आवरण कथा- बे-ईमान!
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आवरण कथा- बे-ईमान!

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Nov 20, 2017, 12:00 am IST
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दिंनाक: 20 Nov 2017 11:11:11

अरब देशों के कामपिपासु बूढ़े बेरोकटोक भारत आते हैं और यहां अपनी पोती से भी छोटी उम्र की लड़कियों से निकाह करके मौज-मस्ती करते हैं और वीजा की अवधि खत्म होते-होते तलाक देकर लौट जाते हैं। यह उनका कौन-सा ईमान है? मुस्लिम समाज  इस अन्याय के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाता?

शंकर शरण

हैदराबाद, मुंबई, केरल आदि जगहों में बदनाम ‘अरबी निकाह’ बीच-बीच में समाचारों में आता रहता है। हाल में दो दर्जन से अधिक लोग हैदराबाद में गिरफ्तार हुए। अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रायटर ने भी इस पर हाल में एक शोध-अध्ययन प्रकाशित किया है।
मूलत: इस निकाह में अरब देशों के धनी बूढ़े, अधेड़ लंपट यहां आकर किसी मुस्लिम लड़की से शादी कर, कुछ समय गुजार और फिर तलाक देकर चलते बनते हैं। उनकी मंशा शुरू से साफ रहती है। पर यहां अनेक दलालों, होटल वालों और काजियों द्वारा यह एक व्यवस्थित धंधे के रूप में जारी है। वे होटल में लड़कियों की कतार  लगाकर आगंतुक अरबों से उन्हें पसंद कराते हैं और निश्चित रकम लेकर निकाह करवा देते हैं। उसी समय बाद की तारीख देकर तलाक के कागज पर भी दस्तखत करा लिए जाते हैं। यानी तलाक की खानापूरी के लिए भी उन अरब पुरुषों को यहां मौजूद होने की जरूरत नहीं रहती!
सबसे दु:खद यह की ऐसे अधिकांश मामलों की शिकार लड़कियां कमसिन होती हैं जो साफ धोखे की बलि चढ़ती हैं। उन्हें अपने ही लोग धोखा देते हैं। पड़ोसी, संबंधी या दलाल और काजी उन्हें यह कभी नहीं बताते कि यह शादी केवल दो-तीन दिन की है। इन भोली, अनुभवहीन लड़कियों को अरब में सुखी जीवन के सपने दिखा कर और किसी युवा अरब लड़के से शादी का प्रलोभन देकर फुसलाकर लाया जाता है। लेकिन जब वे होटल पहुंचती हैं, तब किसी बूढ़े से पसंद करा कर, फिर जैसे-तैसे समझा-बुझा कर निकाह करा दिया जाता है। बेचारी कुछ नहीं कर पातीं।
यही वह ‘अरबी निकाह’ है, जो हैदराबाद ही नहीं, मुंबई और केरल में भी धड़ल्ले से होता है। कई बार तो कोई अरबी एक सप्ताह में चार निकाह और तलाक देकर फिर पांचवीं लड़की का ‘आदेश’ देता है। इन अरबी पुरुषों की आयु 70-75 वर्ष भी पाई गई है। इनमें कइयों की आंख, कान जवाब दे चुके हैं, जिन्हें ऐसा निकाह-तलाक कराया जाता है। इन शादियों की धोखाधड़ी, अमानवीयता और क्रूरता को समझना कठिन नहीं है। लेकिन हर साल ऐसी सैकड़ों, हजारों लड़कियों के साथ जो होता है, क्या उसकी वेदना कोई अन्य महसूस कर सकता है? वस्तुत: ऐसे निकाह के बाद जिन लड़कियों को तुरत तलाक न देकर, अरब ले भी जाया जाता है, वे प्राय: वहां सेक्स-गुलाम या लाचार नौकर ही बन कर रहती हैं। यह सब क्या धोखे भरी संगठित वेश्यावृत्ति और भोलीभाली लड़कियों की खरीद-फरोख्त भर है? फिर यह जो भी हो, इसकी इजाजत कौन देता है? निस्संदेह, वे लड़कियां नहीं देतीं। न ही भारतीय समाज, न यहां का नागरिक कानून देता है। तब यह अनैतिक, अमानवीय धंधा किस के बलबूते चल रहा है? इस सवाल का जवाब इस तथ्य से मिल सकता है कि इस पूरे प्रपंच में शामिल सभी लोग मुसलमान होते हैं।
