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निवर्तमान शंकराचार्य और भारत माता मंदिर, हरिद्वार के संस्थापक स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी सामाजिक समरसता के अनेक कार्य करते रहे हैं। उन्होंने बालासाहब के मार्गदर्शन में भी समरसता के लिए काम किया है। समरसता के प्रति बालासाहब की क्या दृष्टि थी, वे किस तरह कार्य करते थे, इन प्रश्नों को लेकर अरुण कुमार सिंह ने उनसे बातचीत की, प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश-
बालासाहब सामाजिक समरसता के प्रति समर्पित थे। उनके इस काम में आपका भी बड़ा योगदान रहा है। उस काम के परिणाम को आप किस रूप में देखते हैं?
मुझे ऐसा लगता है कि संघ की सामाजिक समरसता के कारण ही वंचित वर्ग और शेष वर्ग के बीच दूरियां कम हुई हैं। उन लोगों ने निरंतर देखा कि संघ में किसी की जाति नहीं पूछी जाती है, पर दूसरे लोग जातिवाद को ही उभार रहे हैं। बालासाहब ने सारे स्वयंसेवकों के बीच समरसता का ऐसा प्रचार किया जिससे समाज में यह भाव पैदा हुआ कि हम सभी भारतीय हैं, हम भारत माता की संतान हैं और भारत माता हमारे लिए पूजनीय हैं। आज यह भाव निरंतर मजबूत होता जा रहा है।
सामाजिक समरसता के लिए आप अनेक स्थानों पर गए। अपने कुछ अनुभव बताएं।
ऐसे अनेक अनुभव हैं। जब मैं प्रवास पर जाता था तो प्रयत्न करता था कि किसी वंचित बंधु के घर रहा जाए। लगभग 40 वर्ष पुरानी बात है। भीलवाड़ा में एक कार्यक्रम था। वहां गया तो मैंने कहा कि मैं किसी सफाई कर्मचारी के घर ही ठहरूंगा। लेकिन वहां ऐसे किसी व्यक्ति के घर इतने कमरे नहीं थे। इसलिए उन्होंने एक मैदान को साफ करके टेंट लगवाया और मेरे रहने की व्यवस्था की। मैं रात को वहीं ठहरा। सुबह वहीं कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम संपन्न होते-होते 11 बज गए। मैंने कहा कि अब मैं भोजन भी आप लोगों में से ही किसी के घर करूंगा। आप में से जिसने भी मांस और मदिरा का परित्याग कर दिया है, मैं उसके घर जाकर भोजन करना चाहता हूं। मेरे इतना कहते ही एक लड़की खड़ी हो गई। उसने कहा कि मैं यहां बहू बन कर आई हूं और सफाई कर्मचारी हूं। उसने यह भी कहा कि सफाई करने के बाद मैं नित्य स्नान करती हूं, तुलसी पर जल चढ़ाती हूं, सुबह-शाम दीप जलाती हूं। आप मेरे यहां चलिए। मैं वहां गया। उस बहन ने मुझे गर्मागर्म पूरी-सब्जी खिलाई। मेरे पीछे-पीछे वहां और लोग आ गए थे। मैंने पूरी का बर्तन हाथ में उठाया और सबको परोसने लगा। वह लड़की पूरियां तलती रही और मैं परोसता रहा। जो लोग वंचित समाज की बस्ती की ओर जाना भी नहीं चाहते थे, वे लोग एक वंचित के यहां भोजन कर रहे थे। इससे बड़ी सामाजिक समरसता और क्या हो सकती है? जब सब लोगों ने भोजन कर लिया तब मैंने सबको एक साथ बैठाया और पूछा कि आज से कौन-कौन मदिरा और मांस छोड़ेगा? तत्काल 300 लोगों ने मांस और मदिरा छोड़ने की घोषणा कर दी।
एक और घटना बड़ी प्रेरक है। श्रीगुरुजी का बेलगाम में एक कार्यक्रम था। उन्होंने उसके लिए मुझे भी बुलाया था। उसमें वंचित समाज के एक सज्जन आए थे। उन्होंने मुझसे अपने घर चलने का आग्रह किया। मैं कहां पीछे रहने वाला था। उनके साथ चल दिया। जैसे ही मैं उनके घर के बाहर पहुंचा, महिलाओं ने मेरे ऊपर जल डालना शुरू कर दिया। वहां उपस्थित समाज के कई लोगों ने उन महिलाओं को मना भी किया, लेकिन वे नहीं मानीं। मैंने भी उन लोगों को मना करने से रोका। देखते-देखते 100 महिलाओं ने मेरा जलाभिषेक किया। इसके बाद बहुत ही आत्मीयता के साथ खाना खिलाया। अंत में उन सज्जन ने कहा कि महाराज जी भगवान राम शबरी के यहां गए होंगे, अब विश्वास होने लगा। उनकी आत्मीयता को देखकर मैं दंग रह गया।
लोग वंचित समाज के बीच जाएं, इसके लिए क्या करना चाहिए?
