|
बालासाहब देवरस को पूज्य गुरुजी का सान्निध्य मिला जिनसे उन्होंने चीजों को बारीकी से परखकर अपना मंतव्य बनाने का गुण पाया था। पूर्वोत्तर में संघ कार्य के विस्तार और समाज में समरसता का भाव गहरा करने में बालासाहब ने अथक परिश्रम किया था
टी. सतीशन
मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बालासाहब देवरस की प्रतिष्ठा समाज में आमतौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक के नाते है। हालांकि, प्रचलित धारणा के विपरीत वे अभिजात्य श्रेणी से संबद्ध न होकर उच्च कोटि के सामाजिक कार्यकर्ता थे। 5 जून, 1973 को पूजनीय श्री गुरुजी गोलवलकर के देहावसान के बाद श्री देवरस ने सरसंघचालक का कार्यभार संभाला था। इन पंक्तियों के लेखक को आज भी याद है कि मीडिया ने कैसे उस समय देवरस जी की तुलना गुरुजी के साथ की थी। मीडिया के अनुसार गोलवलकर जी आध्यात्मिक विभूति थे परंतु उनके उत्तराधिकारी की न तो अध्यात्म में कोई रुचि थी और न ही उस ओर आंशिक रुझान ही था। अत: मीडिया के अनुसार ‘संघ के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा था।’
परंतु स्वयंसेवकों या संघ के निकटवर्तियों का भिन्न मत था। यह संकेत उन लोगों की ओर है जिन्हें कभी संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को देखने या उनसे मिलने का अवसर नहीं मिला था। फिर भी उन्होंने सरसंघचालक के तौर पर अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी श्री गुरुजी को देखा था जो असाधारण आध्यात्मिक विभूति थे। अत: उनका कौतूहल स्वाभाविक था। मार्च 1994 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के दौरान अस्वस्थता के कारण अपने पद का त्याग करने वाले श्री देवरस ने जुलाई 1973 में पूजनीय गुरुजी के मासिक श्राद्ध के अवसर पर संघ की कमान संभाली थी। उस समय उन्होंने अपने भाषण में संघ की कार्यनीति के बारे में स्पष्ट संकेत दिया था। उन्होंने साफ किया था कि उनका जोर सामाजिक सेवा से जुड़ी गतिविधियों और सुधारों पर रहेगा।
बाद में सांगठनिक गतिविधियों और नेतृत्व के जरिये उनका कहा चरितार्थ भी हुआ था। उन्होंने सामाजिक सौहार्द और सुधारों को संघ का अभिन्न अंग बनाया। इस विषय पर विचार करते हुए सरसंघचालक के कार्यों का सिलसिलेवार अध्ययन करना समीचीन होगा। पूजनीय डॉ़ हेडगेवार अप्रतिम संयोजक थे। वे प्रत्येक स्वयंसेवक की क्षमता को उसकी समग्रता में आंकते थे। जाहिर है, उन्होंने पूजनीय गुरुजी की असाधारण बुद्धिमत्ता एवं वैचारिक प्रतिबद्धता को पहचान लिया था। इसी तरह गुरुजी ने देवरस जी की सांगठनिक क्षमता और किसी भी आपात परिस्थिति में संगठन का कुशलता से नेतृत्व करने की दृढ़ता को परखा था। देवरस जी के नेतृत्व ने गुरुजी के आकलन को सच साबित किया।
देवरस जी ने अपनी गतिविधियों में सामाजिक सौहार्द एवं सुधार को स्थान दिया और उस वजह से, स्वयं गुरुजी के शब्दों में, संगठन से ‘देवता भी ईर्ष्या’ करने लगे थे। दूसरे शब्दों में देवरस जी द्वारा सामाजिक सौहार्द एवं सुधार पर दिए गए बल के कारण सांगठनिक विस्तार को व्यावहारिक दिशा मिली थी। पुणे में वसंत व्याख्यानमाला के दौरान उनका ऐतिहासिक वक्तव्य-‘यदि अस्पृश्यता गलत नहीं, तो दुनिया में कुछ गलत नहीं है’-संघ के स्वयंसेवकों को उस समय दी जाने वाली व्यावहारिक शिक्षा का अंग ही तो था।