यह कहते ही कुछ लोग फौरन कैफियत देने लगते हैं कि वे लड़कियां दरअसल गरीबी की शिकार हैं, जिससे यह कुकर्म चल रहा है। लेकिन यदि यही कारण होता तो गैर-मुस्लिम लड़कियों के साथ भी ऐसा हो रहा होता। तब केवल मुस्लिम लड़कियां इसकी शिकार कैसे होती हैं, और केवल मुसलमान पुरुष ही इसमें कैसे शामिल हैं? आखिर लंपट पुरुष तो सभी मत-पंथ में हैं।
बुनियादी प्रश्न यह है कि ‘अरबी निकाह’ वाली लड़की का शौहर एक-दो दिन में नई बीवी को तलाक दे, मजे से उसी दिन फिर दूसरा, तीसरा निकाह करता और तलाक देता रहे—इस प्रक्रिया के लिए किसी लड़की की गरीबी कहां जिम्मेदार है? जिम्मेदार तो सीधे-सीधे वह कायदा है जो शौहर को बिना कारण बताए, क्षणभर में, किसी बीवी से छुटकारा पाने, और दूसरी ले आने का बेरोक अधिकार देता है। बल्कि, साथ ही साथ, एक ही बार में चार-चार बीवियां रखने का अधिकार भी। यह कायदा और इसका जारी रहना न तो गरीबी की देन है, न भारतीय समाज की, न भारतीय संविधान की।
अत: सालाना हजारों भोलीभाली मुस्लिम लड़कियों की इस दुर्गति, जो लंबे समय से चल रही है, के सही कारण पर उंगली रखनी चाहिए। जो लोग इसे इस्लाम में हस्तक्षेप समझ कर चुप हैं, या दूसरों को चुप करना चाहते हैं; उन्हें खुद अपने-आप से पूछना चाहिए कि इसमें कौन सी खुदाई/मजहबी बात है? यदि ऐसी शादी-सह-तलाक कराने वाले काजी तथा इसे उचित ठहराने वाले मौलाना गलत कर रहे हैं तो इसे रोकना ही चाहिए। इसे रोकना तब भी सही काम होगा जब यह किसी मजहबी किताब, कायदा या हुक्म के खिलाफ पड़े। यह बिलकुल व्यावहारिक है, क्योंकि जगजाहिर है कि ऐसा निकाह करने, कराने वाले कोई मजहबी काम नहीं कर रहे हैं।
ध्यान रहे, अरबों के साथ ऐसे निकाह का धंधा कोई अपवाद नहीं, बल्कि अनेक स्थानों पर बेरोकटोक चल रहा है। हर कहीं उसका बचाव इस्लाम ही है, कुछ और नहीं। आंध्र, केरल या मुंबई, हर जगह मुस्लिम लड़कियां इस की शिकार होती हैं। दशकों से हो रही हैं। खुलेआम हो रही हैं। उनके साथ यह सब करने वाले केवल और केवल मुसलमान ही हैं। इस की आड़ हर कहीं मजहब ही है, जिसके बल पर यह कुकर्म बेखौफ होकर किया जाता है।
अत: ‘अरबी निकाह’ इस्लामी कायदे के तहत मुस्लिम लड़कियों, स्त्रियों की तबाही है। इस्लाम की सुरक्षा में ही अरबी बूढ़े, धनी और लंपट लोग यहां आकर किसी लड़की से निकाह कर, कुछ समय गुजार और फिर तलाक देकर चलते बनते हैं। ऐसी तलाकशुदा लड़कियों और उनके बच्चों का शेष जीवन कैसे बीतता है, यह किसके सोचने का विषय है?
इन मामलों में जो गिरफ्तारियां होती भी हैं, वह पीड़ित की शिकायत पर ही। कोई पीड़ित अगर शिकायत न करे तो कोई मामला नहीं बनता। अर्थात्, इस्लाम के मुताबिक यह सब ठीक है। इसीलिए मुस्लिम लड़कियां यह सब चुपचाप स्वीकारने को अभिशप्त हैं। उनका मजहबी कायदा अरबी निकाह वाले शौहरों, काजियों को कुछ नहीं कहता। इसीलिए बड़ी संख्या में अरब व्यभिचारी मजे से रंगरलियां मना कर वापस चले जाते हैं। पूरे मुस्लिम समाज को इस अरबी निकाह की सचाई मालूम है। यहां चल रहे इस्लामी पर्सनल लॉ का लाभ उठा कर ही यह गंदा व्यापार चल रहा है। इसमें कभी किसी को सजा मिलती भी है, तो भारतीय दंड संहिता की किसी धारा में फंसने के कारण। शरीयत की नजर में अरबी लोग, काजी, दलाल, होटल वाले आदि कोई कसूरवार नहीं है!
