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कांग्रेस अलगाववाद और जातिवाद के सहारे गुजरात का रण जीतने का जुगाड़ लगा रही है, तो भाजपा विकास के साथ गुजरातियों के दिल में उतर चुकी है। सर्वेक्षण बता रहे हैं कि मतदाता विकास के पाले में हैं
गुजरात से पाञ्चजन्य प्रतिनिधि
गुजरात में 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जातिवादी राजनीति के सहारे जीत हासिल की थी। अब वह 37 साल बाद एक बार फिर जातिवाद की बैसाखी पर टिकी आ रही है। हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर एवं जिग्नेश मेवानी— विभिन्न जातीय-वर्गों के प्रतिनिधि होने की हवा बनाने की कोशिश करते इन तीन नेताओं को साथ लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी एक नया समीकरण बनाने की असफल कोशिश में हैं। हार्दिक पटेल पाटीदार समुदाय से हैं। अल्पेश ठाकोर पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो वामपंथी रुझान के जिग्नेश मेवानी वंचित वर्ग से आते हैं। देखा जाए तो ये तीनों वर्ग मिलकर गुजरात में 60 प्रतिशत वोट बैंक बनाते हैं।
कांग्रेस यह मानकर चल रही है कि इन तीन युवाओं के पीछे उनका पूरा समाज खड़ा है। बड़ी चतुराई से इस बार हार्दिक, अल्पेश एवं जिग्नेश को मिलाकर बने ‘हज’ समीकरण से मुस्लिमों को बाहर रखा गया है। उसके बजाय राहुल गांधी को गुजरात के मंदिरों के दर्शन करवाए जा रहे हैं। कांग्रेस मानती है कि गुजरात का करीब 10 प्रतिशत मुस्लिम वोटबैंक उसकी झोली में है। उसे साथ लेने का दिखावा करके कांग्रेस हिंदुओं का ध्रुवीकरण नहीं होने देना चाहती।
दूसरी ओर भाजपा अपने विकास के सहारे मतदाताओं के बीच उतरी है। यही कारण है कि इन दिनों गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह पत्र बांटा जा रहा है, जिसमें उन्होंने बताया है कि भाजपा ने पिछले 22 साल में कितने कार्य किए हैं। इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और अन्य नेता भी विकास की राजनीति पर जोर दे रहे हैं। लोग भी मानते हैं कि भाजपा के राज में गुजरात में विकास के अनेक कार्य हुए हैं। इसलिए राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस का जातिवादी समीकरण उसका उद्धार नहीं कर पाएगा। देखने वाली बात है कि जिन लोगों को लेकर यह समीकरण बनाया गया है, वे एक-दूसरे के विपरीत ध्रुव माने जाते हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अल्पेश विधिवत् कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं और हार्दिक की कांग्रेस से बातचीत जारी है। लेकिन दोनों के समुदाय जानते हैं कि उनके हित आपस में टकराते हैं। कांग्रेस दोनों को एक साथ संतुष्ट नहीं कर सकती। दूसरी ओर जिग्नेश मेवानी भले कुछ भी कहें, लेकिन गुजरात का वंचित समुदाय मायावती या रामदास आठवले जैसा हस्तांतरित हो सकने वाला वोटबैंक नहीं है। इसलिए जिग्नेश के पीछे उनका पूरा समाज आंख मूंदकर चलने वाला नहीं है।
आंकड़े का खेल
गुजरात में पाटीदार अर्थात पटेल समुदाय लगभग 14 प्रतिशत है। इनमें 70 प्रतिशत लेउवा पटेल हैं, तो 30 प्रतिशत कड़वा। पिछले 22 वर्ष से भाजपा को सत्ता में बनाए रखने में यह वर्ग बड़ी भूमिका निभाता रहा है। पटेल बहुल विधानसभा सीटें ज्यादातर सौराष्टÑ एवं उत्तर गुजरात में हैं। यह पहला अवसर नहीं है जब हार्दिक पटेल के बहाने पूरे पटेल समुदाय का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जा रही है। यह प्रयास पहले भी होता रहा है। 