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किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर बनी रहे उसके लिए कई कारकों का बेहतर तालमेल से चलना जरूरी होता है। भारत में वर्तमान सरकार को विरासत में जिस तरह का भ्रष्टाचार से युक्त तंत्र और कर्जों में डूबी अर्थव्यवस्था मिली थी उसे कालेधन की समस्या ने दोगुना कर दिया था। सरकार ने हालात सुधारने के लिए नोटबंदी और जीएसटी के जैसे कदम उठाए। अब वक्त है उन प्रयासों के विश्लेषण का
आलोक पुराणिक
ऊर्थशास्त्र बहुत ही दिलचस्प, जटिल और भ्रामक किस्म का ज्ञान-विज्ञान है। इसमें अगर भरपूर राजनीति का छौंक लगा दिया जाए, तो कुछ भी साबित किया जा सकता है। यशवंत सिन्हा तब वित्त मंत्री थे, जब भारत के इतिहास में पहली बार (और दुआ करें कि आखिरी बार ही हो ऐसा) देश के सोने को बैंक आॅफ इंग्लैंड में गिरवी रखा गया था। उन पर यह आरोप मढ़ना तथ्यगत तौर पर एकदम सही है कि देश का सोना उन्होंने गिरवी रखवाया। ऐसे वित्त मंत्री थे सिन्हा जी। पर, अर्थव्यस्था एक घटना से नहीं, घटनाक्रम से चलती है। इस आरोप पर सिन्हा का जवाब होगा कि आर्थिक बदहाली उन्हें विरासत में मिली थी, उनके पास कोई चारा नहीं था सिवाए सोने को गिरवी रखने के। अर्थव्यवस्था सुपरमैन होकर नहीं चल सकती। वह एक प्रक्रिया के तहत चलती है और इसके लिए सिर्फ वित्त मंत्री जिम्मेदार नहीं होता। हां, वह जिम्मेदार होता है, उन प्रतिक्रियाओं के लिए जो उन घटनाक्रमों के जवाब में वित्त मंत्री दिखाते हैं। यशवंत सिन्हा ने मोटे तौर पर अर्थव्यवस्था के बारे में जो कहा है, उसका आशय यह है कि ‘रोजगार की हालत चौपट हो चुकी है। नोटबंदी और जीएसटी ने हालत बहुत खराब कर दी है।’ उनका आशय यह है कि ‘भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट की ओर बढ़ रही है।’ लेकिन इस संकट का उपाय क्या है, यह यशवंत सिन्हा नहीं बताते। जीएसटी और नोटबंदी अगर ना होती, तो क्या अर्थव्यवस्था 8 या 9 प्रतिशत की रफ्तार से विकास कर रही होती? इस सवाल का साफ जवाब है-नहीं।
निर्यात की दिक्कत
निर्यात समस्या में हंै, वह इसलिए कि वैश्विक मांग में समस्या है। साथ में परंपरागत निर्यात के मामले में भारत की वैसी मजबूती नहीं रही है, जैसी अतीत में हुआ करती थी। निर्यात अगर मजबूती से बढ़ रहा होता, तो देश की सकल घरेलू उत्पाद दर 7 से 8 प्रतिशत पर बहुत आराम से विकसित हो रही होती है। पर निर्यात की हालत बेहद खराब है। समूचा विश्व, खासकर विकसित विश्व मंदी के दौर से गुजर रहा है। वहां मांग नहीं है, तो माल बेचा कैसा जाय्एगा। कई बार माल सिर्फ इसलिए नहीं बिकता कि वह सस्ता और बेहतरीन है, कई बार उसके ना बिकने की वजह यह होती है कि खरीदार उसे लेने के लिए तैयार ही नहीं है, किसी भी भाव पर।
आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 में एक पूरा अध्याय जूतों और कपड़ों पर है। इन क्षेत्रों में भारत को बढ़त बनानी होगी। इन क्षेत्रों में सस्ता और बेहतर उत्पादन करना होगा ताकि उनका निर्यात संभव हो सके। पर यह काम एकाध साल का नहीं है। कई सालों की प्रक्रिया है। निर्यात में जब तक शानदार बढ़ोतरी नहीं होगी, अर्थव्यवस्था की विकास दर का 6.5 प्रतिशत सालाना से ऊपर जाना मुश्किल है। अभी तो 6 प्रतिशत का आंकड़ा हासिल करना भी आसान नहीं लग रहा है।
