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मतदान हिमाचल प्रदेश में भी हुआ था और निकाय चुनाव उत्तर प्रदेश में भी हुए, लेकिन जो राजनैतिक गर्मी गुजरात विधानसभा चुनावों ने पैदा की, वह अलग ही है। यह इस बात का संकेत है कि यह चुनाव कितना अहम है। दरअसल, आज गुजरात राज्य से ज्यादा एक प्रतीक है, रूपक है। तुष्टीकरण और सेकुलर राजनीति के छद्म को राजनैतिक रूप से तार-तार करने वाला सर्वसमन्वयकारी और प्रगतिगामी प्रतीक। राज्य की सत्ता संभालने वाली और चीजों को पटरी पर लाने वाली पार्टी यदि इसका श्रेय लेती है तो कहना होगा कि उसने यह हक कमाया है। कुछ दशक पहले तक ‘पिछड़ा’, ‘बीमारू’ और ‘जब-तब हिंसाग्रस्त रहने वाला राज्य’, यही तो छवि थी गुजरात की! यदि आज यह राज्य अपनी नई छवि से गर्वित होता है तो इससे किसी को क्या परेशानी हो सकती है! किन्तु परेशानी है. . . और जब इस परेशानी का दायरा राजनीतिक दलों से बाहर तक फैलता है तो मानना होगा कि परेशानी बड़ी है।
..वरना क्या जरूरत थी गांधीनगर के आर्चबिशप को राजनैतिक दंगल में ताल ठोकने की! और उनकी अपील किसके समर्थन में थी? यह सेकुलर राजनीति की नीयत का खोट नहीं तो और क्या है कि आर्चबिशप के जिस बयान की कसकर निंदा होनी चाहिए थी, उस पर सबके होंठ सिले रहे?
राम की बजाय रोम जपने वालों को, वेटिकन का झंडा उठाने वालों को ‘राष्ट्रवाद’ डराता है, यह बात आर्चबिशप ने खुलकर कह दी। इस साफगोई के लिए उनका धन्यवाद। किन्तु राजनीति हिम्मत नहीं, ‘छद्म’ की माहिर मानी जाती है। यह अनायास नहीं है कि गुजरात में बुजुर्ग पार्टी की नई भंगिमा दिखी। हिंदू समाज की ओर कभी ‘भगवा आतंकवाद’ जैसा फर्जी और घिनौना आरोप उछालने वाली पार्टी चुनावी वेला में ‘भगवा और भगवान’ की बलिहारी हुई जा रही है तो इस उलटबांसी की खास राजनैतिक वजह है। यह यूं ही नहीं कि बांहें चढ़ाने वाले ‘युवराज’ मंदिरों में माथा नवाते-नवाते दोहरे हुए जा रहे हैं और उनकी पार्टी के कद्दावर अधिवक्ता राम मंदिर का मुद्दा ‘चुनाव’ से जोड़कर देख रहे हैं।
सो, यह मानने का कोई कारण नहीं कि यह लड़ाई महज चुनावी नहीं, बल्कि इससे बड़ी है। गुजरात चुनाव के पहले से चल रही है और बाद में भी चलेगी। दरअसल, जिसे गुजरात मॉडल कहा जाता है, वह और कुछ नहीं बल्कि हिंदू समाज की एकता और राज्य के सर्वांगीण विकास का प्रारूप है। यह मॉडल संकुचित किस्म की राजनीति और वर्ग-विद्वेष पर पलने वाले आर्थिक चिंतन को आईना दिखाता है। इसकी सफलता उन्हें डराती है। इसलिए विकास और समन्वय का प्रारूप देश-दुनिया के सामने रखते हुए आज गुजरात जो लड़ाई लड़ रहा है, वह न तो सिर्फ चुनावी लड़ाई है और न ही अकेले गुजरात को यह लड़ाई लड़नी है। यह लड़ाई देश के लिए निर्णायक है। इस चुनाव से यह तय होगा कि हिंदू एकता को तोड़ने के लिए राजनीतिक कुचक्रों का आरा किस तेजी से चल सकता है और समाज उसे कैसा उत्तर देने वाला है। इस चुनाव से यह भी तय होगा कि राज्य का बहुसंख्यक समाज जाति और वर्ग के आधार पर कटते-बंटते हुए राजनीति का मोहरा बनना पसंद करेगा या नहीं। यह चुनाव तय करेगा कि भारत में भविष्य की राजनीति कैसी करवट लेगी। गुजरात का वर्तमान रूपक उस वंशवादी, भ्रष्टाचारी राजनीति को ध्वस्त करने वाला है जिसने समाज को टुकड़े-टुकड़े कर अपने कुनबे और मुनाफे की राह पक्की की थी। आज मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सरीखे राज्यों में राजनीति जातिवाद की बीमारी से ऊपर उठती दिखती है तो इसके पीछे कहीं न कहीं गुजरात की परोक्ष प्रेरणा भी है। इस लिहाज से देखें तो राजनीति को यदि स्वास्थ्य लाभ करना है तो गुजरात मॉडल उसके लिए भी लाभदायक है। वरना ‘बांटो और राज करो’ की नीति तो अंग्रेजों की भी थी!
बहरहाल, समाज को जोड़ने वाली, प्रगतिपथ पर सबको साथ लेकर चलने वाली राजनीति देश की आवश्यकता है, गुजरात बताएगा कि उसे इस बात में कितना भरोसा है।
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