तभी तो आम मुसलमान इस पर आवाज नहीं उठाते, जो वैसे किसी भी बात पर भड़काए जाते हैं, भड़काए जा सकते हैं। यही बात सोचने की है। जो समाज एक आतंकी बुरहान वानी या मुहम्मद अफजल जैसे आतंकी के बचाव में या तसलीमा नसरीन जैसी एक विदुषी लेखिका के किसी मामूली विचार व्यक्त करने पर हिंसा पर उतारू होता रहता है, वह अपनी हजारों लड़कियों की सालाना तबाही पर क्यों चुप रहता है? यह कैसी सामूहिक बुद्धि है जो सही काम के खिलाफ और गलत काम के साथ रहती है! यहां मुसलमान नेता ही नहीं, अधिकांश मुस्लिम लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार भी अरबी निकाह में स्त्रियों की दुर्गति के असल कारणों की अनदेखी करते हैं। वे इस घृणित समस्या का ऊपरी, दिखावटी निदान करने की कोशिश करते हैं। इसीलिए समस्या जस की तस है। गौरतलब है कि हर मुस्लिम लड़की, स्त्री को सम्मान या न्याय के लिए इस्लाम से बाहर ही मुंह ताकना पड़ता है! क्या मुसलमानों को  यह सोचना नहीं चाहिए कि जिनकी आधी आबादी गुलामी से कायदों में बंदी है, उनके पूरे समाज पर इसका क्या-क्या और कितना गहरा दुष्प्रभाव पड़ता है? उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि इस समस्या का मूल कारण कहीं बाहर नहीं, तो अंदर कहां है?  
इस मूल बिन्दु पर अनेक मुस्लिम स्त्रियों ने भी लिखा है। उनकी बातें प्रामाणिक हैं, क्योंकि वे उन के अपने लंबे भोगे हुए अनुभव, अध्ययन और अवलोकन से कही गई हैं। इन सभी विविध अनुभवों का सार यह है कि इस्लाम में स्त्रियों  और बच्चों की हैसियत पुरुषों की संपत्ति से रंच-मात्र भी अधिक नहीं है। तब संपत्ति का उलट-फेर, खरीद-फरोख्त, यहां तक कि विध्वंस भी तो मामूली बात ही है! सीरियाई लेखिका डॉ. वफा सुलतान के अनुसार, ‘‘इस्लाम में परिवार या बच्चे की ऐसी कोई धारणा ही नहीं है जिसका आदर, सम्मान या अर्थ भी हो।’’ अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ए गॉड हू हेट्स’ में वफा ने चुनौती दी है कि कोई उनकी बात का खंडन करके तो दिखाए! वे कहती हैं, ‘‘मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति भयंकर मानवीय त्रासदी है जिसे दुनिया ने सदियों से उपेक्षित किया है। अब दुनिया इस उपेक्षा का ही भारी मूल्य चुका रही है। एक दबाई, कुचली हुई स्त्री कभी भी भावनात्मक और मानसिक रूप से संतुलित मनुष्य को जन्म नहीं दे सकती। यह बड़ी गंभीर बात है।’’ वफा के अनुसार, ‘‘वह अदृश्य मुस्लिम स्त्री मानो मुर्गी समान है जो आतंकवाद के अंडों को सेती रही है और उन्हें वह गर्मी पहुंचाती है ताकि आतंकवादी पैदा हो सकें। वह मुस्लिम स्त्री जो टेलीविजन पर खड़ी होकर दुनिया को कहती है, ‘मेरे तीन बेटे शहीद हुए और मैं चाहती हूं कि चौथा भी हो’ दरअसल अपने मातृत्व से वंचित रही है। जब वह फिर कहती है, ‘मेरे बेटे अभी जन्नत में हूरियों के साथ शादी का उत्सव मना रहे हैं’, तो समझ लेना चाहिए कि वह बेचारी अपनी बुद्धि और अंतरात्मा खो चुकी है।’’
