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पाठकों की पसंद के लेखकों में डॉ. सीतेश आलोक का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। इनके द्वारा लिखे मौलिक लेख पाठक-वर्ग के मानस पटल पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं। विभिन्न समसामयिक विषयों पर लेख लिखने में इन्हें महारत हासिल है। वे समाज में फैली विसंगितयों पर बड़ी बेबाक शैली में अपनी बात रखते हैं। किसी भी विषय में फैले कथ्य को ये सरल व सहज भाषा में लिखकर पाठक के हृदय में उतर जाते हैं। इसलिए डॉ. सीतेश आलोक के लेख लंबे समय से देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में ससम्मान प्रकाशित होते रहे हैं। उनका हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान माना जाता है। उनके विभिन्न विषयों पर लिखे लेखों का एक सुंदर संग्रह पुस्तक-‘चलती चक्की’-के रूप में सामने आया है।
पुस्तक का नाम : चलती चक्की
लेखक : सीतेश आलोक
मूल्य : रु. 450
पृष्ठ : 250
प्रकाशक : मेधा बुक्स
एक्स-11, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
तीस लेखों के इस संग्रह में उन्होंने अलग-अलग विषयों पर अपनी लेखनी का जादू बिखेरा है। लेखों में उन्होंने केन्द्रीय भावों का निर्वाह अन्त तक किया है। लेखों का चयन भी बड़ी संजीदगी और वक्त की जरूरत को ध्यान में रखकर किया गया है। विद्वान लेखक ने अपने आत्मकथ्य-‘दो पाटों के बीच में….’ प्रसंगवश लिखा है-‘‘मन में जब कभी कुछ घुमड़ा’ या बुद्धि को, चेतना को, जब किसी बात ने उद्वेलित किया, विचलित किया…., उसे कह डालने के लिए विवश किया तब-तब लिखने की प्रक्रिया का जन्म होता रहा।’’ किसी भी विषय में गहराई तक पहुंचकर ही उस पर मंथन-चिंतन करके लेखों को लिखना लेखक की पहचान है। इस विषय में लेखक ने अपनी लेखनी के बारे में सत्य उजागर करते हुए लिखा है-‘‘मन को उद्वेलित करने वाले विषय कभी तो मन को मथते रहे…सोचने, समझने और विषय-वस्तु की जड़ तक पहुंचने के लिए बरसों भटकाते रहे और कभी…कुछ ही समय में उठकर कुछ कर बैठने के लिए प्रेरित भी करते रहे।’’ स्पष्ट है, लेखक ने अपने लेखों में कभी भी दुराग्रह का साथ नहीं दिया।
लगभग सभी लेख प्राय: शोधपरक हैं या फिर अनुभवजन्य आधार पर लिखे गए हैं। अपने पहले देवनागरी से संबोधित लेख में लेखक ने देवनागरी लिपि का महत्व व जरूरत की चर्चा की है। उसने ‘हिन्दी पर प्रहार’ लेख में राजभाषा की वर्तमान सरकारी दुर्गति को स्पष्ट किया है एवं हिन्दी भाषा के प्रति सरकार व उसके निकायों की उपेक्षा दर्शाई है।
लेखक ने अपनी लेखन कला के बारे में लिखा है कि कुछ अनुशासित स्वभाव के लेखक अपनी चयनित विधा में ही लिखने की प्रतिबद्धता का पालन करते हैं, लेकिन इस कल्पित चार दीवारी में वे खुद कभी भी बंधकर नहीं रह पाए। इसलिए उन्होंने अपनी लेखनी का प्रयोग उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, लेख अथवा संस्मरण यानी कह सकते हैं कि कमोबेश साहित्य की प्रत्येक विधा में लिखने में किया है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि हम लोग गरीबी, महंगाई, दहेज, बेईमानी, सामाजिक विकृतियों के लिए कई दशकों से सरकार को तो दोष दे रहे हैं, परन्तु अपने भीतर झांककर नहीं देखते, इन सबके लिए हम कितने जिम्मेदार हैं, कभी नहीं सोचते। इन दोषों में जो स्वयं की प्रतिभागिता समझते हैं, वास्तव में ऐसे लोग न के बराबर हैं। इसीलिए इस श्रेणी में आने वाले लोगों का वर्चस्व न्यून होने से इनको प्रोत्साहन नहीं मिलता।
अपने देश की सचाई को व्यक्त करते हुए लेखक ने लिखा है, ‘‘1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश ने आर्थिक प्रगति की है, देश में उल्लेखनीय औद्योगिक विकास भी हुआ है किन्तु आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएं आज भी संभवत: उतनी ही गंभीर हैं जितनी कि 1947 से पूर्व थीं। अन्तर मूलरूप में यह है कि गुलामी के दिनों में हमें विदेशी लूट रहे थे और उनके जाते ही हमारे कुछ देशवासियों ने ही हमें लूटना सीख लिया। देश में विश्व स्तर के अनेक धन-कुबेर हैं, किन्तु देश की एक तिहाई जनता आज भी भुखमरी से जूझ रही है।
लगभग पचास वर्षों से देश की सभी राजनीतिक पार्टियां ‘गरीबी दूर करने’ का सपना दिखाकर सरकार बनाती रही हैं।’’ लेखक के अनुसार उपर्युक्त दोष किसी भी देश के विकास में रोड़ा हैं। वास्तव में अपने देश को आर्थिक विकास की योजनाएं तो मिलीं किन्तु उसका खोया हुआ प्राचीन आत्म-सम्मान नहीं मिला, जो संस्कारित राष्ट्र बनाने के लिए अपेक्षित था। देश की बागडोर स्वार्थी हाथों में पड़ने से आर्थिक विकास का फल गिन-चुने लोग मिल-बांटकर खाते रहे। लोगों के मन में स्वार्थ और धन-लोलुपता की भावना बढ़ती रही। वर्तमान में पश्चिमी प्रभाव से आहत मन होकर लेखक ने लिखा है कि ‘‘कभी-कभी तो यह लगता है जैसे हम आज गुलामी के दिनों की अपेक्षा कहीं अधिक पाश्चात्य संस्कृति के गुलाम हैं। वह चाहे पश्चिमी भाषा हो, परिधान हों, वेलेन्टाइन डे हो या विचारधारा में नारीवाद, हम सभी कुछ आंखें मूंदकर अपनाते जा रहे हैं।’’ इस तरह के बहुत से रोचक विश्लेषण पुस्तक ‘चलती चक्की’ में मिलते हैं।
पुस्तक के आखिरी अध्याय ‘प्रजातंत्र की राजनीति’ में लेखक ने भारतीय राजनीति की व्याधियों पर चोट करते हुए अपना निष्कर्ष दिया है-‘‘जब तक हमारा संविधान चुनी हुई सरकार में संसद को सुचारु रूप से काम करने की गारंटी नहीं देता तब तक प्रजातंत्र मात्र एक छलावा है।’’ वास्तव में यह पुस्तक ‘गागर में सागर’ के समान है। ल्ल आचार्य अनमोल
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