|
हिमाचल प्रदेश में दो तिहाई बहुमत के साथ भाजपा को विरासत में कई चुनौतियां भी मिली हैं। राज्य पर करीब 44,000 करोड़ रुपये का कर्ज है और सालाना बजट का करीब 41 प्रतिशत वेतन और पेंशन मद में खर्च हो जाता है
डॉ. राजीव पत्थरिया
हिमाचल प्रदेश में 13वें विधानसभा चुनाव में 44 सीटों के साथ शानदार जीत हासिल कर भाजपा ने सत्ता हासिल की है। लेकिन यह जीत अपने साथ कई चुनौतियां लेकर आई है, जिनका सामना भाजपा की नई सरकार को करना पड़ेगा।
विरासत में मिला खाली खजाना
हिमाचल प्रदेश करीब 44,000 करोड़ रुपये के कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है। राज्य सरकार के सालाना बजट को देखा जाए तो उसमें से 40.74 प्रतिशत राशि वेतन और पेंशन पर खर्च हो रही है। ऋण वापसी और उस पर लगने वाले ब्याज की अदायगी पर सरकार को हर साल करीब 19.71 प्रतिशत राशि वार्षिक बजट में से खर्च करनी पड़ रही है। ऐसे में विकास के लिए लगभग 40 प्रतिशत राशि ही शेष रह जाती है। इन चुनावों में 21 सीटें लाने वाली कांग्रेस ने सत्ता में बने रहने के लिए सैकड़ों घोषणाएं कर बिना जरूरत के नए सरकारी संस्थान खोल दिए हैं और कर्मचारी वर्ग को लुभाने के लिए कई सरकारी वादों को भी सरकारी एजेंडा बना दिया है। खजाना खाली होने के कारण इन घोषणाओं को जारी रखना नवनिर्वाचित भाजपा सरकार के लिए बेहद मुश्किल साबित होगा।
भाजपा के समक्ष दूसरी बड़ी राजनीतिक चुनौती 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी आ सकती है। दरअसल, हमीरपुर और शिमला संसदीय क्षेत्र में पार्टी को काफी नुकसान झेलना पड़ा है। इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा को 48.8 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि 2014 के लोकसभा चुनावों में उसे 54.5 प्रतिशत वोट मिले थे।
जनता ने दिग्गजों को नकारा
इस चुनाव में मतदाताओं की खामोशी ने पहले ही बड़े चुनाव का संकेत दे दिया था। राजनीति के पुराने माहिर खिलाड़ी भी मतदाताओं के मूड को भांप नहीं पाए। खास बात यह रही कि हिमाचल प्रदेश में इस बार मतदान अधिक हुआ, जिसमें महिलाओं की भागीदारी अधिक रही। जागरूक मतदाताओं ने 70 और 90 के दशक से राजनीति में लगातार सफल रहने वाले चेहरों को भी नकार दिया है। इसमें दोनों दलों के बड़े-बड़े चेहरे शामिल हैं। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा रहे प्रो. प्रेम कुमार धूमल भी चुनाव हार गए। दूसरी ओर 6 बार मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरभद्र सिंह के मंत्रिमंडल के पांच सहयोगियों को भी जनता ने नकार दिया। इनमें कौल सिंह ठाकुर और जी.एस. बाली प्रमुख तो हैं ही, वीरभद्र सिंह के चहेते मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी और प्रकाश चौधरी भी शामिल हैं। कौल सिंह तो वीरभद्र सिंह के बाद मुख्यमंत्री पद की दौड़ में भी शामिल थे। इसके अलावा, वीरभद्र के चहेते युवा नेता सुधीर शर्मा को भी इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है। ऐसे में कांग्रेस को प्रदेश में नए नेतृत्व का चुनाव करना होगा, क्योंकि वीरभद्र 83 वर्ष के हो चुके हैं और पार्टी के लिए अगले पांच साल तक उन्हें ढो पाना मुश्किल है। उनका यह आखिरी चुनाव था। प्रो. प्रेम कुमार धूमल दो बार राज्य के मुख्यमंत्री और दो बार विपक्ष के नेता रह चुके हैं। लेकिन इस बार उनका विधानसभा क्षेत्र बदला और वे सुजानपुर से अपने ही शार्गिद राजेंद्र सिंह राणा से चुनाव हार गए। उनकी इस हार का कारण राजेंद्र राणा का अपने क्षेत्र में घर-घर तक पहुंच माना जा रहा है। वहीं, 1977 से राजनीति में सक्रिय गुलाब सिंह ठाकुर को इस बार सउदी अरब से लौटे प्रकाश राणा ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पटखनी दी है। वे हमीरपुर से भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर के ससुर हैं। उधर भाजपा अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती को कांग्रेस के युवा सतपाल सिंह रायजादा ने हरा दिया। इसी तरह, 90 के दशक से लगातार जीत को गले लगाते आए रविंद्र रवि मुंबई से आए आजाद प्रत्याशी होशियार सिंह के मुकाबले खेत रहे। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष और सांसद रह चुके महेश्वर सिंह, मंडी विधानसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी और कौल सिंह ठाकुर की बेटी चंपा ठाकुर भी हार गर्इं, जबकि कांग्रेस के तेजतर्रार नेताओं में शुमार जी.एस. बाली को साधारण छवि वाले युवा अरुण कूका ने हार का स्वाद चखाया।
नए राजनीतिक युग की शुरुआत!