सामुदायिक ‘आरक्षण’ के कारण उठने वाले विवादों के मामले में भी देवरस जी के विचार कठोर थे। मार्च 1981 में नागपुर में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा आयोजित हुई थी। उस दौरान कुछ प्रतिनिधियों ने आरक्षण की अनियत प्रकृति के विरुद्ध अपनी मजबूत दलीलें रखी थीं। संघ द्वारा अखिल भारतीय बैठकें करने की परंपरा रही है। इनका संचालन हमेशा सरकार्यवाह करते हैं। पूजनीय गुरुजी द्वारा शुरू की गई इस प्रथा का देवरस जी ने भी पालन किया था। स्व. पी़ माधवन (वरिष्ठ प्रचारक, केरल) ने एक बार कहा था कि इन बैठकों में सरसंघचालक के तौर पर श्री गुरुजी एवं देवरस जी चुपचाप बैठे रहते थे। पूर्व अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख रंगाहरि जी के अनुसार, ‘‘बहुत आवश्यक’ होने पर ही देवरस जी बहस में अपनी बात रखा करते थे, वह भी कुछ ही शब्दों में। ‘‘उपरोक्त चर्चा ऐसा ही एक दुर्लभ अवसर थी। उसमें उन्होंने कहा था, ‘यदि आप इन आरक्षण प्राप्त समुदायों में से किसी का हिस्सा होते, तो आप ऐसा कभी न कहते।’’ प्रतिनिधियों को उनके विचारों की झलक मिल गई थी और अध्याय वहीं समाप्त हो गया था।
उनमें सामुदायिक आरक्षण को बनाए रखने की जरूरत के बारे में कोई संदेह नहीं था, क्योंकि वे जानते थे कि देश में दलित वर्ग के बीच आंशिक सुधार के बावजूद अनेक स्थानों पर अस्पृश्यता की समस्या बेहद विकट है। यह एक उदाहरण सरसंघचालक के नाते उनकी क्षमता को दर्शाता है। एक बार श्री देवरस केरल के प्रवास पर थे। वहां भाजपा के एक बड़े नेता अपने नवविवाहित पुत्र एवं पुत्रवधु को उनसे मिलाने ले गए। वे चाहते थे कि नव दंपती देवरस जी का आशीर्वाद ग्रहण करें। उनकी पुत्रवधू पिछड़े वर्ग से थी। भाजपा नेता ने गर्व से यह बात देवरस जी को बताई। देवरसजी ने इस पर बेहद खुशी जाहिर की थी।
देवरस जी का मानना था कि अंतर्जातीय विवाह जाति प्रथा को समाप्त करने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। केरल के एक वरिष्ठ स्वयंसेवक ने अपनी बेटी के लिए उपयुक्त वर की तलाश की थी। उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि वर की जाति क्या है। इस विषय में उन्होंने केवल गुण परखे। वह विवाह पूरी तरह ‘अरेंज्ड’ था ; वर एवं वधू के बीच विवाह पूर्व कोई संपर्क नहीं था। ढाई दशक पहले इस तरह की पहल अपने आपमें अनोखी थी! आज केरल में स्वयंसेवक परिवारों में इस तरह के अनेक विवाह संपन्न होते हैं। हाल में केरल में ऐसी ही मिलती-जुलती घटना हुई थी। इसमें वर एक वरिष्ठ संघ कार्यकर्ता का सुपुत्र था। उसने एक कथित पिछड़ी जाति की कन्या को विवाह हेतु पसंद किया। संघ कार्यकर्ता एवं उनके परिवारजन एवं रिश्तेदारों की ओर से इस विषय में विरोध का एक भी स्वर नहीं उठा। वधू की जाति कोई मुद्दा नहीं थी। इस अवसर पर संघ के अनेक वरिष्ठ अधिकारी एवं संघ से संबंधित सैकड़ों कार्यकर्ता तथा गणमान्य लोगों ने नव दंपती को आशीर्वाद दिया था। वर-वधू के अभिभावकों ने साबित किया कि वे देवरस जी के सच्चे अनुयायी हैं।