इस प्रकार, दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का विस्तार भी मुस्लिम स्त्रियों की दुर्गति, गुलामी से जुड़ा विष बन जाता है। इसे गंभीरता से परखा जाना चाहिए। आखिर यह सहज प्रश्न तो उभरता ही है कि एक पुरुष की एक साथ चार स्त्रियों, उनके अलावा अनगिनत रखैलों तथा गुलामों की खरीद-बिक्री को मजहबी-कानूनी अनुशंसा देने वाली विचारधारा उनसे पैदा होने वाले अनगिनत बच्चों को किस नजरिए से देखेगी? उन बच्चों का क्या और कैसा ध्यान रखेगी, क्या उपयोग करेगी? एक पिता क्या अपने 20-25 बच्चों का नाम भी याद रख सकेगा, उन्हें जरूरी भावनात्मक सुरक्षा या उचित शिक्षा-दीक्षा देना तो दूर रहा। ऐसे पिताओं के उदाहरण किसी भी मुस्लिम क्षेत्र में मिल जाएंगे।
यदि ऐसे मुस्लिम पतियों या पिताओं की संख्या कम है, तो इससे असली बात पर परदा नहीं डालना चाहिए कि इस्लाम यह इजाजत देता है कि कोई पुरुष अनगिनत शादियां, संतानोत्पति करता और तलाक देता रह सकता है। साथ ही, इस्लामी कानून के हिसाब से उसे यह परवाह करने की बाध्यता नहीं कि इस प्रक्रिया में पैदा होने वाले असंख्य बच्चों का क्या होगा? उलटे, इस्लामी आलिम और नेता पूरी उग्रता से ऐसे इस्लामी कायदों को जारी रखना चाहते हैं। वे किसी भी सूरत में मनमाने तलाक, निकाह, जैसे इस्लामी कानूनों को खत्म करने का विरोध करते हैं। अत: भारत के विवेकशील मुसलमानों को इस पूरे विषय की स्वतंत्र समीक्षा करनी चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यहां मुसलमानों पर अनेक इस्लामी कानून सदा से लागू नहीं थे। यहां मुस्लिम पर्सनल लॉ भी हाल की चीज है। यह 1791 में लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स के बनाए कानून से शुरू हुआ जिसके बाद शादी, तलाक तथा संपत्ति विरासत मामलों में मुसलमान और हिन्दू अलग-अलग चल सकते थे। फिर भी आज से 100 साल पहले तक अधिकांश मुसलमान पारंपरिक भारतीय रीतियों के मुताबिक चलते थे।
डॉ. आंबेडकर के अनुसार 1939 तक भारत में यह कानून था कि यदि कोई विवाहित मुस्लिम स्त्री इस्लाम छोड़ देती थी, तो उसका विवाह स्वत: भंग हो जाता था और ‘वह अपने नए मत के किसी भी पुरुष से विवाह करने के लिए स्वतंत्र हो जाती थी। साठ वर्ष तक भारत की सभी अदालतों में इस कानून का दृढ़तापूर्वक पालन किया गया।’ अर्थात्, इस्लाम छोड़कर हिंदू या ईसाई बनना भी यहां चलता रहा था। स्वामी श्रद्धानंद और आर्य समाज ने दिल्ली से लाहौर तक हजारों मुसलमानों को हिंदू बनाया। इन में सभी के सभी परिवर्तन स्वैच्छिक थे। यह सब मुस्लिम समाज में स्वीकृत था।
मगर कुछ अरब-पलट मौलानाओं (आजाद, इलियास, गंगोही आदि) ने मुसलमानों को यहां की सदियों पुरानी परंपरा से तोड़कर हू-ब-हू अरबी इस्लामी चलन से जोड़ने का तबलीग आंदोलन शुरू किया। तभी अंग्रेजों पर दबाव डालकर उसे पुराने कानून को रद्द कराया गया। अंग्रेजों ने अपने हित में वह किया ताकि हिंदुओं और मुसलमानों की दूरी को और बढ़ाया जा सके। अत: आज यहां मुस्लिम स्त्रियों की जो दशा है, वह सदैव नहीं थी और यह फिर बदल सकती है। मुस्लिम स्त्रियां अब तीन तलाक, चार बीवी और हलाला वाली गंदी प्रथा के विरुद्ध खुद खड़ी हो रही हैं। अनेक मुस्लिम पुरुष भी अपनी स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के पक्ष में हैं। आखिर मुस्लिम लड़कियां किसी न किसी पुरुष की बेटी या बहन भी हैं। वे जानती हैं कि इस्लामी निकाह, तलाक के नियम मनमाने हैं।
