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मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ क्षेत्र में रहने वाले भील वनवासियों का सबसे बड़ा मेला 'भगोरिया' धूमधाम से मनाया गया। प्रदेश के झाबुआ, बड़वानी, अलीराजपुर, धार और खरगोन जिलों में भगोरिया हाट लगाए जाने की परंपरा है। इन स्थानों पर अलग-अलग दिन साप्ताहिक हाट-बाजार लगता है और होली के ठीक पहले आने वाले हाट ही 'भगोरिया' के रूप में मनाए जाते हैं। एक मान्यता के अनुसार सर्वप्रथम भील प्रदेश की राजधानी 'भगोर' में आयोजित किए जाने के कारण ही इसे 'भगोरिया' कहते हैं। इस वर्ष 6 से 12 मार्च तक 100 से अधिक जगह 'भगोरिया' मनाया गया। अलीराजपुर जिले के जोबट, झाबुआ जिले के थांदला, सारंगी, रायपुरिया तथा जिला मुख्यालय पर, धार जिले के कुक्षी और जिला मुख्यालय सहित अनेक स्थानों पर सेवा भारती ने भी धूमधाम से 'भगोरिया' में अपनी सहभागिता की। सेवा भारती कार्यकर्ताओं ने अनेक स्थानों पर पेयजल की व्यवस्था की और संगठन से जुड़े वनवासियों ने ढोल-मांदल की थाप पर थिरकते हुए जगह-जगह गेर निकाली। सेवा भारती के कार्यकर्ता अमृत भाबर कहते हैं, ''भगोरिया वनवासी समाज का आपस में मिलने का अवसर है, साथ ही साथ खरीदारी का मौका भी उन्हें मिलता है। वैसे इसे सही तरीके से 'भगोर्या' ही कहा जाना चाहिए। यह फसल आने की खुशी मनाए जाने का अवसर भी है क्योंकि यह रबी की फसल आने के बाद होता है।''
इस समय मजदूरी के लिए अपने गांव के बाहर गए वनवासी भी लौटकर आते हैं। इसलिए दूर-दूर से व्यापारी अपना माल लेकर इन हाट-बाजारों में पहुंचते हैं जहां आसपास के गांवों से वनवासी आते हैं। उल्लास के इस मौके पर झूले लगने से यह हाट मेले-सा स्वरूप ले लेता है। रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधानों में चांदी के गहनों से सजीं वनवासी महिलाएं भगोरिया हाट में सबके आकर्षण का केन्द्र होती हैं। वैसे यह परस्पर मेल-मिलाप का अवसर होता है इसलिए परंपरा से विवाह की बात भी 'भगोरिया' में ही की जाती थी और युवक-युवतियों को अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता होने के कारण वे 'भगोरिया' में ही एक-दूसरे को पसंद करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि वनवासी युवक अपनी जीवनसंगिनी की तलाश में 'भगोरिया' में घूमते हैं और कोई वनवासी बाला पसंद आने पर उसे पान का बीड़ा प्रस्तुत करते हैं। यदि युवती इस संबंध के लिए सहमत होती है तो बीड़ा स्वीकार कर लेती है अन्यथा आगे बढ़ जाती है। ऐसा भी मत है कि कई स्थानों पर युवक अपना प्रणय प्रस्ताव युवती के गाल पर गुलाल लगाकर करते हैं। यदि युवती गुलाल साफ कर दे तो युवक अन्य युवती की तलाश में आगे बढ़ जाते हैं। हालांकि वनवासी समाज का एक बड़ा तबका इस बात का पुरजोर खंडन करता है। लंबे समय तक सेवा भारती के माध्यम से झाबुआ में सामाजिक कार्य से जुड़े रूपसिंह नागर कहते हैं, ''वनवासी समाज में शादी तय करने के पहले गौत्र पता किया जाता है, क्योंकि माता का गौत्र अथवा पिता की माता का गौत्र या समान गौत्र होने से लड़का-लड़की का विवाह वर्जित है।'' 'भोगर्या' को प्रणव पर्व के रूप में प्रचारित किए जाने की घोर निंदा करने वाले और इसे सिर्फ एक हाट मानने वाले वनवासियों का यह भी कहना है कि पान खिलाना सिर्फ मान-सम्मान का एक तरीका है, इसका विवाह के लिए रजामंदी से कोई संबंध नहीं है। वैसे 'भगोरिया' के समापन की भी एक परंपरा है जो होली के दिन निभाई जाती है। मन्नत मांगने वाले लोग इस दिन कई फुट ऊंचे ऊर्ध्वाधर लकड़ी के खंभे जिसे गल कहा जाता है, पर चढ़कर पंखे की पंखुड़ी की तरह धरती के समानान्तर लटककर घूमते हैं जिससे ज्ञात होता है कि उनकी मन्नत पूरी हुई। -महेश शर्मा
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