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आजादी के बाद से पंथनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस ने जो आडंबर रचा है, उसे बनाए रखने की जिम्मेदारी सेकुलर मीडिया ने संभाल रखी है। यही कारण है कि जब आजतक के पत्रकार रोहित सरदाना और उनके परिवार को सोशल मीडिया के जरिए गाली और धमकियां दी जा रही थीं तो वे पत्रकार चुप्पी साधे थे, जो छोटी-छोटी बातों पर हंगामा खड़ा कर दिया करते हैं। मां दुर्गा को अपमानित करने वाले नाम पर एक फिल्म भी बन गई। उसे बनाने वालों को किसी ने कुछ नहीं कहा। रोहित सरदाना ने सिर्फ इतना पूछ लिया कि क्या कोई फिल्मवाला दुर्गा और राधा की बजाय फातिमा और आयशा जैसे नामों पर भी ऐसी फिल्में बना सकता है? यह सवाल उन लोगों को बर्दाश्त नहीं हुआ जो कुछ दिन पहले तक 'पद्मावती' पर हिंदू समाज को सहिष्णुता का उपदेश दे रहे थे।
धमकी और गालियां देकर ही पेट नहीं भरा तो इस्लामी कट्टरपंथियों ने बेंगलुरु में आजतक के दफ्तर में तोड़फोड़ की। लेकिन इस चैनल ने खुद पर हुए इस हमले की खबर दिखाने की भी हिम्मत नहीं की। दरअसल उसे डर उन 'शांतिदूतों' का है, जिन्हें यही मीडिया पीडि़त के तौर पर दिखाता है। यह वही मीडिया है जिसके कई दिग्गज बड़े शान से यह कहते फिरते हैं कि 2014 के बाद से देश में भय का माहौल है। क्या आजतक के संपादकों को यह नहीं बताना चाहिए कि उन्होंने किसके डर से खुद पर हुए हमले की बड़ी खबर दबाई। इस हमले के अगले ही दिन दिल्ली में प्रेस क्लब के चुनाव में तमाम बड़े पत्रकार जुटे, लेकिन किसी ने बेंगलुरु में हुए हमले या रोहित सरदाना को मिल रही धमकियों का जिक्र करने की जरूरत भी नहीं समझी।
'पद्मावती' विवाद में छोटे-मोटे नेताओं के बयानों पर 'राष्ट्रीय बहस' कराने वाले चैनलों को तब सांप सूंघ गया जब लालू यादव की पत्नी और बेटे ने देश के प्रधानमंत्री के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। उनके लिए यह 'विवादित बयान' भर था। आए दिन कांग्रेस और विपक्ष के बड़े नेता गाली-गलौज कर रहे हैं लेकिन मीडिया के लिए वह भी सामान्य बात है। कोलकाता में इंडिया टुडे समूह के कार्यक्रम में ममता बनर्जी मुख्य अतिथि बनीं। कार्यक्रम में उन्होंने देश में 'सुपर इमर्जेंसी' होने का आरोप लगाया और प्रधानमंत्री मोदी को 'तुगलक' कहा। इंडिया टुडे चैनल इसे एक सामान्य बयान की तरह दिखाता और सुनाता रहा। इस अशिष्ट वक्तव्य के लिए चैनल ने बार-बार ममता बनर्जी को 'शेरनी' कहकर संबोधित किया।
राजस्थान के नाहरगढ़ किले से लटकती एक लाश मिली तो पूरे मीडिया को उम्मीद जगी कि इसी बहाने किसी हिंदू संगठन को बदनाम करने का मौका मिलेगा। लेकिन दोपहर तक जैसे ही पता चला कि घटना में शायद कोई इस्लामी कोण भी है, फौरन पूरा मीडिया उस खबर से भाग खड़ा हुआ। अब किसी की इस हत्याकांड की सचाई जानने में रुचि नहीं है।
एनडीटीवी समेत कुछ चैनलों और अखबारों ने उत्तर प्रदेश के बागपत में तीन मौलवियों की पिटाई को तूल देने की कोशिश की। उनके बयान को ऐसे दिखाया मानो वे जो भी कह रहे हैं, पूरी तरह सच होगा। जबकि एक के बाद एक ऐसे ज्यादातर मामले फर्जी और आपसी झगड़े के निकल चुके हैं। बाराबंकी जिले में एक स्कूल में लड़कियों के स्कार्फ पहनने पर डांट-फटकार की खबर भी सुर्खियों में रही। बताया गया कि मुसलमान लड़कियों को स्कार्फ पहनने पर डांटा गया और मदरसे में पढ़ने का ताना दिया गया। कई अखबारों और वेबसाइट पर यह खबर छपी और कुछ चैनलों ने इसे विस्तार से दिखाया। मानो भाजपा का शासन आने के बाद राज्य में मुसलमानों का जीना दूभर हो गया है। जबकि जिस स्कूल की यह खबर थी, वह मिशनरी स्कूल है।
डीएनए अखबार ने खबर छापी कि गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत के मामले में आरोपी ठहराए गए डॉक्टर कफील खान को 'क्लीनचिट' मिल गई है। इस खबर पर एक खास तबके में हर्ष की लहर फैल गई। साथ ही राज्य भाजपा सरकार पर प्रश्नचिन्ह लगाने का काम शुरू हो गया। लेकिन इसी खबर को दैनिक जागरण के स्थानीय संस्करण में पढ़ें तो वहां बिल्कुल अलग तस्वीर थी। उसके मुताबिक कफील खान के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया है और गंभीर आपराधिक धाराएं लगाई गई हैं। डीएनए की खबर मनगढ़ंत थी। यहां यह जानना जरूरी है कि मीडिया में ऐसी झूठी खबरें गलती से नहीं, बल्कि पूरी तरह सोच-समझकर छापी या दिखाई जाती हैं। पोल खुलने पर बड़े आराम से खबर 'वापस' भी ले ली जाती है। पर मुंह से निकले शब्द की तरह ये खबरें कभी वापस नहीं होतीं। बाद में लंबे समय तक झूठ और दुष्प्रचार के तंत्र द्वारा ये खबरें फैलाई जाती रहती हैं। देश में तो लोगों को थोड़ी देर से ही सही सच पता भी चल जाता है, सोचिए जब ऐसी खबरें विदेशी मीडिया में पहुंचती हैं तो देश की छवि को कितना धक्का पहुंचता होगा। क्योंकि वहां तो ऐसी झूठी खबरों का कोई खंडन भी नहीं पहुंचता।
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