सेहत सही रखता है रंगों का संतुलन
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सेहत सही रखता है रंगों का संतुलन

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Mar 14, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Mar 2017 12:41:02

 खानपान विशेषज्ञों के मतानुसार आपकी थाली में जितने रंग होंगे, मानिए आप उतना ही पौष्टिक आहार ले रहे हैं। यानी रंगों का संतुलन बिगड़ेगा तो आपकी सेहत अच्छी नहीं रहेगी। जानें रंग हमारे स्वास्थ्य के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं, इन्हें  कैसे संतुुलित रखा जा सकता है, और कौन रंग किस रोग के निदान में सहायक है
  डॉ. योगेश कुमार पाण्डेय
मनुष्य के जन्म एवं विकासक्रम में रंगों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। रंग सदैव से ही मनुष्य की सृजनात्मक शक्ति का पर्याय रहे हैं। रंगों द्वारा मनुष्य के भाव प्रभावित एवं प्रदर्शित होते हैं। वास्तव में मनुष्य की जैव-शारीरिक क्रियाओं को भी रंग उतना ही प्रभावित करते हैं जितना कि मनोभावों को। आदिकाल से आयुर्वेद विशेषज्ञों, योगाचार्यों एवं ज्योतिषियों द्वारा     समस्त जीवों विशेषत: मनुष्यों के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दु:खों के निदान एवं निराकरण के लिए रंगों की इस अन्तनिर्हित शक्ति का प्रत्यक्ष क्रियात्मक प्रयोग  किया जाता रहा है। आज यह चिकित्सा विधि ‘क्रोमोथेरैपी’ के नाम से प्रचलित है। यह पद्धति पाश्चात्य जगत में भी अनेक चिकित्सा वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों के लिए कौतूहल एवं शोध का विषय है। इसलिए इस पर अनेकानेक शोध कार्य अनवरत चलते रहते हैं। अनेक शोधों ने इसकी उपयोगिता को सिद्ध भी     किया है।  
हम सभी जानते और मानते हैं कि ब्रह्माण्ड की समस्त ऊर्जाओं का एकमात्र स्रोत हैं। संसार के समस्त क्रिया-कलाप इसी ऊर्जा पर निर्भर हैं। पेड़-पौधे इसी ऊर्जा का उपयोग करके हमारे लिए विभिन्न प्रकार के अन्न-फल-सब्जी एवं औषध प्रदान करते हैं। आयुर्वेद में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। यदि अन्न प्राणियों का प्राण है तो सूर्य की रश्मियों को इस अन्न की प्राणशक्ति कहा जा सकता है। व्याधियों की उत्पत्ति में अपथ्य एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति में पथ्य की भूमिका से तो हम सभी परिचित हैं। अपने अन्तर्मन में झांककर देखिए, हम अन्न-फल-सब्जी-औषध के चयन में उनके रूप, रंग से प्रभावित नहीं होते क्या? विचार कीजिए, सदैव सूर्य के प्रकाश से विमुख होकर छाया में ही अधिकाधिक समय व्यतीत करने वाले, सदैव एक जैसा तथाकथित पौष्टिक भोजन करने वाले लोगों की तुलना में प्रत्यक्ष रूप से सूर्य की रोशनी में ही रहकर उसका ताप झेलते हुए तथा जो कुछ प्राकृतिक रूप से प्राप्त हो जाए उसी पर निर्भर रहने वाले लोग अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं प्रसन्न क्यों    रहते हैं?