हालिया वर्षों में यहां शाह बानो से सायरा बानो तक जितने मामले चर्चित हुए, वे अलग-अलग तरह के थे। मगर सब में एक समानता थी कि मुस्लिम स्त्री की अपनी इच्छा या मान-सम्मान गायब था! प्रत्येक स्त्री अपने शौहर या उलेमा द्वारा संपत्ति के टुकड़े की तरह तय की गई। किसी बीवी को रखने, बदलने या छोड़ने में इस वस्तु-भाव के सिवा कुछ न था। चूंकि इस्लामी निकाह के केंद्र में केवल पुरुष है, इसलिए उसके सुख, भोग तथा मुस्लिम संख्या-वृद्धि के अलावा कोई उद्देश्य वहां नहीं मिलता। कुरान में महिलाओं को पुरुषों की खेतियां कहा गया, ‘जिसे वह जैसे चाहें जोतें’ (2-223)। बीवियों के अलावा लौंडियां अतिरिक्त भोग्या हैं (4-24)। उसमें एक अध्याय ही है  ‘अल तलाक’ जहां पुरुषों द्वारा तलाक देना रोजमर्रा काम जैसा है। अध्याय  ‘अल-निसा’ में भी यही भाव है। जब चाहो एक बीवी छोड़ दूसरी ले आओ (4-20), केवल परित्यक्ता को दी गर्इं चीजें मत छीनना। हदीसें भी यही सब दुहराती हैं। मानो महिला संपत्ति हो जिसे इच्छानुसार लाया, बांटा, छोड़ा जा सकता था। किसी को उपहार में भी देने के लिए  महिला को तलाक दिया जाता था। मदीना-प्रवास के समय प्रोफेट के साथी अब्दुर्रहमान को साद ने मजहबी भाई बनाया। जब दोनों खाने बैठे तो मेजबान ने कहा, ‘मेरी दोनों बीवियों को देख लो, और जिसे पसंद करो, ले लो।’ उसी वक्त एक बीवी को तलाक देकर उपहार दे दिया गया। उन्हीं मध्ययुगीन कायदों को आज भी मुस्लिमों के लिए कानून बताया जाता है। निस्संदेह, सारे मुसलमान पुरुष अपनी स्त्रियों, बच्चों के प्रति वही निर्मम, संपत्तिवादी व्यवहार नहीं दिखाते। लेकिन इसका कारण उनकी अपनी मानवीय भावनाएं है। इसके विपरीत जो पुरुष हर हाल में इस्लामी कानून लागू करने की जिद रखते हैं, उनका रवैया अपने परिवार के प्रति वैसा ही राजनीतिक या मशीनी रहता है। ‘अरबी निकाह’ वाली लड़कियां उसी का एक उदाहरण हैं।     ल्ल    
 ‘घृणित और  दंडनीय अपराध है यह’

आॅल इंडिया महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर इस मामले को मानव अंग तस्करी जितना गंभीर मानती हंै। उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ से एक बातचीत में कहा कि जिस तरह से मानव अंगोें की तस्करी एक घृणित एवं दंडनीय कार्य है, उसी  तरह से यह भी घृणित और शर्मनाक कार्य है। जिन लोगों की काफी उम्र हो चुकी है, वे बाहर से आकर हैदराबाद और कुछ अन्य शहरों में गरीब घर के मुसलमानों को अपने जाल में फंसाते हैं। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि ‘उसकी लड़की का भला हो जाएगा। यह शेख बाहर से आया है मगर पैसे वाला है।’ गरीबी में जिंदगी गुजार रही लड़की भी यही सोच कर उम्रदराज आदमी से निकाह करने को तैयार हो जाती है।
 शाइस्ता बताती हैं, ‘‘मैंने कुछ समय पहले  एक  स्टिंग आॅपरेशन  कराया था  जिसमें इसी तरह का एक उम्रदराज आदमी कम उम्र की लड़की से निकाह कर रहा था। सबसे चौंकाने वाली बात यह सामने आई थी कि ये लोग निकाह करने के पहले ही तलाक के कागजों पर दस्तखत करा लेते हैं। इस मामले में मैंने निकाह कराने वाले काजी को जेल भी भिजवाया था।’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘ऐसा घृणित काम करने वाले लोग एक तरह से मानव तस्करी कर रहे हैं। वे गरीब घरों की लड़कियों को निकाह का झांसा देकर साथ ले जाते हंै और कुछ समय उनका शोषण करने के बाद उन्हें तलाक दे देते हैं। ऐसा निकाह करने वालों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। ये लोग भारत में आकर ऐसा इसलिए करते है क्योंकि इन्हें मालूम है कि यहां पर मुकदमे की सुनवाई के बाद सजा होती है, जिसमें काफी वक्त लग जाता है। ये लोग किसी इस्लामी मुल्क में पकड़ लिए जाते तो इन्हें चौराहे पर सजा-ए-मौत दे दी जाती है।’’ शाइस्ता अंबर ने इस बात को भी बलपूर्वक दोहराया कि जब सर्वोच्च न्यायालय तीन तलाक पर रोक लगा चुका है तो ऐसे में तीन तलाक पूरी तरह से रुक जाना चाहिए और केंद्र सरकार को तीन तलाक के मुद्दे पर जल्दी से जल्दी कानून बनाना चाहिए, जिससे ये काजी लोग निकाह कराने से पहले ही तलाक के कागज पर दस्तखत ना करवा पाएं। निकाह हो जाने के बाद किसी भी विवाहिता को तीन तलाक देकर नहीं छोड़ा जा सकता, उसे तलाक देने के लिए विधिक प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।     लखनऊ ब्यूरो

एक बर्बर चलन
टी सतीशन, केरल
पिछली कई शताब्दियों से केरल के मालाबार तटीय इलाकों में अरबी निकाह  एक बर्बर सामाजिक बुराई के रूप में मौजूद रहा है। संभवत: इसकी शुरुआत प्राचीन काल में समुद्री व्यापार के साथ हुई होगी जब जहाजों के जरिए भारतीय सामान और कीमती मसाले अरब देशों को निर्यात किए जाते थे और अरबों का केरल में आना-जाना शुरू हुआ होगा। व्यापार के सिलसिले में वे यहां महीनों ठहरते, कभी-कभी वर्षों। संभवत: इसी दौरान उन्होंने अरबी निकाह का अजीब चलन शुरू किया होगा जिसके तहत बूढ़े पुरुष 10 से 16 साल तक की आयु की  लड़कियों से शादी करने लगे। देखा जाए तो यह एक सुविधाभोगी शादी का चक्रव्यूह था, जिसे स्त्री को ‘भोग की वस्तु’ के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए रचा गया था।  
इस अमानवीय व्यवस्था में कथित दूल्हा एक सादे कागज पर लड़की से हस्ताक्षर करा लेता है जो बाद में तलाक याचिका के तौर पर पेश कर दिया जाता है। हालांकि तलाक देने के लिए किसी कागजी कार्रवाई की जरूरत नहीं, फिर भी यह सावधानी बरती जाती है जिससे कानूनी पचड़ों से बचा जा सके।
कीमत इस्लामी परंपरा के तहत मेहर (स्त्री धन) के नाम पर तय की जाती है और अरबी दूल्हे रूपी पुरुष को भारत में अपने प्रवास की अवधि तक शारीरिक तुष्टि के लिए एक असहाय लड़की मिल जाती है जिसके साथ वह मनमानी हैवानियत कर सकता है। पुराने दिनों में ऐसे निकाह के बाद  शौहर अपने सास-ससुर के साथ रहता था, लेकिन आज वह लड़की को अपनी सुविधा की जगह, जैसे रिसार्ट्स, आदि ले जाता है। 2013 में मलप्पुरम में एक मामला सामने आया जिसमें संयुक्त अरब अमीरात के एक 27 वर्षीय नागरिक ने मलप्पुरम जिले की 17 वर्षीया लड़की से शादी की, उसके साथ 10 दिन का हनीमून मनाया और वापस चला गया।
इस घटना में लड़की ने पुलिस में उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। पुलिस ने बाल विवाह निवारण अधिनियम और यौन उत्पीड़न से बच्चों की सुरक्षा के लिए बने यौन अपराध अधिनियम (पोस्कोे) 2012 के तहत नाबालिग लड़की के यौन शोषण का मामला दर्ज किया था। लड़की कोझिकोड के एक अनाथालय में रहती थी और संस्था के अधिकारियों के बहकावे और डराने-धमकाने के कारण निकाह के लिए तैयार हो गई थी। दूल्हा जसीम मोहम्मद अब्दुल करीम अरब निवासी अब्दुल्ला अल मोहम्मद और केरल की महिला का बेटा है। उसने अनाथ लड़की की तमाम आपत्तियों के बावजूद उससे शादी की और अरबी परंपरा के अनुसार मेहर के तौर पर उसे सोने के छह सिक्के थमा दिए। लड़की का आरोप था कि उसके लाख मना करने के बावजूद जसीम ने कोझिकोड, अलप्पुझा के कुमारकोम रिजार्ट और अन्य स्थानों पर उसके साथ जबरदस्ती की। पर्यटक वीजा पर भारत आया वह व्यक्ति वीजा की समय सीमा समाप्त होने पर अपने देश लौट गया।