1973 में जब बालासाहब ने सरसंघचालक का कार्यभार संभाला था, उस समय वनवासी कल्याण आश्रम आज की तरह बड़ी संस्था नहीं थी। उनके कार्यकाल में इस संस्था ने प्रगति की। जब आश्रम की गतिविधियां संतोषप्रद हालत तक पहुंचीं तो उन्हें महसूस हुआ कि उसका नेतृत्व प्रभावशाली होना चाहिए। उन्होंने इसके लिए केरल के पूर्व प्रांत प्रचारक (स्वर्गीय) भास्कर राव कलंबी उपाख्य के़ भास्करराव का चुनाव किया जिन्होंने केरल में डॉक्टर जी के अनुयायी के तौर पर सराहनीय कार्य किया था। भास्करराव जी जैसे वरिष्ठ कार्यकर्ता को चुनने से ही देवरस जी में वनवासियों के कल्याण और उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रति गहरी रुचि झलकती थी। केरल के मत्स्य प्रावर्तक संगम के झंडे तले मछुआरा समुदाय की गतिविधियों पर बल देना भी इसी प्रतिबद्धता का हिस्सा था। (आज मत्स्य प्रावर्तक संगम अखिल भारतीय संस्था है)। समाज के कमजोर वर्गों के लिए कार्य करने के पीछे उनके दो प्रमुख लक्ष्य थे। पहला, उनके उद्योग एवं संस्कृति की सुरक्षा। दूसरा, वे राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ सकें। दरअसल, वोट बैंक राजनीति के चलन से कमजोर वर्ग और अधिक कमजोर होता जा रहा था; उन्हें हमेशा किसी न किसी के आदेश को मानना पड़ता था। परंतु देवरस जी ने अपने नवीन विचारों को व्यावहारिक जामा पहनाया था!
देवरस जी ने पूर्वोत्तर राज्यों में संघ की पहुंच बढ़ाने की जरूरत को समझा। पूर्वोत्तर यानी वह स्थान जहां अलगाववादी गतिविधियों के चलते रोज गोलीबारी की घटनाएं आम थीं। अनेक प्रचारक नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, असम और मेघालय पहुंचे। विपरीत जलवायु एवं सशस्त्र विद्रोहियों से लोहा लेते हुए उन्होंने पर्वतीय एवं जनजातीय क्षेत्रों में काम किया। उनमें से कई वीरगति को भी प्राप्त हुए। कुछ अन्य कई दशक बीत जाने पर भी लापता हैं। परंतु, संघ की गतिविधियां आगे बढ़ती रहीं। वहां के लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए संघ ने संतोषप्रद सफलता हासिल की। आज वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एवं भाजपा की गतिविधियों और उपलब्धियों की सूची लंबी है। असम में मिली राजनीतिक सफलता इसका एक उदाहरण है। वहां केरल के प्रचारक बड़ी संख्या में मौजूद हैं ; केरल के संघ कार्यकर्ताओं को इस पर बहुत गर्व है। केरल के श्री अशोकन मणिपुर के प्रांत प्रचारक हैं; पूर्वोत्तर में उन्हें तीस वर्ष से ज्यादा हो गए।
हिंदू समाज को संगठित करने के कठिन कार्य के दौरान ही देवरस जी ने सामाजिक सद्भाव की नींव रखी थी। उनका सपना था कि समाज के सभी वर्ग सद्भावना पूर्ण जीवन जिएं। उन्होंने राजनीतिक क्षेत्रों में भी बंधुता का मंत्र अपनाया था; उनका अंतिम लक्ष्य अपनी मातृभूमि के लिए परम वैभव प्राप्त करना था। उन्होंने भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी एवं भारतीय जनता पार्टी की स्थापना, विस्तार एवं उपलब्धियों में बड़ी भूमिका निभाई थी। जरूरत के अनुसार देवरस जी इन दलों को सलाह देने से भी पीछे नहीं रहे। इन दलों को संघ के अधीन रखने की मंशा उनकी कभी नहीं रही थी और ना ही कभी उन्होंने इन दलों का अघोषित प्रवक्ता बनने का प्रयास