नोटबंदी से आया बदलाव
यशवंत सिन्हा नोटबंदी पर बहुत बुरी तरह बरसे हैं। यह एक ऐसा फैसला है, जिसके पक्ष और विपक्ष में अनगिनत बहसें हुई हैं, पर अब कुछ ठोस आंकड़े भी सामने हैं। सबसे पहले नोटबंदी के संदर्भ को समझने के लिए यह आवश्यक है कि यह फैसला ऐसा फैसला था, जिसके परिणामों के अध्ययन के लिए ऐतिहासिक उदाहरण उपलब्ध नहीं थे। यानी कोई भी इसे करता, उसे जोखिम तो लेना ही पड़ता। अब जोखिम लेने के लिए सवाल उठता है कि जोखिम आखिर लिया क्यों जाए? इसमें आखिर मिलना क्या है? नोटबंदी से बड़ी उम्मीद यह थी कि करीब तीन लाख करोड़ रुपये का कालाधन रद्द हो जाएगा। ऐसा नहीं हुआ। सारा काला धन तंत्र में आ गया यानी सारा का सारा धन वापस जमा हो गया। गौरतलब है कि इस तरह के आकलन में नेता ही नहीं, बैंकिंग विशेषज्ञ तक विफल हुए। कई विशेषज्ञ कह रहे थे कि कालेधन वाले अपने बड़े नोटों को वापस बैंकों में जमा नहीं करवाएंगे, इसलिए वे नोट रद्द हो जाएंगे यानी काला धन इन रद्द नोटों की शक्ल में रद्द हो जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ। यानी काले धन की वापसी के उद्देश्य पर अगर नोटबंदी की योजना का मूल्यांकन हो तो यही कहा जाएगा कि नोटबंदी कालेधन पर कड़ा प्रहार करने में उतनी कामयाब नहीं हुई। यह बात इस संदर्भ में और समझी जानी चाहिए कि नकद मुद्रा में उपस्थित काला धन कुल काली संपदा का एक छोटा हिस्सा भर होता है। यानी जो काला धन मकान, स्विस बैंकों के खातों, सोने आदि की शक्ल में पहले ही बदल लिया गया था, वह इस नोटबंदी से कतई अछूता रहा है। अब जबकि आंकड़े सामने हैं कि प्रतिबंधित मुद्रा का करीब 99 प्रतिशत तंत्र में वापस आ गया, तो यह मान ही लिया जाना चाहिए कि नोटबंदी कालेधन पर निर्याणक प्रहार करने में कामयाब नहीं हुई। पर इसके दूसरे सकारात्मक परिणाम जरूर सामने आए। नकदी की कमी से कश्मीर में पत्थरबाजी कम हुई, क्योंकि पत्थरबाजों के लिए नकद रकम अलगाववादियों के पास नहीं थी।
नकदीहीन अर्थव्यवस्था के उद्देश्य के आधार पर अगर नोटबंदी का मूल्यांकन हो, तो वह कामयाब दिखाई देती है। नोटबंदी के बाद ऐसे-ऐसे लोगों के मोबाइल फोनों में पेटीएम जैसे इलेक्ट्रानिक वॉलेट आ गए, जिन्होंने कभी पेटीएम का नाम तक नहीं सुना था। पेटीएम, जो अब बैंक हो चुका है, का लक्ष्य है कि 2020 तक पचास करोड़ ग्राहक जुटा लिये जाएं। पचास करोड़ ग्राहक का मतलब है कि इस मुल्क की एक तिहाई से ज्यादा जनसंख्या पेटीएम के दायरे में आ चुकी होगी, अगर यह कंपनी अपने लक्ष्य में कामयाब रहती है। क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड के प्रति जागरूकता बढ़ी है। ऐसी खबरें लगातार आर्इं कि किसी महिला ने अपनी हाऊसिंग सोसाइटी की कामवाली बाइयों को डेबिट कार्ड का प्रयोग सिखाया। ऐसी खबरें भी थीं कि सत्तर साल के दादाजी ने आॅनलाइन बैंकिंग सीखने की कोशिश की। यानी कुल मिलाकर नकदी रहित लेन-देन के प्रति जागरूकता का माहौल बना। नवंबर में नोटबंदी के फौरन के बाद तो यह मजबूरी की वजह से बना। नकद है नहीं तो पेटीएम या कार्ड का इस्तेमाल मजबूरी थी। उस दौर में गोलगप्पों से लेकर गोभी तक पेटीएम के जरिये बिकी। पर उस वक्त की मजबूरी बाद में एक हद तक आदत के तौर पर भी नियमित हो गई। उस मजबूरी के दौर