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आर्थिक और व्यापार जगत के जानकार जानते हैं कि विश्व बैंक की ‘ईज आॅफ डूइंग बिजनेस’ रैंकिंग में भारत का 30 पायदान ऊपर आना मायने रखता है। राजनीति करने वाले इसमें भी मीन-मेख निकाल रहे हैं तो यह उनकी मजबूरी है, लेकिन भारत के कारोबार जगत का धीरे ही सही, पर ऊपर चढ़ना देश के लिए सुखद है
आलोक पुराणिक
आर्थिक विमर्श कई मामलों में कक्षा आठ की वाद-विवाद प्रतियोगिता की तरह होता जा रहा है। स्कूल-कॉलेज की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में एक मसले पर पक्ष या विपक्ष में बोलने का विकल्प रहता है। इन प्रतियोगिताओं में जो भी विकल्प चुना जाए, उसके पक्ष में धुआंधार तर्क जुटाकर सामने वाले पक्ष को खारिज करने का काम चलता है। पर सचाई यह है कि महत्वपूर्ण आर्थिक विषयों पर इस तरह की स्कूली प्रतियोगिता वाली सोच से काम नहीं चल सकता। हर आर्थिक गतिविधि के कई पक्ष होते हैं, उन्हें पूरी तरह से समझने और फिर उन पर टिप्पणी देने की जरूरत होती है। वाद-विवाद प्रतियोगिता जीतना बहुत मुश्किल काम नहीं होता, पर ठोस आर्थिक बहुआयामी लड़ाई इतने स्तर की होती है कि उसमें हर जीत में भी कुछ समस्याएं रहती हैं और हर हार का उजला पक्ष होता है।
इस संदर्भ में देखें, तो हाल में विश्व बैंक की कारोबारी आसानी (ईज आॅफ बिजनेस) पर आई रपट पर जो बहस चल रही है, वह लगभग वाद-विवाद प्रतियोगिता जैसी दिखाई पड़ती है। विश्व बैंक की 2018 की रैंकिंग में भारत की रंैकिंग में तीस बिंदुओं का इजाफा हुआ है। विश्व के करीब 200 देशों में से भारत का कारोबार करने के लिए आसान देश के नाते सौवां नंबर है। 2017 की रैंकिंग में भारत का नंबर 130 था। 30 बिंदुओं की उछाल छोटी बात नहीं है। लिहाजा उन वजहों की तलाश और उन पर विमर्श होना चाहिए कि कैसे शीर्ष 50 में ही नहीं, शीर्ष 5 में आने की कोशिशें की जाएं। पर कांग्रेस ने सुधार की इस रपट को ‘फिक्स’ बताया। बदले में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि ‘फिक्स’ तो राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष होना है। इस वाद-विवाद में वे मसले ज्यादा चर्चा में नहीं आए, जिन पर सार्थक संवाद होना चाहिए था। उस सार्थक संवाद के जरिये ही भविष्य की बेहतरी का रास्ता खुलने की उम्मीद है। यहां यह समझना जरूरी है कि किसी भी देशी या विदेशी संगठन की रपट अंतिम तौर पर ब्रह्म-वाक्य नहीं होती। पर उसमें से कुछ संकेत और ज्ञान ग्रहण किया जाना चाहिए।
भारत में कई स्तरों पर परिवर्तन हो रहे हैं, जैसे ‘ईज आॅफ डूइंग बिजनेस’(कारोबार करने में आसानी) से स्किल इंडिया तक । मेक इन इंडिया से कारोबारियों को मदद मिल रही है, जिसका असर अर्थव्यवस्था में दिखने भी लगा है। अब भारत पूरी तरह बदल रहा है।
—नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
अंतरराष्ट्रीय स्तर की कई एजेंसियां भारत की बदलती अर्थव्यवस्था के प्रति सकारात्मक रपटें दे रही हैं। धीरे-धीरे चीजें बदलनी शुरू हो चुकी हैं। आगे इसका असर और बढ़ता दिखेगा।
— अरुण जेटली, केन्द्रीय वित्तमंत्री
