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16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। इसके बाद ही बांग्लादेश का निर्माण हुआ। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी हमले का करारा जवाब उसके 250 गांवों पर कब्जा कर लिया। भारतीय शूरवीरों की यह गाथा आज भी प्रेरणादायी है
कड़ाके की सर्दी। घुप्प अंधेरा। सायं-सायं कर तन बेधती सर्द हवाएं। अंधेरे में मीलों दूर तक फैले थार के विशाल रेगिस्तान में पसरी खामोशी को तोड़ती गोलियों की आवाज। अचानक आसमान से गड़गड़ाहट, गोले दागते हुए गुजरता हवाई जहाज। जहां तक नजर जाती, घुप्प अंधेरे के अलावा कुछ भी नहीं। रोशनी का मतलब है मौत को बुलावा। यह दृश्य है चार दशक पूर्व पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र की एक रात का। भारतीय रणबांकुरों ने तब पाकिस्तानी सेना को पीछे धकेल दिया था। यही नहीं, भारतीय सेना ने पाकिस्तान के सिंध में तिरंगा फहरा दिया था। यह बात अलग है कि 17 दिसंबर,1971 को युद्धविराम की घोषणा के बाद हुए शिमला समझौते के कारण भारत ने पाकिस्तान में सिंध एवं कच्छ क्षेत्र में जीते 250 गांव वापस कर दिए थे। पाकिस्तान की जीती हुई 10,000 वर्ग किलोमीटर भूमि भी लौटाई गई। इस युद्ध में पीछे रही तो सैकड़ों शूरवीरों की शहादत, हजारों लोगों के टूटे घरौंदे और इन घरौंदों से उठता बर्बादी का धुआं।
बर्बादी की यह दास्तान शुरू हुई 3 दिसंबर, 1971 से। भारत की इस पश्चिमी सरहद पर सब कुछ सामान्य चल रहा था, कि अचानक पाकिस्तानी बमवर्षक हवाई जहाजों ने उड़ान भरी और भारतीय सीमा में प्रवेश किया और सरहदी गांवों समेत वायु सेना के उत्तरलाई हवाई अड्डे (बाड़मेर शहर से लगभग 13 किलोमीटर दूर) पर बमवर्षा शुरू कर दी। इससे भारतीय सेना के शूरवीरों का खून खौल उठा। पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारत ने पश्चिम के इस मोर्चे से युद्ध की घोषणा कर दी। भारतीय वीर पाकिस्तान की ओर चल पड़े। इन वीरों ने 15 दिन में पाकिस्तान के 250 गांवों को अपने कब्जे में ले लिया। भारत ने पाकिस्तान के परचे की बेरी, खोखरापार, गडरा सिटी (यह स्थान अभी भारत में है जो बाड़मेर शहर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर है), नगरपारकर, खींवसर, छाछरा इत्यादि बड़े कस्बों में तिरंगा फहरा दिया। पाकिस्तान में प्रमुख युद्ध स्थल रहा पर्वत अली का टीबा। यह भारत की सरहद से करीब 47 किलोमीटर दूर है। पाकिस्तानी सेना के इस मुख्य सामरिक स्थल पर कब्जा करने के लिए इस टिब्बा को जीतना जरूरी था। इसे जीतने के लिए भारत की महार एवं सिख रेजिमेंट के शूरवीर जुटे हुए थे। अंतत: 12 दिसंबर, 1971 को भारत की जीत हुई। भारत ने यहां तिरंगा फहरा दिया। इससे पहले भारत ने गडरा सिटी एवं अंत में सिंध में विजय पताका फहराई। सब तरफ से परास्त पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए, लेकिन इस जीत के लिए भारत के हजारों घरों के चिराग बुझ गए। उस युद्ध का स्मरण कर लोग आज भी सिहर उठते हैं।
युद्ध के मैदान में थार के जांबाज
