटाले में आई सीएजी की रपट, 2जी स्पेक्ट्रम, कोयला खदान आवंटन भ्रष्टाचार और आयकर विभाग व ईडी की रपटों को बारीकी से खंगालने पर मिलता है। ये सारी रपटें चीख-चीख कर कहती हैं कि भारत का सेकुलर मीडिया अपने स्वार्थ के लिए हमेशा से पत्रकारिता और देश के हितों से समझौता करता रहा है।
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' की आड़ में सेकुलर मीडिया अवैध और आपराधिक धंधे में शामिल है। सेकुलर मीडिया की असलियत बताने के लिए पहले उनके भ्रष्टाचार की चर्चा करते हैं। एक राष्ट्रीय चैनल है, जिसका स्पष्ट झुकाव वामपंथ की ओर रहता है। इस चैनल ने जेएनयू की घटना के समय स्क्रीन को काला कर यह दर्शाने की कोशिश की कि देश में अपातकाल आ गया है! यह चैनल अपनी साख का दावा करता है और अपने को भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाला कहता है। लेकिन खुद इस पर भ्रष्टाचार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाल बिछाकर धन शोधन के गंभीर आरोप लगे हैं। इन दिनों इसकी जांच चल रही है।
अब जासूसी पर आते हैं। वर्ष 2011 में अमेरिका ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के एजेंट गुलाम नबी फई को गिरफ्तार किया था। फई कश्मीर अमेरिकन काउंसिल के जरिए आईएसआई के पैसे पर पूरी दुनिया में कश्मीर के लिए दुष्प्रचार करता था और उसे पाकिस्तान का हिस्सा बताने और साबित करने के लिए बैठकों का आयोजन करता था। उन वैश्विक बैठकों में भाग लेने वालों के विमान से आने-जाने, पांच सितारा होटल में रहने-ठहरने, खाने-पीने और खरीदारी तक का खर्च आईएसआई उठाती थी।
आरोप है कि कश्मीर पर तत्कालीन वार्ताकार व टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक दिलीप पडगांवकर आईएसआई के पैसे पर कश्मीर को पाकिस्तान के पक्ष में बताने वाली गोष्ठियों में भाग लेते थे और उनमें भाषण देते थे! भारत सरकार द्वारा कश्मीर पर वार्ताकार नियुक्त होने के बावजूद दिलीप पडगांवकर के पेपर एवं भाषणों का झुकाव कश्मीरी अलगाववादियों के पक्ष में होता था और यही आईएसआई की असली जीत थी। फई ने उन भारतीय बुद्धिजीवियों, समाजसेवकों और पत्रकारों का नाम लिया था, जिन्हें वह कश्मीर पर पाकिस्तानी दुष्प्रचार के लिए इस्तेमाल करता था! अमेरिका ने ऐसे लगभग डेढ़ दर्जन भारतीयों के नाम तत्कालीन मनमोहन सरकार को दिए थे, लेकिन उनसे पूछताछ नहीं हुई। भारतीय नामों को गुलाम नबी फई कश्मीर में अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल करता था।
आप जेएनयू से लेकर रामजस कॉलेज तक कश्मीर के पक्ष में जो नारे देख रहे हैं, वे केवल 'अभिव्यक्ति के नारे' नहीं हैं। तय मानिए, गुलाम बनी फई की तरह आईएसआई का कोई और मोहरा इनके पीछे काम कर रहा होगा, जो भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अशांति पैदा कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर के मुद्दे को जिंदा रखना चाहता है। आखिर क्या वजह है कि जो बच्चे कभी कश्मीर नहीं गए, वे कश्मीर की आजादी के नारे लगाएं? आखिर क्या वजह है कि आतंकी बुरहान वानी या अफजल गुरु के लिए सेकुलर मीडिया का प्रेम इस कदर उमड़ पड़ता है?
अब सेकुलर पत्रकारिता के चरित्र को देखें। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने 17 जनवरी, 2017 को 12 मिलियन यानी करीब एक करोड़ 20 लाख गोपनीय पन्ने अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक किए हैं, जो करीब 9,30,000 दस्तावेजों से जुड़े हैं। सीआईए ने खुलासा किया है कि भारतीय मीडिया में पैसे के जरिए झूठी खबरें छपवाई जाती रही हैं। सीआईए के दस्तावेज 'द सोवियत इन इंडिया: मास्को मेजर पिनिट्रेशन प्रोग्राम' में कहा गया है कि दिल्ली स्थित सोवियत दूतावास प्रमुख न्यूज एजेंसी और कुछ मुख्य अंग्रेजी अखबारों में झूठी खबरें प्रकाशित कराया करता था। मास्को ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 1,60,000 खबरों और लेखों को छपवाया। 32 पृष्ठ के इस दस्तावेज में 80 के दशक के मीडिया का उल्लेख किया गया है। इस रपट में कहा गया है कि सोवियत दूतावास अमेरिका के खिलाफ सबसे अधिक झूठी खबरें हिंदुस्तान टाइम्स में छपवाता था। इस दस्तावेज में टाइम्स ऑफ इंडिया और द हिंदू में छपी झूठी खबरों की कतरनें भी लगाई गई हैं। इसी तरह केजीबी के द्वारा 70 के दशक के मीडिया में पैसे के जोर पर खबरें प्रकाशित कराने की जानकारी 2005 में 'मित्रोखिन आर्काइव' के जरिए सामने आई थी। यानी 1970 और 80 के दशक का मीडिया किस तरह अपने देशहित की जगह विदेशी जासूसी एजेंसी के हित में काम कर रहा था, इन दोनों रपटों से यह सबूत अब सामने आ चुका है।
यहां केवल कुछ उदाहरणों से यह समझाने की कोशिश की गई है कि गोधरा कांड को दबाने, बुरहान वानी, अफजल गुरु और याकूब मेनन जैसे आतंकवादियों को शहीद साबित करने, जेएनयू, रामजस कॉलेज आदि में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अलगाववादियों को प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने, किसी फौजी की बेटी को आगे करने आदि में सच वह नहीं है जो आपको दिखाया या पढ़ाया जा रहा है, बल्कि इन सबके पीछे पर्दे में कहीं गहरा छिपा एजेंडा है, जिसे आम पाठक कभी नहीं जान पाते! इसलिए अब जब कोई खबर पढि़ए या देखिए तो हमेशा सोचिए कि क्या यह वस्तुपरक खबर है या फिर कोई व्यक्तिपरक हित इसके पीछे काम कर रहा है?
(लेखक पूर्व पत्रकार हैं और गोधरा कांड पर इनकी पुस्तक 'निशाने पर नरेंद्र मोदी : साजिश की कहानी, तथ्यों की जुबानी' चर्चित रही है)
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