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हम किस तरह मुस्कुराते हैं? दो तरीके हैं। एक यह कि हम अकेले मुस्कुराएं, और दूसरों की हंसी उड़ाएं। दूसरा यह कि हम सबके साथ मुस्कुराएं।
बजट ने भारत के किसानों को-चाहे वे कोई भी फसल उगाते हों, उनकी समस्या किसी भी प्रकार की हो, चाहे वे किसी भी जाति के हों, कोई भी भाषा बोलते हों, कितनी भी जमीन के मालिक हों, या खेतिहर हों-किसी की हंसी उड़ाए बिना एक साथ मुस्कुराने का मौका दे दिया है।
कैसे? इस सवाल पर जाने के पहले एक बार देखिए कि अभी तक भारत में किसानों का और सरकार का संबंध क्या रहा है। शासक और शासित का, लगान और वसूली का, वोट और नेता का? सरकार का किसानों के साथ एक और संबंध रहा है, जैसे, सूखा पड़ जाए, तो किसान को राहत के नाम पर घपला कर लो, बाढ़ आ जाए, तो फिर किसान को राहत के नाम पर घपला कर लो। इस संबंध से परे किसान की एक और दुनिया है। उसकी जोत छोटी होती जा रही है, वह इस छोटी जोत में खेती नहीं कर सकता और अगर करेगा, तो उस खेती से गुजारा नहीं चला सकता है। लिहाजा वह शहरी मजदूर और प्रापर्टी डीलर बनता जा रहा है। किसान की दूसरी दिक्कत यह है कि किसी भी गांव में खेती को छोड़कर कोई रोजगार ही नहीं रह गया है। तीसरी बड़ी दिक्कत यह है कि जो खेती वह करता है, या कर सकता है, उसमें वृद्धि बहुत सुस्त है। इसके विपरीत अर्थव्यवस्था के या जनजीवन के दूसरे क्षेत्र तेजी से आगे बढ़ पा रहे हैं। कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर, अच्छे मानसून के बाद 4़1 रहने की प्रत्याशा है, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 7 प्रतिशत से अधिक रहने की आशा है। माने, खेती-किसानी की गाड़ी धीमी चल रही है। लेकिन किसान के पास न दूसरी ट्रेन में बैठने का मौका है, न अपनी छुक-छुक गाड़ी को छोड़ पाने का मौका है। वह कहां जाए?
इसी गाड़ी को तेज चलाने का, और मौका मिले तो आगे भी निकाल लेने का अवसर है, और वह अवसर केन्द्रीय बजट में लगातार तीसरी बार सामने आया है।
इसे ऐसे देखिए। देश में भारी संख्या में दुधारू पशु हैं। बड़ी संख्या में ऐसे किसान हैं, जो पशुपालन का, दूध उत्पादन का काम करते हैं। कुछ तो जातियां भी पशुपालन और दूध उत्पादन के साथ जोड़कर देखी जाती हैं। उनकी संख्या भी करोड़ों में है। यह भी सही है कि हम विश्व के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देश हैं। लेकिन दूसरी तरफ, महज 80 लाख की जनसंख्या वाला स्विट्जरलैंड दुनिया भर को दूध का निर्यात भी कर लेता है, दूध की चाकलेट से लेकर तमाम और उत्पाद बनाता है। वह विश्व में सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता वाले दूध का उत्पादक माना जाता है। इस पहलू को एक तरफ भी रख दें, तो 2015-16 में दुग्ध उत्पादन और दुग्ध खरीद में वृद्धि दर 9़ 6 और 11़ 5 प्रतिशत रही है। कृषि की प्रत्याशा से दुगुने से भी ऊपर। इसके अलावा दुग्ध उत्पादन फसल खराब होने के खतरे का जोखिम भी कम कर देता है। सिर्फ चारा उगाकर काम चलाया जा सकता है।
यह एक संकेतक है और किसानों के लिए बजट ऐसे ही संकेतकों से भरा पड़ा है। देखिए, इस बजट भाषण में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने क्या कहा है-