2007 में भाजपा के ही नेता केशुभाई पटेल एवं गोवर्धन झड़फिया के नेतृत्व में भाजपा की ही एक अलग टीम तैयार करने से लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध कांग्रेस द्वारा एक पटेल उम्मीदवार देकर पटेल समुदाय को भाजपा से अलग करने के प्रयास किए गए। केशुभाई पटेल लेउवा पटेल समुदाय से आते हैं जिसकी संख्या पटेलों में 70 प्रतिशत है, जबकि हार्दिक पटेल कड़वा पटेल हैं। केशुभाई की छवि एक परिपक्व एवं ईमानदार नेता की रही है। गोवर्धन झड़फिया भी राज्य के गृह मंत्री रह चुके थे। उन्होंने 2002 से ही मोदी सरकार के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठा लिया था। केशुभाई पटेल एवं गोवर्धन झड़फिया, दोनों सौराष्टÑ से हैं, जिसे पटेलों का गढ़ माना जाता है। इन दोनों नेताओं ने 2007 में गुजरात की सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए। भाजपा में इतनी बड़ी फूट देख कांग्रेस का भी उत्साह बढ़ा। उसने इस विद्रोह का लाभ उठाने की गरज से मुख्यमंत्री मोदी के विरुद्ध मणिनगर विधानसभा सीट से तत्कालीन केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस राज्यमंत्री दिनशॉ पटेल को उम्मीदवार बना दिया। लेकिन केशु-गोवर्धन के विद्रोह एवं कांग्रेस द्वारा दिनशॉ पटेल जैसा कद्दावर उम्मीदवार देने के बावजूद परिणाम उलटे आए। 2002 में सौराष्टÑ-कच्छ की 58 सीटों में जहां 39 ही भाजपा को मिली थीं, वहीं 2007 में ये सीटें बढ़कर 47 हो गर्इं।
अन्य भाषा-भाषियों की भूमिका
गुजरात अपने निर्माणकाल से ही औद्योगिक राज्य रहा है। इसके कारण यहां लंबे समय से अन्य राज्यों से रोजगार की तलाश में लोग आते रहे हैं। खासतौर से 2001 में कच्छ में आए भीषण भूकंप के बाद नवनिर्माण की प्रक्रिया शुरू होने पर अन्य भाषा-भाषियों की आमद और बढ़ी। अब महाराष्टÑ से सटे वापी एवं उमरगांव से लेकर कच्छ तक अन्य भाषा-भाषियों, विशेषकर हिंदीभाषियों की संख्या अच्छी-खासी हो चुकी है। एक अनुमान के मुताबिक गुजरात की 6़.20 करोड़ की आबादी में अन्य भाषा-भाषी एक करोड़ से अधिक हैं। इनमें 60 प्रतिशत, यानी 55 से 60 लाख के करीब गुजरात के मतदाता बन चुके हैं। कुछ तो सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय हैं। वडोदरा से जीतने वाले राजेंद्र त्रिवेदी तो भाजपा सरकार में मंत्री भी हैं। मधु श्रीवास्तव भी लंबे समय से विधायक चुने जाते रहे हैं। वापी, वलसाड, भरुच, अंकलेश्वर, अमदाबाद एवं कच्छ में कई हिंदीभाषी उद्योगपति एवं व्यवसायी सामाजिक दृष्टि से काफी सशक्त हैं। महाराष्टÑ से लेकर गुजरात तक के अन्य भाषा-भाषी राजनीतिक रूप से केंद्र की सत्ता के साथ चलने के लिए जाने जाते हैं। मुंबई में भी कभी कांग्रेस की बड़ी ताकत रहा यह वर्ग अब भाजपा समर्थक हो चुका है। अब 80 प्रतिशत से ज्यादा अन्य भाषा-भाषी मतदाता भाजपा के साथ हैं। चूंकि यह वर्ग ज्यादातर नौकरीपेशा है, इसलिए जीएसटी के कारण आ रही कुछ दिक्कतों से भी यह लगभग अछूता है। कांग्रेस द्वारा एक साल पहले हुई नोटबंदी के कारण औद्योगिक क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोगों के बेरोजगार होने का तर्क दिया जा रहा है। लेकिन वापी में प्रमुख हिंदी-भाषी संस्था उत्तरभारतीय सेवा ट्रस्ट के अध्यक्ष राजनारायण तिवारी बताते हैं कि नोटबंदी की घोषणा के महीने भर के अंदर ही वापी नगरपालिका के चुनाव हुए थे जिसमें 44 में से 41 सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। इसी प्रकार अब जीएसटी का असर भी इस अन्य भाषा-भाषी वर्ग पर नहीं पड़ने वाला। ईमानदारी से काम करने वाले उद्योगपतियों और व्यवसायियों के लिए सरकार का यह कदम वरदान साबित हो सकता है।
गुजरात का मतदाता जातिवादी खेमे को पटखनी देने का मन बनाता दिख रहा है। कांग्रेस के युवराज की रैलियों से नदारद आम जनता, कोरे नारों का कांग्रेसी घोषणापत्र और आतंकवाद-अलगाववाद पर कांग्रेस की नरमाई प्रदेश के राष्टÑभक्त नागरिकों को रास नहीं आ रही है। वे केन्द्र में मोदी सरकार और प्रदेश में रूपाणी सरकार के ठोस प्रयासों और विकास कार्यों की तारीफ कर रहे हैं। सवाल गुजरात की अस्मिता का जो है।
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