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इनसान के छोटे से दिल को यदि कोई रोग लग जाए तो यह न सिर्फ रोगी के लिए कष्टकारी होता है बल्कि परिजनों को भी बहुत पीड़ा होती है। लेकिन यदि समय रहते दिल की समस्या पर ध्यान दें तो दिल के रोग से बचना मुश्किल नहीं है। हृदय रोग को दूर रखने और इसके इलाज के संदर्भ में प्रस्तुत हंै अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के वरिष्ठतम हृदय रोग विशेषज्ञ और डीन डॉ. (प्रो.) बलराम एरेन से प्रदीप सरदाना की खास बातचीत के मुख्य अंश
आप पिछले 35 से भी अधिक वर्ष में एम्स में दिल की बीमारी से ग्रस्त हजारों रोगियों के ऑपरेशन कर चुके हैं। पिछले 17 बरस से हम लगातार 'विश्व हृदय दिवस' मनाते आ रहे हैं फिर भी ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। लोगों में दिल की बीमारी के प्रति जागरूकता आई है या नहीं?
जी हां, दिल के रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि लोगों में जागरूकता नहीं आई। अब जो मरीज आते हैं उनमें से काफी लोग खुद, यहां तक कि उनके परिवार वाले भी इस रोग के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। आज लोग अपनी बीमारी की अवस्था, यहां तक कि उसके इलाज के बारे में भी जानते हैंं। यदि ऑपरेशन की जरूरत होती है तो आज अधिकांश रोगी ऑपरेशन भी जल्द कराने के लिए तत्पर रहते हैं। जबकि पहले अधिकांश लोग ऑपरेशन से डरते थे, इससे बचना चाहते थे।
फिर भारत में दिल के रोगियों की संख्या कम होने की जगह लगातार तेजी से बढ़ क्यों रही है?
उसका करण यह है कि रोगी बीमार होने पर तो सचेत हो जाते हैं लेकिन रोग न हो, उस पर पहले ध्यान नहीं देते। अपने खानपान और दिनचर्या पर भी खास ध्यान नहीं देते। साथ ही छोटी-छोटी बातों पर भी इतना तनाव में आ जाते हैं कि उससे दिल पर काफी असर पड़ता है। तनाव और उलटा-सीधा खाना, ढंग से नींद नहीं लेना, आराम न करना किसी भी भले चंगे व्यक्ति को शुगर और ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी दे देता है और रक्तचाप, मधुमेह और तनाव दिल की बीमारी के बड़े कारण हैं।
मधुमेह, रक्तचाप जैसी बीमारी न हो, इसके लिए क्या किया जाए?
यूं कुछ बीमारियां तो कुछ लोगों में खानदानी होती हैं। जैसे, दिल की बीमारी या फिर मधुमेह और रक्तचाप। हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि माता-पिता को दिल का रोग हो तो उनके बच्चों को यह होगा ही होगा। लेकिन जिनके परिवार में यह रोग है, उनमें इस रोग के पनपने के खतरे ज्यादा होते हैं। फिर भी अपने खान -पान और जीवनशैली में बदलाव कर ऐसे लोग भी काफी हद तक बीमारी से बच सकते हैं। सबसे बेहतर है योग। नियमित योग करके सिर्फ दिल की ही नहीं, और भी बीमारियों से बचा जा सकता है। दूसरा धूम्रपान बिल्कुल नहीं करना चाहिए। धूम्रपान दिल के साथ शरीर के बाकी अंगों के लिए भी खतरनाक है। तीसरे, हमें अपने पर्यावरण पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए, जिसे लोग काफी हल्के में लेते हैं।
प्रदूषण से दिल और फेफड़े, दोनों को नुक्सान पहुंचता है। इस सबके साथ खानपान का तो विशेष महत्व है ही, जिसमें सबसे ज्यादा नुक्सान कार्बोहाइड्रेटस पहुंचाते हैं। इसलिए कार्बोहाइड्रेटस वाली वस्तुओं का सेवन बहुत कम करना चाहिए, जैसे आलू, अरबी, शकरकंदी और चावल कम खाने चाहिए। मधुमेह और रक्तचाप न हो, इसके लिए नमक और चीनी की मात्रा हमेशा कम लेनी चाहिए। इन सबके साथ तनाव कम से कम रखना चाहिए।
आज जागरूकता और नयी-नयी दवाइयों के आने के बाद हाल के वर्षों में क्या आप ऑपरेशन की तादाद में कोई कमी देखते हैं?
मोटे तौर पर ऑपरेशन की तादाद में कोई कमी नहीं दिख रही है। हमारे यहां तो वैसे भी सर्जरी के लिए लोग देश के कोने-कोने से पहुंचते हैं। ज्यादातर अपना इलाज खासतौर से ऑपरेशन एम्स में ही कराना चाहते हैं। हमारे यहां दिल के ऑपरेशन के लिए 8 थिएटर हैं। हर थिएटर में हर रोज कम से कम दो ओपन हार्ट सर्जरी होती हैं। जबकि आपात रोगियों की स्थिति में ऐसी सर्जरी की संख्या बढ़ भी जाती है। इस प्रकार हमारे एम्स में ही हर साल करीब
4-5,000 दिल के ऑपरेशन होते हैं। फिर भी हमारे यहां ऑपरेशन के लिए प्रतीक्षा सूची बनी ही रहती है।
सुनने में आता है कि एम्स में प्रतीक्षा सूची दो दो साल तक इंतजार कराती है। लोग एम्स में ही क्यों ऑपरेशन कराना चाहते हैं?