मुझे लगता है कि सवर्ण समाज के लोगों को कुछ दिन में वंचित समाज के लोगों के बीच जाना चाहिए। समरसता के लिए भाषण से अधिक आवश्यकता है रचनात्मक काम करने की। जैसे हनुमान जी को लड्डू चढ़ाने के लिए हम मंदिर जाते हैं, वैसे ही हमें वंचित समाज के लोगों की बस्तियों में जाना चाहिए। वहां सबके साथ हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए और उन्हें हनुमान जी मानकर लड्डू खिलाने चाहिए। पूरा समाज भ्रातृभाव से जुड़ा हुआ है। किसी के साथ हम भेदभाव करेंगे तो उसे दु:ख होगा ही। मान लीजिए, किसी पिता के चार पुत्र हैं। जब पिता किसी एक बेटे की उपेक्षा करता है तो उसे बहुत दु:ख होता है। उसी तरह वंचित समाज को दु:ख होता है। हमें उनके बीच निरंतर जाना चाहिए। इस भाव के निर्माण में बालासाहब की बड़ी भूमिका रही है। भ्रातृभाव का जो विस्तार बालासाहब के समय हुआ वह निरंत बढ़ता चला गया। आज इस भ्रातृभाव को और बढ़ाने की आवश्यकता है।
आपने वनवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए प्रयास किए। उनके बारे में बताएं?
कुछ समय पहले ही उज्जैन में कुंभ लगा था। वहां की एक बात कभी विस्मृत नहीं होने वाली है। मेरे पास लगभग 400 वनवासी बहनें आईं। उन लोगों को मैंने सोने के लॉकेट दिए। भोजन कराना ध्यान में नहीं रहा। उन लोगों ने स्वयं कहा कि बाप जी, भोजन कौन कराएगा? वहां भंडारा तो चल ही रहा था। सबको बैठाकर भोजन परोसा जाने लगा। तभी दो-तीन बहनों ने कहा कि क्या आप हम लोगों के साथ भोजन नहीं करेंगे? उनकी आत्मीयता ऐसी थी कि हम भी भोजन करने के लिए उनके साथ बैठ गए। मैं मानता हूं कि हमारे देश में समरसता के केंद्र के साथ-साथ श्रद्धा के केंद्र भी स्थापित हों। कानून द्वारा समरसता नहीं लाई जा सकती। प्रेम और व्यवहार से समरसता का भाव फैलाया जा सकता है। इसलिए श्रद्धा के केंद्र स्थापित हों। श्रद्धा के नए केंद्र कई बार दुखद होते हैं, उनका आचरण कभी ठीक नहीं निकलता है। इसलिए श्रद्धा का केंद्र केवल भारत माता हो। भारत माता रहेंगी तो हर किसी को लगेगा कि वह भारत माता की संतान है, भारत का नागरिक है। मेरा आचरण औरों से अच्छा रहे। इस भावना के बढ़ने से लोग भारत माता की जय बोलंेगे। भारत माता की जय प्रकारांतर से लोगों के जीवन में दुर्गुर्णों के परित्याग और सद्गुणों के ग्रहण का मार्ग प्रशस्त करेगी।
आप बालासाहब से कैसे और कब जुड़े?
