|
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के वक्त टीवी चैनलों ने एक स्टिंग ऑपरेशन में कुछ राजनीतिज्ञों को रक्षा सौदों के बदले पैसे लेते दिखाया था। पहली बार लोगों ने पत्रकारिता का यह रूप देखा व उस पर भरोसा कर लिया। जांच एजेंसियों व अदालतों ने बिना तकनीकी जांच के लोगों को दोषी मान लिया और सजा सुना दी गई। बाद में तहलका पत्रिका व उसके 'खोजी' संपादकों का जो हुआ, वह सभी ने देखा। यह भी लगभग स्पष्ट हो गया कि स्टिंग ऑपरेशन व कथित खुलासे फर्जी थे। उन लोगों को न्याय नहीं मिल सका, जिनका चरित्र हनन नए तरह की पत्रकारिता के जरिए किया गया। घटना के करीब 17 साल बाद स्पष्ट हो गया कि वह स्टिंग ऑपरेशन की नहीं, बल्कि सुपारी पत्रकारिता के युग की शुरुआत थी।
बीते हफ्ते रिपब्लिक और टाइम्स नाऊ ने दिखाया कि कैसे सोनिया गांधी ने 2004 में सत्ता में आते ही तहलका की फंडिंग में धांधली की जांच बंद करवा दी थी। इस बाबत सोनिया गांधी की चिट्ठी सामने आई है, जिसकी भाषा और उसके आसपास के घटनाक्रम से समझना ज्यादा मुश्किल नहीं कि वाजपेयी सरकार के विरुद्ध फर्जी स्टिंग के लिए तहलका को किसने सुपारी दी थी। एक बार फिर मोदी सरकार के विरुद्ध झूठी खबरों की झड़ी लगी हुई है। उस वक्त जो भूमिका तहलका की थी, अब वह द वायर निभा रहा है। इसमें उसे काफी हद तक इंडियन एक्सप्रेस व एनडीटीवी जैसे वामपंथी मीडिया समूहों की मदद मिल रही है। सभी आश्वस्त हैं कि उन्हें इस पत्रकारिता के लिए उचित इनाम जरूर मिलेगा। इंडियन एक्सप्रेस इस खेल का प्रमुख खिलाड़ी है। कभी साहसी पत्रकारिता के लिए ख्यात रहा अखबार अब खबरों को घुमाकर खास दल को फायदा पहुंचाने की कोशिशों तक सिमट गया है। बीते दिनों 'पैराडाइज' पेपर्स में इस अखबार ने कई भारतीयों के नाम प्रकाशित किए, पर पूरा मुद्दा भाजपा से जुड़े दो नेताओं पर रखा। हालांकि इसमें कांग्रेस नेता अशोक गहलोत, सचिन पायलट व पी. चिदंबरम के बेटे के नाम भी हैं। लेकिन अखबार ने बड़ी सफाई से पूरी रिपोर्ट भाजपा नेताओं तक समेट दी। वैसे सूची में जयंत सिन्हा का नहीं, बल्कि उस कंपनी का नाम है जहां वे नौकरी करते थे।
नोटबंदी के एक साल पूरे होने पर तमाम चैनलों ने विशेष कार्यक्रम दिखाए। अधिकांश में नोटबंदी की भयावह और नकारात्मक छवि पेश करने की कोशिश हुई। इस खबर से जुड़े कई संवाददाताओं ने माना कि उन्हें ऐसी जगहों पर भेजा गया, जिससे एकतरफा तस्वीर दिखाई जा सके। यह वैसा ही है, जैसा उत्तर प्रदेश चुनाव में मीडिया ने घोषित किया था कि राहुल गांधी-अखिलेश यादव के गठबंधन के बाद मुख्यमंत्री कौन बनने वाला है। गुजरात में राहुल अब भी वैसी ही बेसिर-पैर की बातें कर रहे हैं, जैसे उत्तर प्रदेश चुनावों के वक्त करते थे। पर मीडिया का एक बड़ा तबका बता रहा है कि उनमें रातों-रात बड़ा बदलाव हुआ है और वे न सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष, बल्कि प्रधानमंत्री बनने योग्य हो चुके हैं। हकीकत जो हो, इसी बहाने लोगों का मनोरंजन हो रहा है।
बीते हफ्ते तमिलनाडु में एक किसान परिवार द्वारा आत्मदाह की घटना पर कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट बाला को गिरफ्तार कर लिया गया। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर तमाशा करने वाली फौज ने इस पर चुप्पी साध ली। एक-दो अंग्रेजी अखबारों को छोड़ दें तो यह खबर प्रमुखता नहीं पा सकी। यह बताना मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिशों व रुकावटों के पीछे जवाहरलाल नेहरू की क्या भूमिका रही। संविधान लागू होने के कुछ माह के अंदर ही उन्होंने पहला संविधान संशोधन कर अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट दिया था।
अब बात 2015 में बंगाल के नदिया में नन के साथ बलात्कार पर आए फैसले की। मीडिया ने इस खबर को भी दबा दिया। शायद इसलिए कि वह खुद भी कठघरे में है। घटना के वक्त मीडिया के बड़े हिस्से ने बिना जांच के हिंदू संगठनों का नाम लिया था। इसे 'अल्पसंख्यकों पर हमला' बताकर सरकार और देश की छवि बिगाड़ने की कोशिश हुई थी। अदालत ने इस मामले में बांग्लादेशी नागरिक नजरुल इस्लाम को दोषी ठहराया है। सवाल यह है कि घटना पर गैरजिम्मेदार रिपोर्टिंग करने वाले अखबार व चैनल क्या कभी अपने दर्शकों और पाठकों से माफी मांगेंगे?
टिप्पणियाँ