में जिन्होंने नकदी रहित लेनदेन शुरू किया था, वे अब भी अपने लेन-देन का बड़ा हिस्सा बिना नकदी कर रहे हैं, मजबूरी में नहीं, बल्कि सुविधाओं और नकद-वापसीका फायदा लेने के लिए। नकद-वापसी यानी खर्च की गई रकम की वापसी—यह शब्द कइयों के शब्दकोश में नोटबंदी के बाद ही आया है। तो नकदी रहित लेन-देन में बढ़ोतरी के आधार पर अगर नोटबंदी का मूल्यांकन किया जाए, तो यह योजना कामयाब मानी जाएगी। लोगों को नकदी रहित लेन-देन के लिए मजबूरी में ही सही, जितनी गति से नोटबंदी ने प्रेरित किया, उतनी गति आम परिस्थितियों में हासिल करना असंभव था।
नये करदाता
18 सितंबर, 2017 तक 2017-18 में प्रत्यक्ष कर संग्रह में करीब 16 प्रतिशत का इजाफा हुआ। 2012-13 में कुल चार करोड़ 72 लाख करदाता थे, जो 2016-17 में बढ़कर 6 करोड़ 26 लाख हो गये। नोटबंदी के बाद की गई कार्रवाईयों में 5,400 करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ में आई। 2016-17 में कर व्यवस्था में करीब 90 लाख नये करदाता जुड़े। हर साल जितने करदाता आमतौर पर बढ़ते हैं, उसके मुकाबले यह करीब 80 प्रतिशत ज्यादा बढ़ोतरी है। यह सब नोटबंदी के चलते हुआ, अब लोगों के मन में खौफ है कि सरकार कुछ कड़े कदम उठा सकती है। इसलिए सरकार का कर आधार व्यापक हुआ है।
ब्याज दरों में कमी
ब्याज दरों में कमी ऐसा प्रभाव है जो नोटबंदी का घोषित उद्देश्य नहीं था। पर देखा यह जा रहा है कि तमाम बैंक हाऊसिंग ऋण समेत कई तरह के ऋणों की ब्याज दरों में कमी कर रहे हैं। इसकी एक वजह नोटबंदी से जुड़ती है। तमाम बैंकों के पास कई लोगों ने अपने पुराने नोट जमा कराये। बैंकों के पास बहुत नोट आये। बैंकों का कारोबार नोट रखने से नहीं, नोटों को आगे ऋण पर देकर उनसे ब्याज कमाने से चलता है। यानी बैंकों पर दबाव बना कि वे कर्ज दें, कर्ज देना हो, तो ब्याज दर सस्ती कर के दें, अगर महंगे ब्याज पर लोग ऋण लेने के लिए तैयार नहीं हैं, तो। इस तरह से ब्याज दरों में एक गिरावट देखी गई, जिसका श्रेय नोटबंदी को दिया जाना चाहिए।
कुल मिलाकर नोटबंदी ऐसा निशाना साबित हुई, जो कुछ परोक्ष सकारात्मक परिणाम लेकर आई। यशवंत सिन्हा के विश्लेषण को तब पूर्ण माना जाता, जब वे इसके समस्त पक्षों को लेकर अपनी राय रखते। चुनिंदा तथ्यों के आधार पर कुछ भी कहना बहुत आसान होता है, जैसे यह कह देना कि यशवंत सिन्हा भारतीय सोने को गिरवी रख आये थे।
मसले रोजगार के
रोजगार को लेकर अब यह बात साफ हो जानी चाहिए कि रोजगार की हालत में बहुत बुनियादी ढांचागत बदलाव आ गया है। रोजगार की स्थिति का विश्लेषण अब पुराने मानकों पर नहीं हो सकता। अर्थव्यवस्था में विकास के बावजूद कई क्षेत्रों में नौकरियां का अकाल है। एचडीएफसी बैंक देश में निजी क्षेत्र का बड़ा बैंक है जो लगातार बढ़ता हुआ मुनाफा दर्ज करता है। एक साल में इसके शेयर भाव में 40 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी हो चुकी है और रपटों के मुताबिक यह पिछले करीब एक साल में लगभग दस हजार लोगों को नौकरी से निकाल चुका है। रोबोट काम कर रहे हैं, मशीनें काम कर रही हैं। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे कुशलता कहा जाता है कि कम लागत के इस्तेमाल से ज्यादा कारोबार करना संभव हो पा रहा है। पर यह स्थिति ठीक नहीं है कि आखिर रोजगार आयेगा कहां से। रोजगार का एक रास्ता स्व-रोजगार से निकलता है जिस पर मोदी सरकार का दावा है कि उसे कामयाबी मिली है। दावा है कि तीन करोड़ 42 लाख रुपये के मुद्रा कर्जों से करीब 5.5 करोड़ रोजगार पैदा किये गये हैं। कारोबार शुरू करने वाले नवउद्यमियों को ‘शिशु’ श्रेणी में रखा गया है और उन्हें 50,000 रुपए तक का कर्ज दिया जाता है। मध्यम स्थिति में कर्ज तलाशने वालों को ‘किशोर’ श्रेणी में रखा गया है जिन्हें पचास हजार से पांच लाख रुपए तक का ऋण दिया जा रहा है। तीसरी श्रेणी ‘तरुण’ में उन कारोबारियों को दस लाख रुपए तक का कर्ज मुहैया कराया जा रहा है जो अपने उद्यम को आगे बढ़ाना चाहते हैं। स्वरोजगार के जरिये रोजगार आ रहा है, मतलब उस किस्म की सूट-बूटवाली नौकरियों से नहीं आ रहा है, जिसकी उम्मीद एक आम नौजवान कर सकता है। गौरतलब है कि हाल के दिनों में जितने आंदोलन हुए हैं, उनकी एक वजह यह है कि नौजवानों को बड़ी तादाद में परंपरागत तरीके वाली सूट-बूट की नौकरी चाहिए। हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, गुजरात में पटेल आंदोलन कहीं ना कहीं दफ्तर वाली नौकरियों की चाह से उपजे आंदोलन हैं। दफ्तर वाली नौकरियों का पैदा हो पाना अब वैसे संभव नहीं है, जैसे पुराने दौर में था। रोजगार सिर्फ नौकरियों से नहीं आयेगा, उसके लिए स्वरोजगार की व्यवस्था और हुनरगत प्रशिक्षण जरूरी है। देर-सवेर रोजगार और आजीविका से जुड़े मसलों पर गंभीर विमर्श जरूरी है। नई तकनीक रोजगार खत्म कर रही है। ड्राइवरों की नौकरियां खतरे में हैं, ड्राइवररहित कारों की वजह से। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भारत में ड्राइवर-रहित कारों की इजाजत ना देने की बात कही है। इसके मूल में वही आशंका है कि रोजगार खत्म हो जायेंगे। पक्की नौकरियां, पूरी जिंदगी के लिए नौकरियां, दफ्तर की नौकरियां, ये नयी अर्थव्यवस्था में मुश्किल से मुश्किलतर होती जा रही हैं।
इसलिए मोटे तौर पर कुछ ऐसे इंतजाम करने पड़ेंगे कि हरेक के लिए कुछ न्यूनतम व्यवस्था हो सके। आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 विस्तार से यह विचार को पेश करता है-‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ यानी सबके लिए बुनियादी आय, इसके तहत हरेक को न्यूनतम राशि सरकार द्वारा दिये जाने का प्रस्ताव है। यानी सरकार हरेक के खाते में एक न्यूनतम रकम हस्तांतरित करेगी। इस योजना के कई आयाम हैं। एक मत तो यह है कि यह तो विशुद्ध निकम्मेपन को प्रोत्साहित करेगी, यानी जब कुछ किये बगैर एक न्यूनतम आय मिल रही हो, तब कोई कुछ करेगा क्यों। इसका मत यह है कि अब विकसित होती हुई अर्थव्यवस्था भी रोजगार नहीं दे पाएगी। तकनीक, रोबोट के जमाने में हरेक को नौकरी नहीं दी सकती। हां, हरेक के जीने-खाने का न्यूनतम इंतजाम सरकार को करना होगा। अभी इस विचार पर लंबी बहस जरूरी है। पर देर-सवेर इस पर गंभीरता से सोचना होगा। विकास के बावजूद रोजगारों का ना पैदा होना ऐसी स्थिति है, जिससे हर अर्थव्यवस्था को दो-चार होना ही होगा। यशवंत सिन्हा को गंभीरता से इसका जवाब देना चाहिए कि वे जिन समस्याओं को रेखांकित कर गये हैं, उनके पास उनसे निबटने के लिए गंभीर सुझाव क्या हैं।
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