उस समय मेरी आयु केवल 35 वर्ष थी। मैं विजयादशमी उत्सव के लिए नागपुर गया था। वहां तीन दिन रहा। उन्हीं दिनों बालासाहब से पहली बार भेंट हुई। पहली ही भेंट में उन्होंने मुझसे जो बात कही थी उसका पालन मैं अब तक करता हूं। उन्होंने कहा था कि आपको अकेले कहीं नहीं जाना चाहिए, क्योंकि इस देश में दक्षिणपंथी प्रतिभाओं के विरुद्ध कुछ लोग सक्रिय हैं, जो ऐसी प्रतिभाओं को सशरीर नष्ट कर सकते हैं। आपको अपनी योग्यता, प्रतिभा और यश का ज्ञान नहीं है। ऐसा ज्ञान व्यक्ति को होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इससे व्यक्ति में अहंकार उत्पन्न होता है। मैंने कहा कि मैं आपकी बात को मानने का प्रयत्न करूंगा। इसके बाद मैंने कहीं अकेला जाना छोड़ दिया। हां, जब विदेश गया तो शंकराचार्य पद पर रहते हुए भी अकेला ही गया। इसका करपात्री जी जैसे अनेक संतों ने विरोध किया। उनका कहना था कि मैंने समुद्र की यात्रा की है। इसलिए 'मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया' है। मैं शंकराचार्य पद पर रहने योग्य नहीं रहा। विरोध को देखते हुए मैं करपात्री जी से मिला। मैंने उनसे कहा कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गणवेशधारी स्वयंसेवक नहीं हूं, पर आंतरिक रूप से स्वयंसेवक हूं। संघ की शाखाएं सारे संसार में हैं। अगर कोई शंकराचार्य उन देशों में नहीं जाएगा और जो हिंदू ईसाई बनेंगे, उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? इस पर उन्होंने कहा कि आज के बाद तुम्हारा न तो समर्थन करेंगे और न ही विरोध। इसके बाद मैंने अनेक देशों की यात्राएं कीं और हिंदू स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में गया। एक बार ब्रिटेन में हिंदू स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाना हुआ। उस समय ब्रिटेन के तत्कालीन गृह मंत्री भी मेरे साथ मंच पर बैठे थे। जब उन्होंने शारीरिक कार्यक्रम देखा तो कहा कि मैं भी अपने बेटे को शाखा आने के लिए कहूंगा। ऐसे अनेक सुखद संस्मरण हैं। देश-विदेश में मेरे जितने भी अच्छे बड़े कार्यक्रम हुए उनमें बालासाहब का बड़ा योगदान रहा। मैं तो यह भी कहना चाहूंगा कि मेरे सामाजिक उत्थान में प्रच्छन्न रूप से बालासाहब जी की भूमिका रही।
नागपुर जाने के पीछे की एक बड़ी दिलचस्प बात है। उस बात से श्रीगुरुजी के व्यक्तित्व का पता चलता है। पूजनीय गुरुजी ने विजयादशमी उत्सव की अध्यक्षता के लिए मुझे पत्र लिखा। पत्र में यह भी लिखा कि आप किस गाड़ी से नागपुर आ रहे हैं, यह पत्र द्वारा बताएं। मैं आपके स्वागतार्थ रेलवे स्टेशन पर आऊंगा। उनका पत्र मेरे लिए आज्ञा के बराबर था। जब उनकी आज्ञा हुई थी तो जाना ही था। फिर भी मैंने उनको पत्रोत्तर लिखा और कहा कि यदि आप मेरे स्वागतार्थ स्टेशन पर आएंगे तो मैं नहीं आऊंगा। फिर आप उस व्यक्ति को बुला लें, जो आपसे स्वागत कराने योग्य हो। आप मेरा स्वागत करें, इस योग्य मैं नहीं हूं। कुछ दिन बाद उनका पत्र आया। उसमें उन्होंने लिखा, आपकी शर्त मुझे मंजूर है, आप आएं, मैं आपके स्वागत के लिए नहीं आऊंगा। मैं तय तिथि को नागपुर पहुंचा। घटाटे जी, गदरे जी जैसे दो-तीन लोग रेलवे स्टेशन पर आए थे। थोड़ी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद हम लोग कुछ कदम आगे बढ़े ही थे कि सामने से गुरुजी आते हुए दिखे। जब वे समीप आए तो मैंने कहा कि आपने मेरी शर्त नहीं मानी। इस पर उन्होंने कहा कि पत्र लिखते समय व्यक्ति को सावधान रहना चाहिए। आपने लिखा था स्वागतार्थ नहीं आना है। मैं आपके स्वागतार्थ नहीं, दर्शनार्थ आया हूं। दर्शन के लिए तो आपने मना नहीं किया था। गुरुजी की इस बात से मैं निरुत्तर हो गया।
