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सुनीता शानू ऐसी व्यंग्यकार हैं जो पारिवारिक वातावरण में से
व्यंग्य ढूंढ लाती हैं और उन्हें सम-सामयिक संदर्भों से जोड़ देती हैं।
लट्ठमार होली के बहाने अपने वक्त की कुछ सचाइयों को
रेखांकित करती रचना।
होली की शुरुआत हो गई थी, रेडियो पर गाना चल रहा था -‘कान्हा बरसाने में आय जइयो बुलाय गई राधा प्यारी।’ शर्मा जी भी रेडियो के साथ-साथ गाने में तड़का लगा रहे थे। हमसे बोले, हम कल ही जाएंगे बरसाने, कब से सुन रहे हैं वहां की होली बड़ी जबरदस्त होती है। हमने कहा अरे रहने दीजिए, काहे बिन बात शहीद होने की सोच रहे हैं। बरसाने में लट्ठमार होली होती है। पिछली दफा जब आप हरियाणे से कोड़ामार होली खेल कर आए थे, हमारी भाभियों को हफ्ते भर कोसते रहे थे, और हमसे पूरा महीना कमर पर सेंक करवाते रहे। बरसाने में वो लाठियां पड़ेंगी कि महीने भर तक हल्दी वाला दूध पीना पड़ेगा और फिजियोथेरेपी करवानी पड़ेगी।
हमारी सारी बातें हवा होती रहीं और शर्मा जी, ‘अवध में होली खेले रघुबीरा’ की तर्ज पर अपना सामान पैक करते रहे।
-देखो मेरा मन है कि बस एक बार मैं भी कृष्ण बनूं और गोपियों संग होली खेलूं़.़
-हम क्या बताएं अब न तो कृष्ण हैं न गोपियां, आपकी उम्र भी चालीस पार कर गई, अब ये बाल-गोपाल की-सी नटखट नादानियां छोड़ दो। बाल काले करके जवान तो नहीं न हो जाओगे, देखना जीत नहीं पाओगे, फिर आपसे तो गांव की ग्वालिनें भी रंग नहीं लगवाएंगी। यह सुनकर तो उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। तुम्हें नहीं चलना तो मत चलो, हम जा रहे हैं। अब क्या करते, एक अकेला आदेश आ गया, नानुकुर की कोई गुंजाइश ही नहीं, सो हमें भी तैयार होना पड़ा, संग-संग जीने-मरने की कसम जो खाई थी़.़।
अब यह बात तो सब ही जानते हैं कि ब्रज की होली सबसे धांसू कही जाती है। रंगों का यह त्योहार राधा-कृष्ण के प्रेम का प्रतीक माना जाता है। और इसमें अधिकतर नंदगांव के पुरुष और बरसाना गांव की लड़कियां तथा महिलाएं हिस्सा लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगांव के थे और राधा जी बरसाने की थीं। बरसाने की महिलाएं नंदगांव के पुरुषों को ललकारती हैं तो वे कान्हा का वेश धर के टोलियों में रंग और पिचकारियां लेकर बरसाने पहुंच जाते हैं। जैसे ही उनकी पिचकारियों से गोपी बनी महिलाओं पर रंग बरसता है, गोपियां लाठियों की बरसात कर देती हैं। नंदगांव के पुरुष उनकी लाठियों से खुद को बचाते हैं और उन पर रंग डाल कर उन्हें भ्रमित करने की कोशिश करते हैं। जैसे ही महिलाएं रंगों में डूबने लगती हैं, वे झंडा लेकर राधाजी के मंदिर लाडली जी की ओर दौड़ते हैं। आगे-आगे पुरुष, पीछे-पीछे गोपियों के वेश में लड़कियां और महिलाएं , दोनों तरफ से बराबर खेल होता है। यदि पुरुष झंडा फहराने में सफल नहीं हो पाते और पकड़े जाते हैं तो उनकी जमकर पिटाई होती है, उन्हें महिलाओं के वस्त्र पहना दिए जाते हैं, महिलाओं की तरह शृंगार करके नचाया जाता है। होली का यह ठाट पूरे भारतवर्ष में कृष्ण की नगरी में ही देखने को मिलता है। यहां सात दिन तक होली खेली जाती है, भांग और ठंडाई का ऐसा इंतजाम होता है कि लाठियों की चोट का असर मालूम नहीं पड़ता।
पर, पर, पर, पर ये बातें तो उस दौर की हैं, जब चालीस के पार भी बंदा जवान रहता था। अब बंदा बीस से पहले ही बूढ़ा-सा दिखने लगता है। ये बातें उस वक्त की हैं, जब बंदा खुलकर हंसता था, अब हंसने से पहले बंदा इस तनाव में रहता है कि इस महीने घर, कार लोन की ईएमआई का इंतजाम हो गया है या नहीं। ये बातें उस दौर की हैं, जब वह खुलकर शुभकामनाएं देता था और लेता था। अब मोबाइल पर इतनी शुभकामनाएं आ जाती हैं कि उन्हें देखने की हिम्मत तक नहीं होती। ये बातें उस दौर की हैं, जब बंदे को सपने में मथुरा-बरसाना आते थे, अब बंदे के ख्वाब में अमेरिका आता है, जहां घुसने की मनाही ट्रंप बार-बार कर रहे हैं। बस चले शर्मा जी का तो बदन पर तेल की चिकनाई लगाकर ऐसे घुस जाएं अमेरिका में कि ट्रंप उन्हें पकड़ने की कोशिश करें तो पकड़ ही ना पाएं।
हम तो चलने को तैयार हो गए, पर जब चलने का नंबर आया, तो शर्मा जी बोले, छोड़ो मार्च का महीना है। इस महीने तो सैलरी भी टैक्स काट-पीट कर मिलती है, बहुत कम। चलो घर बैठें, काहे को कहीं जाकर खर्च करें। खूब रही फागुन पर कमबख्त अर्थशास्त्र यूं गिर पड़ा।
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