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गुजरात में बीते दिनों आईएसआईएस के दो आतंकी पकड़े गए। पता चला कि इनमें से एक कासिम भरूच के उस अस्पताल में नौकरी करता था, जिसके मालिक कथित तौर पर कांग्रेस नेता व सोनिया गांधी के करीबी अहमद पटेल हैं। आतंकी अमदाबाद में बड़े हमले की पूरी तैयारी कर चुके थे। अस्पताल ने कासिम से दो दिन पहले इस्तीफा भी ले लिया था। यह बड़ी खबर थी, क्योंकि पहली बार कांग्रेस के एक बड़े नेता पर आतंकी को पनाह देने का आरोप लगा था। कोई और मामला होता तो मीडिया में कई दिन तक इसका 'फॉलोअप' होता, पर यह खबर गायब हो गई। जी न्यूज को छोड़ बाकी चैनल व अखबारों ने रस्मअदायगी ही की।
दिल्ली के मीडिया को जानने वाले समझते हैं कि पटेल के अस्पताल में आतंकी मिलने की खबर क्यों दब गई। कांग्रेस को सत्ता से बेदखल हुए भले साढ़े तीन साल हो गए, पर आज भी संपादकों पर पटेल का जितना जोर चलता है, उतना शायद ही किसी और का चलता हो। संप्रग शासन के दौरान हर चैनल, अखबार में पटेल का सीधा दखल हुआ करता था। कहते हैं, पटेल ने लगभग सभी मीडिया समूहों में कांग्रेस कार्यकर्ता की तरह काम करने वाले कई संवाददाताओं की भर्ती करवा रखी है। सबसे क्रांतिकारी समाचार समूह के एक संपादक को न्यूजरूम में दौड़-दौड़कर सबको यह बताते देखा गया कि ''अरे वो अहमद पटेल का अस्पताल नहीं है।'' मुख्यधारा मीडिया ने पटेल के 'आतंकी संपर्क' की खबर दबाने की कोशिश की, पर सोशल मीडिया पर लोगों ने बताना शुरू किया कि पटेल के मंसूबे क्या हैं और वे किस तरह से गुजरात दंगों के षड्यंत्र में शामिल थे। पत्रकार संदीप देव ने तो फेसबुक लाइव के जरिये पटेल के उत्थान व उनके कुकृत्यों के बारे में लोगों को वे बातें बताईं जो अब तक मुख्यधारा के पत्रकारों ने छिपा रखी थीं।
यह अहमद पटेल जैसे कट्टरपंथी नेताओं की तरफ से प्रायोजित पत्रकारों और संपादकों का ही करिश्मा है कि राष्ट्रगान व राष्ट्रगीत भी 'विवादित' हो चुके हैं। कोई राष्ट्रगान व राष्ट्रगीत के सम्मान की बात भर कह दे तो मुख्यधारा मीडिया मानो उसे नोंच लेता है। इसी कोशिश में बीते हफ्ते जयपुर व भोपाल में विवाद पैदा किया गया। मीडिया ने बड़ी सफाई से इस बात को स्थापित करने की कोशिश की कि राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान की बात करने का मतलब है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाना। यही गिरोह चिदंबरम के कश्मीर की आजादी का समर्थन करने पर सोनिया या राहुल गांधी से कभी सवाल नहीं पूछता। उधर, पंजाब में हिंदू संगठनों से जुड़े लोगों पर हमले जारी हैं। अमृतसर में विपिन शर्मा की सरेआम हत्या पर अखबारों और चैनलों की चुप्पी चिर-परिचित है। केरल में हो रहे जिहादी हमले हों या पंजाब में संदिग्ध खालिस्तानी हमले, मीडिया के लिए ये हमेशा से छोटी खबर रही हैं। पंजाब सरकार पर भी कोई दबाव नहीं है कि वह प्राथमिकता से ऐसे हमलों की जांच को निबटाए। फिलहाल ये हालात भारतीय मीडिया के मूल चरित्र की झलक देने के लिए काफी हैं।
दिल्ली में पत्रकार के रूप में सक्रिय कांग्रेस कार्यकर्ता विनोद वर्मा को छत्तीसगढ़ पुलिस ने गिरफ्तार किया। आरोप था कि वह नकली सेक्स सीडी बनाकर छत्तीसगढ़ सरकार के एक मंत्री से वसूली की कोशिश में था। गिरफ्तारी की खबर आते ही ऐसी स्थिति बनाई गई मानो बड़ा अनर्थ हो गया हो। एनडीटीवी समेत कई चैनलों व अखबारों ने आरोपी के पक्ष में न सिर्फ अभियान चलाया, बल्कि झूठे तथ्य गढ़कर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश की। पर सूबे के एक चैनल आईबीसी24 ने दिखाया कि कैसे दूसरे वीडियो में मंत्री का चेहरा डालकर झूठ फैलाने की तैयारी थी। पत्रकारों के जरिए ऐसे घिनौने कृत्य कांग्रेस पहले भी करवाती रही है, लेकिन इस बार रंगेहाथ पकड़ी गई। संतोष की बात है कि मीडिया वामपंथी-कांग्रेसी जाल से धीरे-धीरे ही सही, मुक्त हो रहा है। कहीं वैकल्पिक माध्यमों से तो कहीं अखबारों व चैनलों में वैचारिक दादागीरी को चुनौती दी जा रही है। बीते हफ्ते इंडिया टुडे चैनल ने एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए केरल में कट्टरपंथी संगठन पीएफआई की गतिविधियों का खुलासा किया। कांग्रेसी और वामपंथी तभी से चुप्पी साधे हुए हैं। ल्ल
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