आयुर्वेद में त्रिविध शारीरिक दोषों (वात-पित्त-कफ), द्विविध मानसिक दोषों (रज-तम), त्रिविध अग्नियों ( जठराग्नि-भूताग्नि-धात्वाग्नि) एवं मलों की साम्यता के साथ इन्द्रिय-आत्मा एवं मन की प्रसन्नता (सत्वोत्कर्ष) से युक्त व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। इन सभी का मूल कारण शरीर के अंदर चल रहा अग्नि व्यापार है जो कि स्वत: मनुष्य के शरीर में आदिदेव सूर्य का प्रतिनिधि है।
 ऊर्जा का दृश्य भाग ही तो रंग कहलाता हैं। सूर्य की किरणों के सात दृश्य रंग क्रमश: लाल, पीला, नीला, बैंगनी, आसमानी, नारंगी एवं हरा हैं। मुख्य रंग तो तीन ही हैं- लाल, हरा एवं नीला। अन्य रंग तो इनके सम्मिश्रण से ही बनते हैं। अदृश्य भाग दो अल्ट्रावेव तथा इंफ्रारेड नाम से जाना जाता है। अल्ट्रा वेव एवं इंफ्रारेड किरणों का चिकित्सकीय उपयोग तो आधुनिक चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा भी बहुलता से किया जाता है। तनिक ध्यान दें, आपके अलग-अलग शारीरिक अवयवों के रंग भी तो अलग-अलग हैं। जैसे कि त्वचा का रंग गौर अथवा श्याम है तो केशों का काला,  आंखों की पुतलियां काली हैं, तो जिह्वा रक्त वर्ण; अस्थियां श्वेत हैं तो शिराएं नीली। क्रोमोथेरैपी के विशेषज्ञों की मान्यता है कि शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंग की क्रियात्मक निरन्तरता एवं अक्षुण्णता विभिन्न रंगों की साम्यता पर निर्भर करती है। अंग विशेष को प्रभावित करने वाले रंग का वैषम्य ही रोगों का कारण बनता है। अत: रोग विशेष की चिकित्सा हेतु इसी साम्यता की स्थापना को लक्ष्य करके विभिन्न प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रंगों का उपयोग करना चाहिए।
योगशास्त्र के अनुसार शरीर का संपूर्ण क्रियात्मक नियंत्रण शरीर में स्थित सात चक्रोें द्वारा होता है।
गुह्यमूल (जननांग की जड़) पर स्थित प्रथम चक्र को मूलाधार चक्र के नाम से जाना जाता है। इस चक्र को मानसिक एवं शारीरिक स्थिरता का आधार माना जाता है। इस चक्र के बिगड़ने से चिन्ता, भय, दु:स्वप्न, आदि मानसिक रोग एवं अनेक शारीरिक रोग होते हैं। इस चक्र का वर्ण रक्त (लाल) होता है। अत: योगसाधना में इस चक्र को साधने एवं इससे संबंधित रोगों को दूर करने के लिए घर को लाल रंग से सजाएं तथा लाल रंग के वस्त्र, आभूषण का प्रयोग करें। भोजन में भी रक्त वर्ण के फल सब्जियां जैसे टमाटर, चुकंदर, सेब तथा अनार का प्रयोग करें।
नाभि से नीचे तथा गुह्यांग (जननांग) से थोड़ा ऊपर स्थित द्वितीय चक्र को स्वाधिष्ठान चक्र कहा जाता है। मनुष्य की सृजन-शक्ति इस पर ही निर्भर है। इसके बिगड़ने से अवसाद, नपुंसकता आदि रोग होते हैं। इस चक्र का वर्ण नारंगी है। इस चक्र को शक्तिशाली बनाने के लिए घर एवं कार्यालय की दीवारों को नारंगी रंग से सजाएं। नारंगी रंग के ही वस्त्र एवं आभूषण धारण करें। खानपान में नारंगी रंग के फल तथा सब्जियों यथा संतरा, गाजर, आम, पपीता आदि का अधिकाधिक प्रयोग करें।
नाभि पर स्थित तृतीय चक्र को मणिपुर चक्र के नाम से जाना जाता है। व्यक्ति की आत्मशक्ति, परावर्तन की शक्ति, शौर्य एवं पाचनशक्ति इस चक्र में ही समाहित है। इस चक्र के बिगड़ने से आत्मविश्वास का अभाव होता है और पाचनशक्ति कम होती है। इस चक्र का वर्ण पीत होता है। अत: इसको शक्ति संपन्न बनाने के लिए घर, कार्यालय की दीवारों को पीले रंग से सजाएं। पीले रंग के कपड़े और गहने पहनें और खाने-पीने में भी पीले रंग की चीजें केले, अदरक, हल्दी आदि का अधिक से अधिक प्रयोग करें।