असल में रोगी एम्स में ऑपरेशन इसलिए कराना चाहते हैं, क्योंकि एक तो हमारे यहां सफलता का प्रतिशत ज्यादा है। दूसरे, हमारे यहां खर्च कम आता है। एक साधारण बाईपास सर्जरी का खर्च 50 से 60,000 रुपए के करीब आता है क्योंकि बहुत से खर्च सरकार खुद उठाती है। यहां बहुत-सी सुविधाएं निशुल्क हैं। जबकि निजी अस्पतालों में यही खर्च लाखों में चला जाता है।
अब मोदी सरकार ने स्टंट्स के दाम सभी जगह सस्ते करा दिए हैं। लाख-सवा लाख रुपए के स्टंट अब 30 हजार के हो गए हैं। इससे कम से कम नॉन सर्जरी वाले मामलों में स्टंट्स बदलने का दबाव तो एम्स और अन्य सरकारी अस्पतालों पर कम हो गया होगा। स्टंट्स के दाम कम होने से फर्क तो आया ही है। लेकिन यह भी सुनने में आया है कि कुछ निजी अस्पतालों ने स्टंट्स के दाम तो कम कर दिए हैं लेकिन अपने अन्य दाम बढ़ा दिए हैं जिससे मरीज के कुल खर्च में ज्यादा कमी नहीं आई है। जबकि कुछ निजी अस्पताल वाले स्टंट्स के दाम कम करके मरीज को राहत दे रहे हैं।
अब दिल के वाल्व बदलने का काम भी बिना सर्जरी वाली पद्धति से काफी होने लगा है। इस बात में कितनी सच्चाई है?
यह तो ठीक है कि वाल्व बदलने का काम अब नॉन सर्जरी की श्रेणी में आ गया है। लेकिन भारत में यह अभी इतना सफल नहीं है, क्योंकि सर्जिकल और नॉन सर्जिकल के काम की कीमत में बड़ा अंतर है। सर्जिकल में वाल्व बदलने का काम जहां करीब एक लाख रुपए में होता है वहीं नॉन सर्जिकल में इस पर 25 लाख रुपए का खर्च आता है। हमारे यहां हर साल करीब 1000—1500 वाल्व बदले जाते हैं। लेकिन हम भी अभी तक इसकी नॉन सर्जिकल पद्धति को लागू नहीं कर पाए हैं, क्योंकि हम तो गरीब और गरीबी रेखा से नीचे के मरीजों के ऑपरेशन बिलकुल मुफ्त करते हैं। ऐसे में सरकार यदि एक ही मरीज पर 25 लाख खर्च कर देगी तो बाकी मरीजों का क्या होगा। इतने रुपए में हम 25 मरीजों के वाल्व आसानी से बदल सकते हैं। हां, निजी अस्पतालों में वाल्व बदलने का काम अब नॉन सर्जरी पद्धति से लोकप्रिय हो रहा है। जो मरीज इस खर्च को उठा सकते हैं वे नॉन सर्जरी को प्राथमिकता देते हैं।
आप एम्स में 1994 के पहले ऑपरेशन से अब तक हुए सभी हार्ट ट्रांसप्लांट ऑपरेशन में शामिल रहे हैं। लेकिन इधर हार्ट ट्रांसप्लांट के काम में काफी तेजी आई है। आप इस बारे में क्या कहेंगे?
बिल्कुल, हार्ट ट्रांसप्लांट में हाल के वर्षों में काफी तेजी आई है। अगर पिछले तीन साल की बात करें, तो उससे पहले पूरे भारत में 100 से भी कम दिल बदले गए थे जिसमें 30 अकेले एम्स में ही बदले थे। लेकिन पिछले तीन साल में ही देश भर में 300 से अधिक हार्ट ट्रांसप्लांट होने से अब दिल बदलने का आंकड़ा 400 से भी अधिक हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है दिल दान करने के मामले में लोगों का जागरूक होना। कुछ लोग मरने से पहले स्वयं अपना दिल दान कर देते हैं। कुछ में उनके परिवार वाले संकीर्ण विचारधाराओं को त्यागकर मरने वाले अपने सगे-संबंधी का दिल दान देने में उदारता दिखाने लगे हैं। फिर आधुनिक साधनों के माध्यम से और परस्पर सहयोग के कारण दिल बदलने का काम तीव्रता से होने लगा है। जबकि पहले दिल मिलने के बावजूद कई बार इसलिए यह काम निर्धारित समय में पूरा नहीं हो पाता था क्योंकि अलग-अलग संस्थाओं में परस्पर तालमेल और सहयोग की बेहद कमी थी। लेकिन अब इस मामले में स्पष्ट कानून के साथ केंद्र में 'नेशनल ऑर्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन' (नोटो) के साथ क्षेत्रों में 'रोटो' और राज्यों में 'सोटो' के गठन से भी लाभ हुआ है। कुछ निजी संस्थाएं भी इस मामले में काफी अच्छा काम कर रही हैं।
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