''डेयरी किसानों के लिए अतिरिक्त आमदनी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। दुग्ध प्रोसेसिंग सुविधाएं और अन्य अधोसंरचना किसानों को मूल्य संवर्धन के जरिए लाभ पहुंचाएगी। आपरेशन फ्लड कार्यक्रम के तहत स्थापित की गई दुग्ध प्रोसेसिंग इकाइयों की बड़ी संख्या तब से अब तक पुरानी और बेकार हो चुकी हैं। नाबार्ड में एक डेयरी प्रोसेसिंग और अधोसंरचना विकास फंड, तीन वषोंर् में 8000 करोड़ रुपए की राशि से स्थापित किया जाएगा, शुरुआत में यह कोष 2000 करोड़ रुपए की राशि से शुरु होगा।'' खेती-किसानी का कोई भी काम अपने आप में स्वतंत्र नहीं होता। दुग्ध उत्पादन के लिए भी पानी, सिंचाई, उर्वरक, बैंक से ऋण, बिजली, शिक्षा, समानांतर रोजगार, अधोसंरचना, दूध निकालने-परखने-ठंडा करने की मशीनें, प्रयोगशाला, सड़क, अस्पताल सब चाहिए। इनमें से उस प्रत्येक मद पर बजट में भारी जोर दिया गया है, जो ग्राम जीवन से संबंध रखती है। दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार ने खजाना खोल रखा है। यह किसान, व्यक्ति, स्वसहायता समूह से लेकर कंपनियों तक सबके लिए उपलब्ध है। किसान और व्यक्ति को तो दुग्ध उत्पादन के हरेक पहलू के लिए एक बार सरकारी मदद लेने का अधिकार है। मात्र दो मवेशियों से भी काम शुरु किया जा सकता है, जिसके लिए ऋण उपलब्ध है। उस ऋण में भी डेढ़ लाख रुपए से लेकर पौने सात लाख रुपए तक की सब्सिडी मिलती है। उसमें भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के किसानों को लगभग एक तिहाई अतिरिक्त सब्सिडी मिलती है। फिर बात क्या है?
बात सिर्फ हाथ बढ़ाने की है। निचले स्तरों पर, माने, छोटे स्तरों पर उत्पादन बढ़ाया जाए, तो बड़े स्तरों पर स्वीडन, जर्मनी और स्विट्जरलैंड जैसे उन देशों से दो-दो हाथ किए जा सकते हैं, जो गुणवत्ता वाले दूध के उत्पादक होने का दावा करते हैं। माने, गरीब किसान अपना और अपने परिवार का भला करने के साथ साथ देश का भी भला करने में सक्षम है।
कल्पना कीजिए, अगर आप दूध की जगह एक बार शहद, फूल, फल, कुक्कुट पालन, मत्स्य पालन सहित कम से कम 40-45 गतिविधियों को रख लें, छिटपुट उत्पादों और सेवाओं को रख लें, तो भी ग्रामीण जीवन को खुशहाल बनाने के लिए ऐसी ही तमाम योजनाओं को बजट में और प्रोत्साहन दिया गया है। इसका पूरा विवरण यहां देना संभव नहीं है। फिर एक बार यह बात दोहराने में कोई हर्ज नहीं है कि खेती-किसानी का कोई भी काम अपने आप में स्वतंत्र नहीं होता। उसकी सफलता के लिए बहुत कुछ या सब कुछ चाहिए।
यही कारण है कि बजट भाषण का काफी बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत पर केन्द्रित रहा है। पूरे 14 पैराग्राफ। अगर गरीबों और वंचित वगोंर् पर केन्द्रित योजनाओं (बजट भाषण में 11 पैराग्राफ) को भी इसके साथ जोड़ लिया जाए, तो लगभग आधा भाषण इन पर ही समर्पित रहा है। मनरेगा के लिए, जिसमें महिलाओं की भागीदारी 55 प्रतिशत है, आवंटन बढ़ाकर 48 हजार करोड़ रुपए किए जाने का चौगुना अर्थ है। एक यह कि किसान को, ग्रामीण मजदूर को अभावों की स्थिति का सामना करने से बचाया जा सकेगा, और दूसरे, उतने ही महत्वपूर्ण तौर पर, मनरेगा क्रियाकलापों को सीधे उत्पादक परिसंपदाओं के निर्माण से जोड़ दिया गया है। पांच लाख तालाबों का निर्माण पहले ही हो चुका है। 48 हजार करोड़ रुपयों की सिर्फ श्रम लागत से निर्मित होने वाली उत्पादक परिसंपदाएं ग्रामीण जीवन में कितना बड़ा अंतर पैदा कर सकती हैं, यह कल्पना ही की जा सकती है। यह तब है, जब किसानों की भलाई की कोई परियोजना मनरेगा की किसी योजना से तैयार होने वाली संपदा पर निर्भर नहीं है। यहां तक कि सूक्ष्म सिंचाई निधि के लिए भी 5000 करोड़ रुपए की शुरुआती राशि अलग से आबंटित की गई है।
तीसरे, इस योजना में 55 प्रतिशत भागीदारी महिलाओं की है। इसका आबंटन बढ़ा दिया गया है। महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ यह समाज के सबसे गरीब वगोंर् के लिए कुल व्यय योग्य पारिवारिक आमदनी में उल्लेखनीय योगदान देने वाली बात है।