ह्दय में स्थित चतुर्थ चक्र को अनाहत चक्र कहा जाता है। हृदय एवं फेफड़ों के स्वास्थ्य और मजबूत प्रतिरक्षा तंत्र के लिए इसका स्वस्थ रहना अति आवश्यक है। इसकी कमजोरी से अनावश्यक भय, ईर्ष्या, घृणा आदि मानसिक विकार तथा हृदय एवं फेफड़ों के रोग उत्पन्न होते हैं। हरे रंग का प्रयोग इस चक्र को शक्ति प्रदान करता है। अत: इस चक्र को शक्ति संपन्न बनाने के लिए हरे रंग के वस्त्र एवं आभूषण धारण करने चाहिए। घर को हरे रंग के परदों से सजाएं एवं हरे रंग से ही दीवारों को    पेंट कराएं। खाने में हरी पत्तेदार सब्जियों का    प्रयोग करें।
पंचम चक्र विशुद्ध चक्र कहा जाता है। वाक् शक्ति, श्रवण शक्ति एवं विचार संप्रेषण की क्षमता इस चक्र के अधीन है। साथ ही मुंह, कान, नाक एवं गले का स्वास्थ्य इस पर निर्भर  है। इसकी कमजोरी से वाक् शक्ति, श्रवण शक्ति एवं विचार संप्रेषण शक्ति नष्ट हो जाती है। इसको स्वस्थ रखने के लिए हल्के नीले रंग के आहार-विहार-वस्त्र एवं आभूषण का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए।
आज्ञा चक्र भ्रूमध्य पर स्थित है। यह छठा चक्र कल्पनाशीलता, पूर्वानुमान की शक्ति एवं सहज निर्णय शक्ति के लिए उत्तरदायी हैै। इसके असंतुलन से नींद नहीं आती और व्यक्ति अपराध की ओर प्रवृत्त होता है। इस चक्र को गहरे नीले रंग के प्रयोग से सुदृढ़ किया जा सकता है। अत: इसको शक्ति संपन्न करने के लिए इसी रंग के वस्त्र, आभूषण प्रयोग में लाएं।
मूर्धा स्थित सप्तम सहस्नार चक्र समस्त आध्यात्मिक ऊर्जाओं एवं अनुभवों का केन्द्र माना जाता है। इसके बिगड़ने से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और सिर दर्द आदि रोग हो जाते हैं। इस चक्र का प्रतिनिधि वर्ण बैंगनी है। इस वर्ण के प्रयोग से इसे शक्तिसंपन्न किया जा सकता है, परंतु नियमपूर्वक स्वाध्याय, योगाभ्यास, प्रार्थना के बिना ऐसा कर पाना असंभव है।
आयुर्वेद के अनुसार रोग दो प्रकार के होते हैं-सौम्य एवं आग्नेय। सौम्य रोग कफ एवं वात की बहुलता से तथा आग्नेय रोग पित्त एवं वात की बहुलता से होते हैं। सौम्य रोगों का लक्षण है पाचनशक्ति का कम होना। साथ ही मल साम हो जाता है, मुंह-नाक-छाती में कफ इकट्ठा हो जाता है, मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है, नसें संकुचित हो जाती हैं। कफ की उत्पत्ति जल एवं पृथ्वी तत्वों से होती है तथा वात की वायु एवं आकाश तत्व से। इसलिए ऐसे रोगों को नीले रंग से उत्पन्न माना जाता है। सामान्यत: कफ की अधिकता का मुख्य कारण पाचनशक्ति में कमी है जो कि पीले रंग के अभाव से पैदा होता है।
आग्नेय रोग पित्त अथवा वात-पित्त की अधिकता से उत्पन्न होते हैं। पित्त का संबंध लाल-गुलाबी-नारंगी तथा पीले रंगों से माना जाता है।
नीला रंग
नीला रंग स्वभावत: सौम्य अर्थात् ठंडा, शांतिप्रद, आकर्षक और चुंबकीय शक्ति लिए हुए है। नीले रंग की अधिकता से कफ का प्रकोप बढ़ता है और पाचनशक्ति कम होती है। नीले रंग की कमी से आंखों में जलन, शरीर पर चकत्ते, मल-मूत्र में पीलापन, क्रोध की अधिकता; अतिसार एवं पाण्डु रोग होते हैं।     ये सभी रोग कफ की कमी अथवा पित्त की अधिकता से होते हैं।
यदि संपूर्ण शरीर अथवा उसके किसी एक भाग में गर्मी बढ़ गई हो, चक्कर आते हों, प्यास अधिक लगती हो तो नीले रंग के वस्त्र अथवा आवास का प्रयोग करना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में गर्मी के प्रकोप से बचने के लिए भी नीला रंग अत्यधिक उपयोगी है। पित्त प्रकृति के व्यक्तियों के लिए नीला रंग विशेष रूप से सुखदायी है। यकृत-प्लीहा के रोगों, पीलिया, मोतीझरा (टायफाइड), चेचक, खालित्य-पालित्य (बालों का असमय गिरना और पकना) आदि की चिकित्सा तथा आंख-कान-गले के रोगों में भी नीला रंग अत्यधिक उपयोगी है। माइग्रेन के रोगियों में भी यह रंग आशातीत रूप से लाभकारी है।