किया। संघ के स्वयंसेवकों द्वारा चलने वाले राजनीतिक दल की नीतियों से इतर राष्ट्रीय या सामाजिक महत्व के मुद्दों पर उन्होंने अपने विचार स्पष्टता से सबके सामने रखे थे। आपातकाल के काले अध्याय के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, उस समय एक अल्पसंख्यक आयोग के गठन का प्रस्ताव रखा गया था। देवरसजी ने इस बारे में बेहद सावधानी और दूरदर्शिता बरतने की सलाह दी थी। उनका कहना था, ‘भारत को मानवाधिकार आयोग की जरूरत है।’ यह सामाजिक सद्भाव एवं बंधुत्व के पक्ष में खड़े एक राष्ट्र-भक्त के शब्द थे। इसके दो आयाम थे: पहला यह कि जब किसी समुदाय या कुछेक समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित किया जाता है, वह मनोवैज्ञानिक तौर पर मुख्यधारा से दूर हो जाता है। दूसरा, 1977 के दौरान जब देश में फासीवादी अतिवाद, क्रूरता, दमन, भाई-भतीजावाद, अमानवीय पुलिस बर्बरता, मानवाधिकार उल्लंघन, मौलिक अधिकारों का हनन, असभ्य प्रेस सेंसरशिप आदि का माहौल था; आपातकाल उठने में अभी भी कुछ महीनों का समय था; स्वाभाविक था कि उस समय किसी भी संवेदनशील नेता के लिए मानवाधिकार सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए था। और जाहिर है कि ऐसे में सामाजिक सौहार्द के जरिए ही समग्र समाज की समस्याओं का साझा हल निकल सकता था। वहीं, भारत के अल्पसंख्यकों को संविधान या वैधानिक संस्थान नहीं बल्कि हिंदू समाज का ‘सर्वधर्म समभाव’ सुरक्षित रखता है।
देवरस जी की चिंता लोगों को गैर-राजनीतिक तौर पर जोड़ने की थी। परंतु इस नेक कार्य की राह तुष्टीकरण के रास्ते नहीं जाती थी। उन्होंने कभी गलत को सही नहीं कहा। वे उस संगठन के सर्वोच्च नेता थे जिसे आपातकाल के दौरान हर तरह के दमन और मानवाधिकार हनन को झेलना पड़ा था। 30 जून, 1975 से 22 मार्च, 1977 तक आपातकाल के इस पूरे कालखण्ड में वे उसके विरुद्ध प्रत्येक संघर्ष से जुड़े रहे थे। परंतु आपातकाल खत्म होने और संघ पर लगे अनुचित प्रतिबंध के हटने के बाद जब वे जेल से रिहा हुए तो हजारों लोगों की तादाद सहित उमड़ीं स्वागत रैलियों को देखकर उनका संतुलन डगमगाया नहीं । समग्र भारत के लोगों, विशेषकर संघ के कार्यकर्ताओं एवं संबंधित संगठनों को उन्होंने ‘भूलने और माफ करने’ का संदेश दिया। यह सुनकर कुछ लोगों को विश्वास नहीं हुआ था। उनके आह्वान से उन लोगों को निराशा हुई जो उनसे श्रीमती गांधी और संजय गांधी से प्रतिशोध लेने का नारा बुलंद करने की उम्मीद कर रहे थे। आपातकाल के दौरान चले दमनचक्र में संघ के अनेक कार्यकर्ता मारे गए थे और बहुत से जीवन भर के लिए अशक्त हो गए थे। परंतु जो स्वयंसेवक उन्हें जानते थे और संघ की विचारधारा से तन-मन से जुड़े थे, उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ था। उस समय के गृह मंत्री चरण सिंह ने देवरस जी से कहा था कि वे इंदिरा गांधी को कभी माफ नहीं करेंगे। परंतु देवरस जी ने बिना पलक झपकाए जो शब्द कहे, वे एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता को हमेशा याद रखने चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘देखिए, हम सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आप सत्तासीन मंत्री हैं। हम लोगों के मन-मस्तिष्क में धैर्य के गुण रोपने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’’ यह किसी संकोची व्यक्ति के उद्गार न होकर मानवाधिकारों के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ विजेता का कथन है।