विश्व बैंक के मुताबिक कारोबारी आसानी मूलत: दस कारकों पर निर्भर होती है। ये इस प्रकार हैं— नया कारोबार शुरू करने की आसानी, निर्माण का परमिट मिलने में आसानी, बिजली मिलने में आसानी, संपत्ति के पंजीकरण की आसानी, उधार मिलने में आसानी, छोटे निवेशकों का हित संरक्षण, कर भुगतान में आसानी, सीमाओं के पार कारोबार करने में आसानी, अनुबंध को लागू करने में आसानी और दिवाला प्रक्रिया में आसानी। आइए, इन कुछ कारकों पर बारीक नजर डाली जाए।
नये कारोबार
गौरतलब यह है कि नये कारोबार को शुरू करने में आसानी के गहरे निहितार्थ हैं। अब जबकि बड़ी कंपनियां वैसे रोजगार पैदा नहीं कर पा रही हैं, जैसे कुछ साल पहले कर पाती थीं, तब बड़ी संख्या में रोजगार कारोबार से ही आने हैं। यानी कारोबार को जितना आसानी से शुरू किया जाना संभव होगा, उतना ही यह देश के नौजवानों, कारोबार और अर्थव्यवस्था के हित में होगा। यूं विश्व बैंक की रपट कहती है कि तमाम आवेदनों को मिलाने की प्रक्रिया शुरू की गई है यानी नया कारोबार शुरू करना आसान हुआ। पर आंकड़े बताते हैं कि 2017 में नये कारोबार को शुरू करने में आसानी की रैंकिंग 2017 की रपट में 155 थी। यह 2018 में 156 हो गई है यानी नये कारोबार को शुरू करने के मामले में स्थिति बेहतर नहीं हुई है, बल्कि तुलनात्मक स्तर पर पिछले साल के मुकाबले थोड़ी मुश्किल हुई है। इस पर गौर किये जाने की जरूरत है, क्योंकि कारोबार करने में कुल मिलाकर आसानी हुई है, यह अच्छी बात है। पर नए कारोबार को शुरू करने भी आसानी होनी चाहिए यानी जो सौ नंबर की रैकिंग कुल कारोबारी आसानी की है, वही नए कारोबार को शुरू करने के मामले में आए, तो उन नौजवानों के लिए बेहतर स्थिति बनेगी, जो पढ़ाई के बाद अब नौकरी का नहीं, कारोबार का ख्वाब देखते हैं।
नया कारोबार शुरू करना आज कई नौजवानों के दिमाग पर हावी है। उन्हें अपना भविष्य नौकरी में नजर नहीं आ रहा है। उन्हें विकसित होती अर्थव्यवस्था में नए-नए काम-धंधे सूझ रहे हैं। आॅनलाइन कोचिंग देने से लेकर आॅनलाइन टिफिन सर्विस खोलने तक के काम हाल के वक्त में देखे गए हैं।
उधार मिलना हुआ सुगम
उधार मिलने में बहुत महत्वपूर्ण और जबरदस्त सुधार हुआ है। कारोबार करने के लिए पूंजी की दरकार होती है जो आसानी से नहीं मिलती। और बेहतरीन नये विचार भी तब व्यर्थ होते हैं अगर उन्हें साकार करने के लिए पूंजी उपलब्ध ना हो। रपट 2017 के मुताबिक कर्ज मिलने में आसानी के मामले में भारत की रैंकिंग 44 थी, 2018 रपट के मुताबिक यह रैंकिंग 29 हो गई। यानी पहले के मुकाबले उधार मिलना आसान हो गया है। कारोबारियों को संसाधनों का संकट नहीं है। अगर किसी कारोबारी के पास विचार है और उसमें उसे जमीन पर उतारने की क्षमता है, तो उसे पैसे देने के लिए लोग, संस्थान तैयार हैं। पूंजी की अनुपलब्धता अब नए कारोबारी के लिए भी उतनी समस्या नहीं है, जितनी यह पांच-सात साल पहले हुआ करती थी। उधार प्राप्ति में आसानी बड़ी उपलब्धि है।
छोटे निवेशकों को संरक्षण