लड़की ने बारहवीं की परीक्षा में ऊंचे अंक प्राप्त किए थे और एक बेहतरीन शैक्षिक कैरियर का सपना संजो रखा था। उसका आरोप था कि अनाथालय के अधिकारियों ने यह कहकर उसे निकाह के लिए मजबूर किया कि निकाह से उसे ही नहीं, बल्कि संस्थान को भी फायदा मिलेगा। अनाथालय के अधिकारियों पर आरोप था कि उन्होंने उसे झटपट शादी करने के लिए मजबूर कर दिया था, क्योंकि अरब से आए व्यक्ति का वीजा केवल एक माह के लिए ही वैध था। बाद में पता चला कि जसीम मोहम्मद ने शादी के समय अपनी राष्टÑीयता भी छिपा रखी थी। उसने शादी के प्रमाणपत्र के लिए अपनी मां के घर का पता दिया था। कहा जा रहा है कि इन सारी चालबाजियों में अनाथालय का बड़ा हाथ है। अब राज्य मानवाधिकार आयोग ने मामला दर्ज कर केरल के डीजी से रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा है।
जब लड़की को पता चला कि उसके साथ धोखा हुआ है तो वह अनाथालय गई थी, पर उससे कहा गया कि वह अपनी मां के पास वापस चली जाए। उसकी मां घर-घर जाकर महिलाओं के नाइटवियर बेचती है और उससे होने वाली आय से जीवन बसर करती है। इसी बीच निकाह कराने में मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति एक नई कहानी लेकर सामने आया कि तलाक के लिए आपसी रजामंदी की पूरी कोशिश की गई, फिर भी लड़की इस प्रकरण को पुलिस तक ले गई, क्योंकि मुआवजे के तौर पर मिल रही राशि उसे  कम लग रही थी। पर, यह आरोप सरासर झूठा था। आज केरल में मुस्लिम समुदायों द्वारा किए गए सुधारवादी प्रयासों और उनकी सामाजिक और शैक्षिक प्रगति से अरबी निकाह का चलन लगभग खत्म हो चुका है।
वी़ पी़ सुरह अरबी निकाह के अमानवीय चलन को खत्म करने की दिशा में उठाए जा रहे सुधारवादी कदमों में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के लिए निसा नामक गैर सरकारी संगठन के जरिए एक मंच बनाया है। निसा उर्दू में बच्चों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है। इस संगठन की स्थापना मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण का अधिकार देने के साथ स्त्री-पुरुष असमानता, बहुपत्नी विवाह, तीन तलाक, दहेज, घरेलू हिंसा, संपत्ति में समान अधिकार से वंचित रखने जैसी मुस्लिम सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए की गई है। सुरह के अनुसार अरबी निकाह के खिलाफ पूरी तत्परता से लड़ाई लड़नी होगी। उन्होंने कहा कि उनके प्रयासों से ही कोझिकोड के एक होटल से एक अरबी पुरुष को गिरफ्तार कर एक लड़की को अरबी निकाह के जाल से बचाया जा सका।
इन स्थितियों में सबसे जरूरी है कि सुधारों का आगाज मुस्लिम समाज के बीच हो। पीड़ितों को आगे आकर इसमें प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए,  क्योंकि पीड़ा के अनुभव से गुजर चुका व्यक्ति उसके विरुद्ध लड़ाई में सबसे सशक्त योगदान दे सकता है। सुरह को भी अपने समुदाय के इस कुरूप चलन को झेलना पड़ा था। इसलिए उनके मन में इस बुराई को दूर करने के हौसले जितने बुलंद हैं, कर्म  की धार भी उतनी ही तेज है।    ल्ल    

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