युद्ध के दौरान सीमा पर स्थित गांवों के लोगों ने जिस साहस के साथ भारतीय सेना को सहयोग दिया, वह सदैव स्मरणीय रहेगा। सुंदरा गांव के कालूसिंह सोढ़ा ने पाकिस्तान में भारतीय सेना को राह बताने में अग्रणी भूमिका निभाई। ऊंटों से पानी और राशन सामग्री सेना तक पहुंचाई। इतना ही नहीं, पाक सीमा पर स्थित सईदाउन मोर्चे पर कई पाकिस्तानी सैनिकों को अपनी बंदूक से ढेर कर दिया था। इसी गांव के मंगलसिंह सोढ़ा, गोपालसिंह सोढ़ा, अमरसिंह व नखतू ने भारतीय सेना को पाकिस्तान में रास्तों की जानकारी दी। मंगल सिंह नहीं, रेलनोर मोर्चे पर पाकिस्तानी तैयारी की पूर्व सूचना भारतीय सेना को दी और भारत के वीरों ने इस सूचना के आधार पर धावा बोलकर पाक सैनिकों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। कई नागरिकों को बाद में सरकार ने सम्मानित किया। चौहटन के ढोक गांव के तत्कालीन सरपंच छतरसिंह ने भारतीय सेना को ऊंटों से पानी और राशन सामग्री पहुंचाई। उन्हें बाद में शौर्यचक्र से सम्मानित किया गया।
आकाशवीरों की गाथा
3 दिसंबर, 1971 की रात पाकिस्तान ने उत्तरलाई हवाई अड्डे पर हमला किया। एंटी एयरक्राफ्ट गन से बरसाए गए गोलों के चलते अधिकांश बम हवाई अड्डे के बाहर गिरे। उत्तरलाई में उन दिनों आबादी नहीं थी, इसलिए जानो-माल का नुकसान नहीं हुआ। इस हमले का जवाब देने के लिए भारतीय आकाशवीरों ने उत्तरलाई हवाई अड्डे से उड़ानें भरी और घुस गए पाकिस्तान में। भारतीय लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान के खींवसर, न्यू छोर, गाजी कैंप, कराची, बदिन हैदराबाद आदि सैनिक अड्डों बमबारी करके सब कुछ तहस-नहस कर दिया। मीरपुर खास रेलवे स्टेशन पर सैनिक सामग्री से लदी रेल के परखचे उड़ा दिए। इस ट्रैन में चालीस से ज्यादा डब्बे लगे हुए थे। इसी स्टेशन पर दूसरी बार और बमवर्षा कर दो रेल इंजनों एवं सैन्य सामग्री से लदे डिब्बों को ध्वस्त कर दिया गया। भारत के मारूत विमान ने पाक स्थित विधोरा इलाके में चार सेबरजेट विमानों को जमींदोज कर दिया था। यहंी नहीं- 16 दिसंबर को भारत के मिग-21 ने चीन में बने मिग-19 को धूल चटा दी।
युद्ध विराम की घोषणा से ठीक पहले भी आकाशवीरों ने 12 घंटे में दुश्मन के तीन विमानों को कब्रिस्तान बना डाला। विंग कमांडर वी़ के़ मूर्ति, फ्लाइट लेफ्टिनेंट प्रकाश नाथ शर्मा, वी़ के.त्रेहन, हरजीत सिंह बेदी, एम़ पी़ प्रेमी, विंग कमांडर केशव चंद्र अग्रवाल, स्क्वाड्रन लीडर बी़ एस़ डी़ मार्गी ने इस मोर्चे पर पाक को धूल चटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह
इस युद्ध में भारत की लोंगेवाला सीमा चौकी पाक टैंकों की कब्रगाह बनी थी। इस चौकी पर पाकिस्तान ने 4 दिसंबर, 1971 की रात्रि में एक टैंक रेजिमेंट एवं तीन बटालियनों के साथ आक्रमण किया था। उस समय इस चौकी की कमान पंजाब रेजिमेंट के मेजर कुलदीपसिंह चांदपुरी के हाथ थी। हमले के समय चौकी में भारतीय सैनिकों की संख्या कम थी, लेकिन उनकी दिलेरी और सूझबूझ ने पाकिस्तानी सेना को भयभीत कर दिया। तीन तरफ से घिरे लोंगेवाला पोस्ट के हवलदार बलदेवसिंह ने दुश्मन के एक टैंक को उड़ा दिया। सूर्योदय होते ही भारतीय वायु सेना ने ताबड़तोड़ गोलाबारी करते हुए पाक टैंकों को नेस्तनाबूद कर दिया। शिमला समझौते के बाद पाक के विजित क्षेत्र को बिना किसी नुकसान के 20 दिसंबर, 1972 को लौटा दिया गया।
देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले वीरों को नमन करने के लिए थार के लोग प्रतिवर्ष 17 दिसंबर को बाड़मेर शहर के शहीद चौराहे पर एकत्रित होते हैं। और किसी भी संकट से निबटने के लिए एक जुट होने का संकल्प भी लेते हैं।
प्रस्तुति : आनंद कुमार गुप्ता
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