‘सही सोच के लोगों’ ने इन शब्दों की सही आत्मा को आत्मसात किया, परंतु कुछ अन्य ऐसा न कर पाए! नतीजा, बदले की भावना में डूबे हुए जनता पार्टी और उसकी सरकार के कुछ लोगों ने कानून की किताबों को दरकिनार किया और शाह कमीशन की रिपोर्ट को नजरअंदाज करके इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय को गिरफ्तार कर लिया। इंदिरा बेहद चतुर राजनीतिज्ञ थीं, उन्होंने बाद में उससे उपजी सांत्वना लहर का पूरा लाभ उठाया। उससे वे मजबूत हुर्इं और सत्तासीन जनता पार्टी को तोड़ दिया जिस कारण वह सरकार गिर गई। जनवरी 1980 में इंदिरा पुन: मजबूती से सत्ता में लौटीं। बेशक देवरस जी जनता पार्टी की मजबूती और कमजोरियों को अच्छी तरह जानते थे, इसलिए उन्होंने पहले ही इसकी चेतावनी दी थी।
बालासाहब का मार्ग बिना टकराव के बंधुता और आम राय कायम करने का था। वे चाहते थे कि हिन्दुत्व की विचारधारा से जुड़ा राजनीतिक दल भी इसी दिशा में चले। 1980 के दशक में खालिस्तान या ‘आजाद पंजाब’ मुहिम और उससे जुड़ी आतंकी घटनाएं आज भी हमारे दिमाग में ताजा हैं। उसे पाकिस्तान का समर्थन हासिल था। इसके पीछे का विचार था पंजाब में हिंदू-सिख सौहार्द तोड़कर, फूट डालकर उसे भारत से अलग करने का। पाकिस्तान एवं खालिस्तानी आतंकी जानते थे कि वे अपने लक्ष्य में तभी सफल होंगे जब वे संघ को हिंसा और टकराव के रास्ते पर लाएंगे। देवरस जी इस तरह के जटिल और उलझन भरे मामलों का आकलन जल्दी करते थे अत: वे इस साजिश को समझ गए। आतंकियों ने पंजाब में 25 जून 1989 को मोगा में संघ की एक शाखा पर हमला किया जिसमें 27 स्वयंसेवक मारे गए थे, जिनमें छोटी उम्र के स्वयंसेवक भी थे। इस घटना ने दुनिया भर में स्वयंसेवकों की भावनाओं को गहरे तक आहत किया था। इस दौरान तत्कालीन पंजाब प्रांत प्रचारक के पिता एवं पूर्व प्रचारक भी आतंकियों की गोलियों का निशाना बने थे।
परंतु देश भर में संघ के स्वयंसेवकों ने आत्मसंयम बनाए रखा। भारत को खंडित करने का सपना देखने वाले पाकिस्तान, खालिस्तानी आतंकी एवं वैश्विक ताकतें चाहती थीं कि हिंदू हिंसा के मार्ग पर उतर आएं; उनके शैतानी कृत्यों की सफलता के लिए ऐसा होना उनकी पहली जरूरत थी। परंतु बालासाहब का स्वयंसेवकों को सख्त आदेश था कि हिंसा के जवाब में हिंसा न करें। पंजाब में कई स्वयंसेवकों ने कुर्बानियां दीं। परंतु देश विरोधी ताकतों के मंसूबे कामयाब नहीं हुए। हिंदू-सिख दंगों की कोई वारदात नहीं हुई। षड्यंत्रकारी बुरी तरह असफल रहे। पंजाब आज भी भारत का अभिन्न अंग है। परंतु संघ के बिना ऐसा संभव नहीं होता। ‘हर कीमत पर सामाजिक सद्भाव बने एवं उसका इस्तेमाल देश को सशक्त बनाने के लिए किया जाए’, यही बालासाहब की कार्यशैली थी।