बालासाहब जी आत्मविलोपी स्वभाव के थे। उनके इस स्वभाव के बारे में कुछ बताएं।
संघ के जितने भी आनुषंगिक संगठन बने, उनके पीछे प्राय: बालासाहब जी ही थे। उनका मौन चिंतन बहुत मुखरित और गंभीर था। विद्यार्थियों को कैसे जोड़ेंगे, इतिहासकारों को कैसे जोड़ेंगे, मजदूरों को कैसे जोड़ेंगे, पुरातत्वविदों को कैसे जोडें़गे, इन सबका चिंतन उन्होंने किया। इसके बाद ही अनेक संस्थाएं बनीं। मुझे ऐसा लगता है कि बाला साहब जी ने ही ठेंगड़ी जी से मजदूर संघ बनाने का आग्रह किया होगा। प्रत्येक संस्था के मूल में होते हुए भी उन्होंने कभी यह नहीं बताया कि उन्होंने इतने संगठन बनाए। जबकि आज सारा संसार छोटी-सी घटना को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। ऐसा आत्मगोपन (आत्मविलोपी स्वभाव) मैंने किसी भी व्यक्ति में नहीं देखा है। आत्मगोपन का छोटा-सा सद्गुण अगर मेरे जीवन में आया है तो बालासाहब जी के कारण ही आया है। वे कहते थे कि कर्म करो और भगवान को अर्पित करो। भगवान प्रसन्न होगा तो विश्व अपने आप प्रसन्न होगा। विश्व को प्रसन्न करने से शायद परमात्मा प्रसन्न न भी हो। लेकिन विश्व को ही परमात्मा मान लेने से विश्व अपने आप प्रसन्न होगा।
संघ ने एक पानी, एक कुआं, एक श्मशान का अभियान चलाया है। इसे आप किस रूप में देखते हैं?
अब तो कुएं रह नहीं गए हैं। जाति आधारित श्मशान भी समाप्त हो रहे हैं। फिर भी कहीं होंगे तो उनको समाप्त करने के लिए सामाजिक प्रयास के साथ-साथ राजकीय स्तर पर काम करना चाहिए। अब तो केंद्र और अनेक राज्यों में हिन्दुत्वनिष्ठ विचारधारा की सरकारें आ गई हैं। उन पर दबाव डाल कर जाति आधारित श्मशानों की समाप्ति के लिए कानून बनवाना चाहिए।
जब आपने भारत माता मंदिर बनवाया, उस समय बालासाहब सरसंघचालक थे। मंदिर से जुड़ा उनका कोई प्रसंग बताएं।
1983 में मंदिर बनकर तैयार हो गया तो मैं तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के पास गया और उनसे मंदिर का उद्घाटन करने का निवेदन किया। उन्होंने कहा कि आप संघ के स्वयंसेवक और विश्व हिंदू परिषद् के ट्रस्टी हैं इसलिए मैं आपके द्वारा बनाए गए मंदिर का उद्घाटन नहीं कर सकती। बहुत निवेदन करने के बाद भी वे नहीं मानीं। इसके बाद मैंने कहा कि आप नारी हैं और मैं संत। नारी और संत दोनों हठ के लिए जाने जाते हैं। अब देखना है कि किसका हठ जीतता है। इसके बाद मैंने मंत्र शक्ति का उपयोग करने का निर्णय लिया।
हरिद्वार वापस आया और एक अनुष्ठान शुरू किया। अभी अनुष्ठान के दो ही दिन हुए थे कि एक पुलिस अधिकारी का फोन आया। उन्होंने कहा कि महाराज जी प्रधानमंत्री ने आने की स्वीकृति दे दी है। उसी दिन मैंने बालासाहब को भी आमंत्रित किया था। लेकिन वे प्रधानमंत्री के जाने के बाद कार्यक्रम में शामिल हुए थे। उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री और उनका एक मंच पर रहना ठीक नहीं होगा। यदि दुर्भाग्य से कोई घटना हो गई तो भारत माता मंदिर बनवाने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।
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