लाल रंग
लाल रंग स्वभावत: ऊष्ण एवं उत्तेजक होता है। अत: इसका प्रयोग शरीर के सुस्त पड़े अवयवों को उत्तेजित करने एवं सौम्य व्याधियों के प्रतिकार के लिए किया जाता है। वात व्याधियों यथा लकवा, गठिया, मासिक धर्म की अनियमितता, नपुंसकता आदि की चिकित्सा के लिए यह रंग अत्यधिक उपयोगी है। कफजनित व्याधियों यथा अधिक निद्रा, संग्रहणी (पेट से जुड़ा रोग) तथा मेदोरोग (केलेस्ट्राल बढ़ना) में भी इस रंग के अन्न-वस्त्र-औषधियां एवं वातावरण अत्यधिक लाभदायक हैं। इसके अत्यधिक प्रयोग से उच्च रक्तचाप होने की संभावना रहती है।
लाल रंग की कमी से नींद अधिक आती है, आलस्य रहता है, मल-मूत्र-जिह्वा-त्व्चा श्वेत हो जाती है। इन्हें कफ की अधिकता तथा पित्त की कमी से उत्पन्न माना जाता है।
पीला रंग
पीला रंग पाचन संस्थान के लिए अमृततुल्य है। इसके उपयोग से आमाशय तथा आंतों के रोग दूर होते हैं। यह रंग मेधा, धृति एवं स्मृतिवर्धक माना जाता है। अत: मानसिक रोगों से ग्रस्त रोगियों में भी इस रंग का उपयोग किया जाता है।
मन्दाग्नि, रुक्षता, अरुचि, कम नींद, दर्द आदि हो तो समझें कि पीले रंग की कमी है।
हरा रंग
हरा रंग प्रकृति में जीवंतता, संतुलन एवं सामंजस्य का प्रतीक माना जाता है। इसे हृदय एवं मांसपेशियों के स्वास्थ्य के लिए उत्तम माना जाता है।
नारंगी रंग
नारंगी रंग आंतों को बल देने वाला है। अत: यह कब्ज के रोगियों के लिए लाभदायक है। जिन रोगों की चिकित्सा के लिए लाल रंग उपयोगी है वही रोग अगर 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों में हो जाए तो नारंगी रंग का प्रयोग किया जाता है। वृक्क एवं फेफड़ों को इस रंग से ताकत मिलती है। थॉयरायड के रोगियों के लिए तथा मनो-अवसाद के रोगियोें में इस रंग के प्रयोग से लाभ होता है। इसके अधिक सेवन से अतिसार होने का भय रहता है।
बैंगनी रंग
बैंगनी रंग को शीतल तथा भेदक माना जाता है। अत: ऊष्णता तथा ज्ञान तंतुओं की उत्तेजना के अधिक बढ़ जाने की स्थिति में यह उपयोगी है। प्रलाप, मधुमेह, छर्दि तथा बहुमूत्रमा की चिकित्सा में इसका प्रयोग किया जाता है।
गुलाबी रंग
गुलाबी रंग अल्प मात्रा में उत्तेजक, पाचक तथा स्वभाव से थोड़ा शीत होता है। गर्भवती स्त्रियों में जहां लाल रंग द्वारा चिकित्सा इंगित हो, वहां गुलाबी रंग का प्रयोग किया जाता है। सफेद एवं काले रंग प्राय: चिकित्सा की दृष्टि से उपयोगी नहीं होते। चिकित्सार्थ रंगोें का प्रयोग करने के लिए उस रंग के औषध-आहार-वस्त्र-बिछौने-परदे-फल-फूल अथवा पारदर्शी जल पात्र उपयोग में लाए जा सकते हैं अथवा उस रंग की रोशनी से प्रभावित अंग पर सेक किया जा सकता है।
पीला एवं सुनहरा रंग
वात दोष की शांति के लिए पीला एवं सुनहरा रंग अच्छा माना जाता है। लाल रंग वात दोषों की प्रारंभिक चिकित्सा के लिए अच्छा है परन्तु इसका दीर्घकालिक एवं मात्रा से अधिक प्रयोग  पुन: वात प्रकोप को बढ़ा सकता है। पित्त दोष की शांति के लिए नीले, हरे एवं गुलाबी रंग उपयोग में लेने चाहिए तथा कफ प्रकोप से उत्पन्न होने वाले रोगों के लिए लाल एवं नारंगी रंग उत्तम है।
अत: इस होली में अपने अन्तर्मन एवं बाह्य जगत को प्राकृतिक रंगों से
रंजित कर संपूर्ण आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक उन्नति अर्जित करें।
(लेखक चौधरी बह्मप्रकाश चरक आयुर्वेद संस्थान, नई दिल्ली में काय चिकित्सा विभाग में सह आचार्य हैं)

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