इस बदलाव को हिमाचल में नए राजनीतिक युग की शुरुआत कहा जा सकता है, क्योंकि चुनाव में लगातार सत्ता से चिपके रहने वाले कुछ वरिष्ठ एवं कुछ नए नेताओं की व्यक्तिगत छवि को जनता ने सिरे से नकार दिया है। कुछ विधानसभा क्षेत्रों में काम के आधार पर वोट मिले हैं, लेकिन इसके साथ-साथ लोगों ने नेताओं के व्यवहार का भी आकलन किया है। भाजपा ने यह चुनाव अच्छी योजना और समय-समय पर होने वाले सर्वेक्षणों की रपट के आधार पर लड़ा और उसे इसका फायदा भी मिला। हिमाचल प्रदेश में हर पांच साल पर सरकार बदल जाती है, इसलिए कांग्रेस ने एक तरह से अपनी हार पहले ही मान ली थी। प्रदेश का मुख्यमंत्री अनुभवी व्यक्ति को ही बनाया जाना चाहिए, क्योंकि सरकारी खजाना खाली है। ऐसे में आर्थिक किल्लत व बिना अनुभव सरकार चलाना मुश्किल साबित होगा। पहाड़ी राज्य और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण हिमाचल प्रदेश में विकास कार्यों पर लागत भी अधिक आती है और यहां प्रशासनिक व्यय अन्य बड़े राज्यों के बराबर है।
विजय से जुड़ी नई उम्मीद
हिमाचल प्रदेश में भाजपा की जीत को कई मायने में अहम माना जा रहा है। बीते कुछ दशकों से हिमालयी क्षेत्र के लिए अलग मंत्रालय और नीति बनाने की वकालत की जा रही है। चूंकि उत्तराखंड में भाजपा की सरकार है, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह सरकार की सहयोगी है। उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में भी भाजपा का दखल बढ़ा है। इसलिए संभावना जताई जा रही है कि हिमालयी क्षेत्र के लिए अलग मंत्रालय और नीति बनाने के लिए जारी मुहिम को मजबूती मिलेगी। इसके अलावा, पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के साथ साझा योजनाओं में भी तेजी आएगी। दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार होने के कारण परस्पर सहयोग वाली योजनाओं को सबसे अधिक फायदा होगा। उदाहरण के तौर पर किशाऊ बांध परियोजना को ही लें, तो यह केंद्र, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश का संयुक्त उपक्रम है। हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद बांध निर्माण में तेजी आएगी।
राजनीति में कोई एक जीतेगा तो दूसरा हारेगा ही, लेकिन मुझे हार की उम्मीद नहीं थी। व्यक्तिगत नुकसान (हार) मायने नहीं रखता। खास बात यह है कि भाजपा ने हिमाचल में जीत दर्ज की। वोट देने के लिए राज्य की जनता का शुक्रिया।
—प्रो. प्रेम कुमार धूमल, भाजपा
चुनाव न जीत पाना इत्तेफाक की बात है। पिछले कुछ चुनावों से हिमाचल में यह परंपरा बन गई है कि एक बार कांग्रेस की सरकार बनती है तो दूसरी बार भाजपा की। कांग्रेस का भविष्य उज्ज्वल है। हार के बाद ही जीत होती है।
—वीरभद्र सिंह, कांग्रेस
टिप्पणियाँ