चौथे, आप यह सोचें कि यह 48 हजार करोड़ रुपए जाएंगे कहां? जब ग्रामीण जनता के हाथ में यह रकम आएगी, तो उसका पहला खर्च भी जाहिर तौर पर गांव में ही होगा। इससे तमाम ग्रामीण व्यवसायों को, मांग को तुरंत और सीधा लाभ होगा। जो रोजगार मनरेगा देगा, उससे अलग, और लगभग उतना ही ग्रामीण रोजगार मनरेगा के लाभार्थी गांव में ही पैदा कर देंगे। वास्तव में गांव में कोई भी उत्पादन उस समय बहुत कठिन हो जाता है, जब उसके लिए जरूरी सामान न जुटाया जा सके और उसे गांव तक न लाया जा सके। इसी प्रकार गांव का उत्पाद उस समय बेमानी हो जाता है, जब गांव की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद उसे शहर में बेचने का मौका न मिल सके। इसके बीच की कड़ी की पूर्ति करती है प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना। यही हालत गांवों में बिजली की उपलब्धता की है। बिजली की उपलब्धता जीवन के हर पहलू में पूर्ण परिवर्तन ले आती है। गांवों में बिजली की उपलब्धता भी उस समय बेमानी हो जाती है, जब ग्रामीणों के पास रहने के लिए मकान न हो।
अब देखिए, अरुण जेटली के बजट में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवंटन 30 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ा दिया गया है। प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवंटन 15 हजार करोड़ रुपए से बढ़ाकर 23 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया है। बिजली का ही नहीं, स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनने वाले शौचालयों का, शिक्षा अभियान का, पेयजल मिशन का, और सतत बढ़ती ग्रामीण समृद्धि का स्वाभाविक पहला परिणाम प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनने वाले एक करोड़ मकानों के ईंट, गारा और चूना ही हैं। ग्रामीण आवासों को शहरी आवासों के कारोबार के दबाव से बचाने के लिए सरकार ने सस्ते आवास बनाने के उद्योग को अधोसंरचनागत उद्योग का दर्जा दे दिया है। इससे उन्हें भी थोड़ा सस्ता ऋण मिल सकेगा, और लोग सिर्फ मकान की खातिर गांव नहीं भागेंगे।
कई आलोचकों ने ठीक ही कहा है कि वास्तव में इस बजट की रूपरेखा तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 31 दिसम्बर 2016 को दिए अपने भाषण में ही रख दी थी। गरीबों के लिए बनने वाले मकानों की संख्या में 33 प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी, यह घोषणा प्रधानमंत्री ने 31 दिसम्बर 2016 को ही कर दी थी। नौ लाख रुपए तक के ऋणों पर ब्याज में 4 प्रतिशत की छूट, ग्रामीण क्षेत्रों में मकान बनाने, संवारने, बढ़ाने के लिए लिये गए 2 लाख रुपए तक के ऋणों पर ब्याज में 3 प्रतिशत की छूट, केन्द्रीय सहकारी बैंतों से लिए गए पूरे खेती क्षेत्र के ऋणों पर दो महीने के ब्याज की पूरी छूट, नाबार्ड को आबंटित 210 अरब रुपए की रकम में 200 अरब रुपए और बढ़ाने की घोषणा, सहकारी बैंकों को कम दरों पर ऋण देने से नाबार्ड को जो भी घाटा होगा, उसकी पूर्ति सरकार करेगी- यह घोषणा, तीन करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड धारकों को तीन महीने के अंदर रुपे डेबिट कार्ड सरकार जारी करेगी, छोटे व्यवसायों के लिए लोन गारंटी दुगुनी करके 2 करोड़ रुपए करने की घोषणा, सरकार से लाभ प्राप्त करने वाले वंचित-शोषित वर्ग के लोगों की संख्या दुगुनी करने की घोषणा सहित तमाम घोषणाएं, जो अब सरकार की नीति का ही नहीं, बजट का भी हिस्सा हैं, प्रधानमंत्री 31 दिसम्बर को ही कर चुके थे। विशेष तौर पर तीन करोड़ किसान क्रेडिट काडोंर् को रुपे डेबिट कार्ड में बदल देने की घोषणा के भारी भरकम