यह बहुत महत्वपूर्ण मसला है। कॉर्पोरेट सेक्टर को नयी पूंजी बराबर मिलती रहे, इसके लिए जरूरी है कि छोटे निवेशकों के हित सुरक्षित रहें। तब ही वे नई कंपनियों में, नयी परियोजनाओं में धन लगाएंगे। छोटे निवेशकों के संरक्षण के मामले में 2017 रपट में रैंकिंग 13 थी, इसमें जबरदस्त सुधार हुआ है। 2018 रपट में यह रैंकिंग बेहतर होकर 4 पर आ गई है। यानी छोटे निवेशकों के हितों के संरक्षण के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की शीर्ष 5 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। यह छोटी बात नहीं है। छोटे निवेशकों के हित संरक्षण से ही भविष्य में पूंजी बाजार में कंपनियों की संसाधन उगाही का रास्ता प्रशस्त किया जा सकता है। छोटा निवेशक अगर बाजार से नाराज होकर चला जाए, तो फिर संसाधन उगाही का काम बहुत मुश्किल हो जाता है। हाल के महीनों में तमाम कंपनियों ने शेयर जारी करके पूंजी बाजार से भरपूर उगाही की है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है कि छोटे निवेशक को एक न्यूनतम भरोसा है कि बाजार में उसके साथ ठगी नहीं होगी और उसके संरक्षण की न्यूनतम व्यवस्थाएं सरकार ने, संस्थानों ने की होंगी।
अनुबंधों में अब सहूलियत
कारोबार भरोसे पर ही नहीं, कानूनी लिखित समझौतों पर चलते हैं। कानूनी लिखित समझौतों को लागू करवाना एक दूसरा मसला है। देखा जा सकता है कि देश में मैकडोनाल्ड बर्गर की शृंखला का विवाद चल रहा है। इस चक्कर में इसकी कई दुकानें बंद हो गर्इं। मामला कानूनी प्रक्रिया में जाता है, तो सबको भारी नुकसान होता है। कर्मचारियों का, कारोबार का और ग्राहकों का भी। अनुबंध लागू कराने में आसानी की रैकिंग में भारत 2017 रपट के मुताबिक 172 पर था, 2018 रपट के हिसाब से यह 164 नंबर पर आया है। यानी अपेक्षाकृत सुधार हुआ है। पर अभी सफर लंबा है, बहुत दूर तक जाना है। इस मामले में भारत 100 की रैंकिंग हासिल नहीं कर पाया है। अगर विदेशी निवेश को तेजी से आमंत्रित करना है, तो इस रैंकिंग में बहुत सुधार होना चाहिए। इस रैंकिंग को 100 के उस पार या 50 के उस पार जाना चाहिए। कई विदेशी निवेशक भारतीय बाजारों के आकर्षण के बावजूद यहां के कानूनी पचड़ों से घबराते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में लगातार और तेज सुधार जरूरी है। इस क्षेत्र में सुधार सिर्फ सरकार के हाथ में नहीं है, कानूनी व्यवस्था से जुड़े कई मसलों पर भी व्यापक चर्चा होनी चाहिए। कुल मिलाकर स्थिति को यहां सुधरना ही चाहिए।
दिवाला प्रक्रिया हुई आसान
नया दिवालिया कानून आने से दिवाला प्रक्रिया में बेहतरी आई है। कई कंपनियां और उनके ‘प्रमोटर’ यह माने बैठे थे कि वे चाहे जो झोल कर लें, उनका कुछ नहीं हो सकता। पर नए दिवालिया कानून के तहत उन्हें भी महसूस कराया जा रहा है कि अगर वे धंधा करने में समर्थ नहीं हैं, तो धंधा बेचकर आगे निकलें। धंधा बिकवाने का काम पहले बहुत मुश्किल था, अब इसे जल्दी और आसान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई है। दिवाला प्रक्रिया के मामले में पहले भारत की रैंकिंग 2017 की रपट में 136 थी, 2018 की रपट में यह अब 103 हो गई है। यानी सुधार दर्ज किया है। बेहतरीन अर्थव्यवस्था वही होती है जिसमें धंधा शुरू करना और धंधा बंद करना दोनों आसान हों ताकि विफल धंधे के संसाधन मुक्त होकर किसी और काम में लग सकें एवं पूंजी अवरुद्ध होने से बच सके।
दुकानें उनकी भी बिक रही हैं
