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बजट एक ऐसा दस्तावेज होता है, जिसमें देश की आर्थिक भलाई के लिए प्रिय और अप्रिय दोनों तरह की बातें हो सकती हैं। कुछ फैसले जनता को राहत देने वाले होते हैं और कुछ से तात्कालिक रूप से थोड़ी समस्या पैदा हो सकती है। कई बार वे अर्थव्यवस्था के हित में जरूरी होते हैं। पर किसी बजट का आंकलन क्या इस आधार पर किया जा सकता है कि उसमें प्रिय बातें कितनी हैं। अगर एक भी अप्रिय बात आ गई तो उस बजट को 'खराब' करार दिया जाएगा। न्यूज चैनलों की बजट रिपोटिंर्ग देखकर तो ऐसा लगता कि उनकी समझ इतने तक ही सीमित है।
जिन पत्रकारों का काम अपने दर्शकों को शिक्षित और सूचित करने का होना चाहिए, वे खुद ही विषय के प्रति अज्ञान और पूर्वाग्रहों के शिकार होते हैं। वित्त मंत्री ने 3 लाख से ज्यादा के लेन-देन पर रोक का प्रस्ताव रखा। इस फैसले से शुरू में थोड़ी दिक्कत हो सकती है, लेकिन हर कोई समझ सकता है कि यह कदम कालेधन को रोकने के लिए उठाया गया है। लेकिन एक चैनल के क्रांतिकारी एंकर की इस पर टिप्पणी थी कि 'क्या इससे महंगाई कम होगी'। ऐसी बातों पर हंसा जाए या रोया जाए यह दर्शकों को
सोचना होगा।
उत्तर प्रदेश चुनाव के लगभग हर कार्यक्रम में यह प्रश्न पूछा जा रहा है कि 'मुसलमान किसको वोट देंगे?' अगर यह सवाल उचित है तो यह सवाल सांप्रदायिक कैसे है कि हिंदू किसको वोट देंगे? उत्तर प्रदेश चुनाव के विश्लेषणों में मीडिया जिस तरह की जातीय और धार्मिक समीकरणबाजी कर रहा है उसे देखकर यही लगता है कि समाज में बंटवारा पैदा करने का असली दोषी तो खुद मीडिया ही है। मीडिया किस आधार पर यह कहता है कि फलां जाति या धर्म के लोग फलां पार्टी को वोट नहीं देंगे?
अखिलेश सरकार के विज्ञापनों के दबाव में भले ही अखबार और चैनल इसे न दिखाएं, लेकिन उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था का हाल किसी से छिपा नहीं है। भाजपा ने लड़कियों से छेड़खानी को चुनावी मुद्दा बनाया तो उसे लेकर मीडिया की प्रतिक्रिया हैरानी में डालने वाली है। टाइम्स नाऊ चैनल ने इसे भाजपा का 'रिलिजन कार्ड' और 'हिंदुत्व एजेंडा' जैसे विशेषणों से नवाजा। बेटियों की सुरक्षा को धर्म से जोड़ने की मीडिया की मानसिकता के पीछे आखिर असली कारण क्या है?
नोएडा में 3,700 करोड़ रुपए की ठगी का मामला सामने आया तो कई चैनलों और अखबारों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिजिटल इंडिया योजना पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। जबकि इसका डिजिटल इंडिया से कोई लेना-देना नहीं है। नोएडा या उत्तर प्रदेश के शहरों से चलने वाले सभी अखबारों या चैनलों ने इस जालसाजी को लेकर अखिलेश सरकार को शुरू से ही बरी कर रखा है। जबकि यह ठग कंपनी अखिलेश सरकार के दौरान ही फली-फूली। अब जब कंपनी पकड़ी गई तो वो भी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से मिली सूचना के आधार पर।
मीडिया का एक वर्ग आज भी इस बात का ध्यान रखता है कि कुछ लोग आलोचना से परे हैं। इनमें से ही एक हैं प्रियंका वाड्रा। वे चुनाव में प्रचार करती हैं, राजनीतिक बयानबाजी और सौदेबाजी करती हैं। लेकिन जब कोई राजनीतिक विरोधी उन्हें लेकर बोल देता है तो वे मीडिया फौरन उसे 'विवादित बयान' करार दे देता है। 2-2 दिन तक खबर चलती है। लेकिन जब प्रियंका वाड्रा या उनका कोई समर्थक दूसरे खेमे को लेकर भद्दी टिप्पणियां या गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग करे तो वह चुप्पी साध जाता है। ऐसा ही हुआ जब स्मृति ईरानी को लेकर प्रियंका वाड्रा के रिश्तेदार तहसीन पूनावाला ने भद्दी टिप्पणी की। पूनावाला प्रियंका का रिश्तेदार होने के साथ कांग्रेस का प्रवक्ता भी है। लेकिन यह खबर चैनलों और अखबारों में जगह तक नहीं बना सकी।
उधर केरल और बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से जुड़े लोगों के दमन का सिलसिला जारी है। पर एक के बाद एक हमलों और हत्याओं पर दिल्ली के मीडिया की रहस्यमय चुप्पी हैरत में डालती है। दरअसल यह एक तरह की मौन सहमति की स्थिति है। अखबारों से लेकर न्यूज चैनलों तक में संपादकों के रूप में कई लाल कार्डधारी भी बैठे हुए हैं। दमन की इन खबरों पर उनके चेहरों की मुस्कान मीडिया के अंदर के लोगों से छिपी नहीं है। जब तक ये हत्याएं चल रही हैं यह तबका चुप रहेगा। लेकिन जिस दिन इस स्थिति को रोकने या इसके जवाब में प्रतिक्रिया की कोशिश होगी ये लोग फिर किसी नई कहानी को गढ़कर हंगामा शुरू कर देंगे। सौभाग्य से अब लोग मीडिया के चरित्र इस पहलू भी समझने लगे हैं।
बस्तर में हजार साल पुरानी ढोलकल गणेश की प्रतिमा को पहाड़ी से गिराकर खंडित कर दिया गया। शक नक्सलियों पर है। लोकल मीडिया को छोड़ दें तो दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने इस पर छोटी-मोटी रिपोर्ट छापकर खानापूरी कर दी। एक ऐतिहासिक प्रतिमा को इस तरह से तोड़ना किसी को बड़ी खबर नहीं लगा। लेकिन उसी बस्तर में कुछ महीने पहले एक गिरिजाघर में चोरी के मामले को 'चर्च पर हमला' बताकर दिल्ली के अखबारों ने पहले पन्नों पर छापा था। रिपोटिंर्ग में ऐसा दोहरा रवैया तभी होता है जब दिमाग पर किसी तरह का पूर्वाग्रह हावी हो। मीडिया का ये पूर्वाग्रह अब उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रहा है।
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