मायने हैं। इस एक फैसले से किसान बाजार का दास नहीं, बाजार का मालिक बन जाता है। बजट पर प्रधानमंत्री की छाप उसके लगभग हर शब्द में नजर आती है। सबका साथ, सबका विकास प्रधानमंत्री का नारा है, और खास तौर पर अनुसूचित जातियों के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए आबंटन में बजट में एक तिहाई से भी ज्यादा, 35 प्रतिशत की वृद्धि करके उसे 52 हजार करोड़ रुपए कर दिया जाता है। यही स्थिति अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों की है। सारी योजनाओं की सफलता का विश्वास करने का एक ठोस कारण है। एक तो सरकार किसी तरह के हीले-हवाले में विश्वास नहीं करती है। दूसरे, प्रधानमंत्री ने किसानों के प्रति जो विश्वास दिखाया है, किसानों ने भी उसे पूरी तरह निभाया है। नोटबंदी से किसानों को परेशानी को लेकर मचाए गए तमाम शोर के बावजूद, जमीनी हकीकत यह है कि नोटबंदी के दौर में ही रबी की बुवाई में 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और उर्वरकों की खरीद में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। माने सरकारी की योजनाएं किसानों तक पहुंची भी हैं, और अब किसान उनका लाभ उठाना भी सीखता जा
रहा है। और अंत में, सबसे छोटी सी बात। बजट में किसानों को मिल सकने वाले ऋण के लिए 10 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है।
इसी तरह कृषि बीमा का दायरा भी बढ़ाया गया है। वास्तव में कृषि बीमा का लाभ उठाने का सीधा तरीका यह है कि कृषि के लिए ऋण लिया जाता है, जो अब पहले से भी दुगुना ऋण बांटने का लक्ष्य लेकर चल रही जन-धन योजना के साथ बहुत सहज और व्यावहारिक हो चुका है, और उसके बाद बैंक स्वयं ही बीमा भी कर देता है। माने अब खेती में ज्यादा निवेश, ज्यादा तकनीक का प्रयोग आसान हो जाएगा। माने छोटी से छोटी हो चुकी जोत भी गुजारे लायक आमदनी दे सकेगी, क्योंकि उस पर बड़ा निवेश किया जा सकेगा। अब लौटें उस बात पर, जहां से बात शुरू हुई थी। आप मुस्कुराते कैसे हैं? बजट ने किसानों को जो उपहार दिए हैं, वे किसी क्षेत्र विशेष के लिए, किसी फसल विशेष के लिए, किसी अवधि विशेष के लिए नहीं हैं। सारे किसानों के लिए हैं, देश भर के लिए हैं, और टिकाऊ ढंग से हैं। माने किसान को वैसे ही मुस्कुराने का मौका मिला है, जैसे उसकी फसल को वह मुस्कुराते हुए देखना चाहता है।
भा.वि.स.स.ने की बजट की सराहना
नई दिल्ली स्थित मालवीय भवन में 1 फरवरी को बजट पर चर्चा करने के लिए दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित सी.ए. और अन्य अर्थविशेषज्ञ एक साथ बैठे। भारतीय वित्त सलाहकार समिति (भाविसस) के तत्वावधान में हुए इस चर्चा सत्र का निष्कर्ष था कि इस वर्ष का बजट सभी वर्गों के लिए अच्छा है। समिति के संगठन सचिव रोहित वासवानी ने कहा कि यह बजट अर्थव्यवस्था में पारदर्शी लाने वाला है। इससे ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाने में मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी कहा कि जिन लोगों की सालाना आय पांच लाख रुपए से नीचे है, उन्हें भी इस बजट से बचत करने में मदद मिलेगी। वासवानी की राय में राजनीतिक दलों के संदर्भ में जो नई व्यवस्था की गई है, वह काबिलेतारीफ है। पहली बार किसी सरकार ने राजनीतिक दलों को अपनी आय का लेखा-जोखा देने का प्रावधान किया है। इससे आम लोगों की नजर में सरकार का कद बढ़ा है और राजनीतिक दलों के प्रति भी लोगों की सोच बदलेगी। इस अवसर पर वित्त विशेषज्ञों ने बजट के अन्य पहलुओं पर भी खुलकर चर्चा की।
-ज्ञानेन्द्र बरतरिया
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