इस देश ने अब तक निजी कारोबारियों को दिवालिया होता देखा-सुना है। पर कंपनियों के दिवालिया होने की बातें हाल में सुनाई दे रही हैं। तकनीकी तौर पर कंपनियों का दायित्व सीमित होता है और तकनीकी तौर पर उनके ‘प्रमोटर’ सारे झोल करके भी पूरे मजे से जीवनयापन कर सकते हैं, नए धंधे खोलकर उनमें नए सिरे से रकम डुबोने के इंतजाम कर सकते हैं। तमाम कंपनियों के ‘प्रमोटर’ आश्वस्त रहते थे कि कानूनी प्रक्रियाएं इतनी लंबी और जटिल हैं कि कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। वाद लंबे चलेंगे। उनका निकम्मापन भी लगातार चलेगा। पर हाल के कुछ महीनों में यह बदला है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय को भी श्रेय देना पड़ेगा। नए दिवाला प्रक्रिया कानून के हिसाब से विफल कंपनियों को अपनी कंपनियों की संपत्तियां बेचकर निकलना पड़ेगा। पैसे जुटाने के लिए उन्हें नये खरीदारों के हवाले करना पड़ेगा। यह संभव नहीं होगा कि आप खुद भी काम ना करो, और संपत्तियों पर कुंडली मारकर बैठे रहो। अनिल अंबानी के रिलायंस समूह, जे.पी. गौड़ के जे. पी. समूह के अलावा और भी कंपनियों पर दबाव है कि अगर ठीक कारोबार नहीं कर पा रहे हो, तो धंधा बेचो, जिनसे रकम ली है, उन्हें चुकाओ और आगे बढ़ो।
पहले ऐसे नहीं होता था। कारोबार बंद करना कानूनी तौर पर बहुत मुश्किल काम होता था। दरअसल कारोबार तकनीकी तौर पर बंद होता ही नहीं था। वह डूब जाता था और साथ में डूब जाते थे तमाम बैंकों के तमाम कर्ज। अब नये कानून के तहत यह प्रक्रिया तेज कर दी गई है। इससे कंपनियों का बंद किया जाना आसान हुआ है। यानी काहिली में सिर्फ छोटा कारोबारी ही दिवालिया नहीं होगा। अब बड़े-बड़ों की दुकान भी बिकेगी अगर वह अपना कारोबार ठीक तरीके से नहीं चला पा रहे हैं। यह स्थिति अर्थव्यवस्था को बेहतरी की ओर लेकर जाएगी। संसाधन मुक्त होंगे, निकम्मे कारोबारी धंधे से बाहर होंगे, नयों का रास्ता प्रशस्त करेंगे।
बिजली के मसले
काम-धंधे बिना बिजली के नहीं चल सकते
बिजली के मसले पर विश्व बैंक की रपट से दो किस्म के आंकड़े मिलते हैं। 2018 की रपट के मुताबिक बिजली मिलने की आसानी के मामले में भारत की रैकिंग 29 है। कुल कारोबारी आसानी की रैंकिंग 100, तो इस नजर से बिजली मिलने में आसानी की रैकिंग अच्छी है। पर देखने की बात यह है कि रपट 2016 और रपट 2017 की तुलना करें तो रपट 2018 में बिजली मिलने में आसानी तो हुई, पर यह अपेक्षा से अब भी थोड़ी कम है। इस आयाम को ध्यान से देखना जरूरी है। बिजली मिलना लगातार आसान होना चाहिए। बिजली राज्य सरकारों का मामला है। इसलिए इस क्षेत्र में राज्य सरकारों को लगातार काम करना पड़ेगा। बिजली की उपलब्धता के बगैर बाकी सारे कारोबारी सुधार बेकार हैं। उन राज्यों में ही ज्यादा उद्योग धंधे जायेंगे, जहां बिजली की सिर्फ सहज उपलब्धता ही नहीं, सस्ती उपलब्धता भी होगी। बिजली मिलने में आसानी की रैंकिंग में सुधार होते जाना उत्पादन और विकास से सीधे जुड़ता है।
निर्माण परमिट में सुधार