अपनी इसी असाधारण कार्यशैली के कारण उन्होंने देश भर से संघ प्रचारकों को पंजाब भेजा। उन्होंने आतंकी हमलों और मौत के सायें के बीच संघ की गतिविधियां बनाए रखीं। 1986 में राष्ट्रीय सिख संगत की नींव रखी गई। इसका लक्ष्य हिंदुओं और सिखों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देना था। संगठन की प्रेरणा से बाद में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की नींव रखी गई थी। इस अभियान का लक्ष्य मुस्लिम भाइयों और बहनों को देश की मुख्यधारा से जोड़ना था, जबकि कुछ स्वार्थी तत्व उन्हें राष्ट्र-धारा से दूर करना चाहते थे। ऐसे तत्व अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए जब-तब अयोध्या, इस्लामिक स्टेट, समान नागरिक संहिता आदि के मुद्दे उठाते रहते हैं। इससे साफ जाहिर है कि देवरसजी के निधन के दो दशक के बाद भी संघ के कार्यकर्ता उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं। केवल इसी तथ्य से स्वयंसेवकों के दिलों में उनकी जगह का अंदाजा मिलता है।
देवरस जी के संदर्भ में आपातकाल के दौरान किए गए संघर्ष का जिक्र न करना अनुचित होगा। 25 जून, 1975 की मध्यरात्रि को लगे आपातकाल के बाद 30 जून को नागपुर रेलवे स्टेशन पर देवरस जी को गिरफ्तार कर लिया गया। संघ पर 4 जुलाई को प्रतिबंध लगा दिया गया। बालासाहब को पुणे, महाराष्ट्र के यरवदा केंद्रीय कारागार में भेज दिया गया। उन्हें पता था कि आपातकाल के दौरान संगठन पर क्या समस्याएं आ सकती हैं। इसलिए उन्होंने गिरफ्तारी से पहले ही कार्यकर्ताओं के नाम तीन पत्र लिखे थे। उनमें उन्होंने बताया था कि यदि इंदिरा गांधी तानाशाही का रुख अपनाती हैं तो उन्हें क्या करना होगा।
हालांकि तानाशाही हुक्मरान के सामने शांतिपूर्ण व्यवहार की प्रासंगिकता को लेकर कुछ वरिष्ठ स्वयंसेवक व कार्यकर्ता पसोपेश में थे। जुलाई के अंत तक संघ कार्यकर्ताओं ने जेल में बंद स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्ताओं से संपर्क साधने के मार्ग खोज निकाले थे। ऐसा उन कुछ स्वयंसेवकों के कारण संभव हो पाया था जो सक्रिय तौर पर काम नहीं कर रहे थे और ऐसे जेलकर्मियों के कारण भी जो प्रशासन के फासीवादी रवैये से नाखुश थे। संघर्ष के लिए कौन-सा मार्ग चुना जाए, कार्यकर्ताओं को इस संबंध में देवरस जी से स्पष्ट निर्देश प्राप्त हुए थे।
उन्होंने बताया था कि भारत के लोगों को केवल अहिंसा का मार्ग ही चुनना चाहिए। संघ ने देश भर में अहिंसात्मक सत्याग्रह आयोजित किए; लाखों कार्यकर्ताओं ने बिना किसी हिंसक विरोध के पुलिस की बर्बरता को सहा, जो नाजी शासन की याद दिलाती थी। इससे अनेक कार्यकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा। देवरस जी की दूरदर्शिता से देश और संघ व्यापक विध्वंस से बचा। यह प्रसंग इतिहास के छात्रों के लिए अध्ययन का रोचक विषय है।
इसमें शक नहीं कि अगर पाकिस्तान जैसे देशों की सी राजनीतिक अस्थिरता और अफरातफरी हमारे देश में नहीं है, तो इसका श्रेय बालासाहब देवरस जैसे नेताओं के नेतृत्व और दूरदर्शिता को ही जाता है।
अत: कहना न होगा कि वे डॉ़ हेडगेवार और श्री गुरुजी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। बालासाहब का लक्ष्य डॉक्टर जी एवं गुरुजी के वैचारिक अधिष्ठान को मूर्तरूप में बदलना था, दूसरे शब्दों में कहें तो एक ‘व्यावहारिक संघ’ बनाना था। ल्ल
टिप्पणियाँ