आॅनलाइन होने के परिणाम दिखाई दे रहे हैं। विश्व बैंक की रपट बताती है कि दिल्ली और वृहन मुंबई के नगर निगम संस्थानों ने निर्माण से जुड़ी इजाजत लेने के काम को आॅनलाइन कर दिया है। इसकी वजह से तमाम प्रक्रियागत काम आसान हो गए हैं। यह रैंकिंग में दिखाई पड़ रहा है, 2017 की रपट में निर्माण परमिट लेने के मामले में कारोबारी आसानी की रैंकिंग 185 पर थी, जो सुधरकर 181 पर आई है। पर इसे भी सौ नंबर के उस पार होना चाहिए यानी और ज्यादा आसान होना चाहिए। गौरतलब है कि आॅनलाइन कामकाज करने के मामले में हाल के महीनों में बहुत काम हुआ है, पर उनकी चर्चा और ज्ञान बहुत ज्यादा नहीं है। नगर निगम संस्थानों का नाम ध्यान आते ही परंपरागत काहिली और भ्रष्टाचार दिमाग में आता है। अब नगर निगमों से काम निकलवाना आसान हो गया है, इस बात का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। तमाम प्रक्रियाओं के वीडियो बनाकर यू ट्यूब पर डाले जाने चाहिए। आॅनलाइन हो गया है, इतना बताना भर काफी नहीं है। एक यू ट्यूब वीडियो डाला जाए, जो बताए कि एक के बाद एक ऐसे स्क्रीन खुलेगी कंप्यूटर पर और उसमें यह यह डाटा भरना होगा। आसान सिर्फ करना काफी नहीं है, यह हो गया है, यह जनता को बताया जाना भी जरूरी है। विकास सिर्फ हो ही नहीं जाना चाहिए, जनता को उसकी जानकारी हर माध्यम से पहुंचनी चाहिए। खास तौर पर बेहतर होती आॅनलाइन व्यवस्थाओं की जानकारियां जन-सामान्य तक पहुंचनी चाहिए, क्योंकि आॅनलाइन व्यवस्थाओं में बेहतरी सिर्फ सुविधाओं का मामला नहीं है, इससे एक हद तक भ्रष्टाचार दूर करने में भी मदद मिलती है।
संपत्ति पंजीकरण सरल
संपत्ति पंजीकरण में आसानी मिलना आसान नहीं है। इसकी रैंकिंग 2017 की रपट के मुताबिक 138 थी, यह 2018 की रपट के मुताबिक 154 हो गई है। यानी संपत्ति के पंजीकरण का काम अपेक्षाकृत मुश्किल हुआ है। पंजीकरण के दफ्तरों की हकीकत जानने के लिए विश्व बैंक का सहारा लेने की जरूरत नहीं है। वहां भारी सुधार की जरूरत है, यह बात विश्व बैंक की रपट के बगैर भी समझी जा सकती है। संपत्ति पंजीकरण की यह प्रक्रिया अभी पूरे तौर पर आॅनलाइन नहीं है। इसके दफ्तरों में कामकाज का अंदाज भी खासा गैर-पेशेवराना है। यहां सुधार बहुत जरूरी है। देशी या विदेशी निवेश जो भी होता है, उसके लिए फैक्ट्री, प्लांट वगैरह का पंजीकरण जरूरी होता है। यहां सुधार करना जरूरी है और यह सुधार राज्य सरकारों के स्तर पर होना है। इस संबंध में यह होना चाहिए कि भारत के राज्यों की रैंकिंग अलग से बनायी जाए, जिसमें पता लगाया जाए कि सबसे बेहतरीन संपत्ति पंजीकरण व्यवस्थाएं किस राज्य में हैं। उस राज्य को मॉडल बनाकर पेश किया जाये।
आयात-निर्यात में आसानी
विश्व बैंक ने आयात-निर्यात की प्रक्रियाओं में हुई बेहतरी की तारीफ की है। इस संबंध में नयी व्यवस्थाएं भी आई हैं। पर आंकड़े यह बताते हैं कि इस संबंध में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 2017 रपट में आयात-निर्यात की आसानी के मामले में भारत की रैंकिंग इस बार हल्की-सी ढलकी है। स्थिति में अपेक्षित सुधार तो नहीं हुआ, पर प्रयासों को देखकर लगता है कि जल्दी ही आयात-निर्यात के आंकड़े और उत्साहित करने वाले होंगे। इस संबंध में महत्वपूर्ण प्रयास किये जाने चाहिए। जब भारत अपने निर्यात को लगातार बेहतर करने के लिए जूझ रहा है, तो इस रैंकिंग में सुधार होगा ही। इस मामले में रैंकिंग शीर्ष 50 में या शीर्ष 5 में होनी चाहिए।
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