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वह साल 2005 का दिसंबर का महीना था। लोग आते और भोजन करके चले जाते। भोजन के बाद जूठी पत्तलों को एक खाली जगह पर फेंका जाता। पत्तलों को वहां फेंकते ही कुछ लोग, जिनमें कई बच्चे भी थे, उन पर टूट पड़ते। बड़े तो जूठन इकट्ठा करते और बच्चे उन पत्तलों को चाटते। इस नजारे को पहली बार देख रहा एक युवक दंग रह गया। कुछ देर तो वह यह सब कुछ देखता रहा। अंत में उसने अपने परिजनों से पूछा कि ये सब कौन हैं और इस तरह जूठी पत्तल क्यों चाट रहे हैं? उसे बताया गया कि ये लोग डोम हैं और पत्तल चाटना उनकी प्रथा है। यह सुनकर वह युवक और चकित हुआ कि यह प्रथा है…! कुछ देर बाद उसने फिर पूछा कि जब सैकड़ों लोगों को खाना खिला रहे हैं, तो फिर इन लोगों को भी क्यों नहीं खिलाते? जवाब देने से पहले उसे थोड़ी दूसरी नजर से देखा गया और कहा कि ये लोग अछूत हैं, इसलिए उन्हें और लोगों से दूर ही रखा जाता है।
इसके बाद कोई उसे और कुछ बताने के लिए तैयार नहीं हुआ। वह चुप हो गया और उन लोगों को जूठन खाते देखता रहा। वह उन्हें तब तक देखता रहा जब तक कि वे लोग वहां से चले नहीं गए। सूरज ढल चुका था। उनके जाने के बाद उसने अपने को एक कमरे में बंद कर लिया और उन्हीं के बारे में सोचते-सोचते सो गया। रात का खाना भी नहीं खाया। सुबह वह सबसे पहले उस जगह पर गया, जहां वे लोग रहते थे। वहां उसने देखा कि दो बच्चे पत्तलों से जूठन पाने के लिए कुछ कुत्तों से संघर्ष कर रहे हैं। इस दृश्य ने उसे अंदर तक हिला कर रख दिया।
वह युवक है संजीव कुमार और घटना कन्हैयापुर गांव की है, जो बिहार के खगडि़या जिले में परबत्ता के पास है। कन्हैयापुर में संजीव कुमार की बहन की ससुराल है। तब उनकी सास की मृत्यु हो गई थी। उस दिन लोगों को श्राद्ध का भोजन कराया जा रहा था। दिल्ली में जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े संजीव उन दिनों गुरुग्राम में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव के पद पर कार्यरत थे। वे इस तरह के आयोजन में पहली बार बिहार गए थे। श्राद्ध के बाद वे दिल्ली वापस आ गए, पर उस दृश्य को कभी भूले नहीं। वे सोचते रहे कि एक ओर तो हम जैसे लोग ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं और कुछ लोगों को जूठन खाने के लिए भी कुत्तों से संघर्ष करना पड़ता है। यह सोच-सोचकर उनकी नींद गायब हो गई। वे कई दिनों तक सो नहीं पाए।
अंत में उन्होंने नौकरी छोड़ने और उन लोगों के लिए काम करने का निर्णय लिया। एक दिन उन्होंने अपने घर वालों को इसकी जानकारी भी दे दी। उनके इस फैसले से घर वाले हक्के-बक्के रह गए। माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन वे अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए। अंत तक पिताजी नहीं माने, लेकिन मां ने दु:खी मन से कहा जाओ, तुम्हें जिस चीज से खुशी मिलती है, वही करो।
इसके बाद वे जून, 2006 में कन्हैयापुर पहंुचे। रात में बहन के घर रहते और दिन में डोम बस्ती में। वह बस्ती प्रखंड कार्यालय के पास है। कई दिनों तक वे वहां एक पेड़ के नीचे बैठकर खेलते हुए बच्चों को निहारते रहे। उन दिनों प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) अनिल कुमार सिंह थे। उनकी नजर आते-जाते संजीव पर पड़ती। कई दिनों तक उन्होंने संजीव को वहां बैठा पाया तो एक दिन पूछा, तुम यहां क्यों बैठे रहते हो? संजीव ने कहा, बस्ती के बच्चों को पढ़ाना है। उन्हें संजीव के जवाब से आश्चर्य हुआ। उन्हें लगा कि शहरी युवा है, जब तकलीफें होंगी तो छोड़कर चला जाएगा। लेकिन उनकी धारणा गलत निकली। कुछ दिन बाद उन्होंने देखा कि संजीव एक पेड़ के नीचे 30-35 बच्चों को पढ़ा रहे हैं। कक्षा शुरू करने से पहले संजीव ने अपने नाम के साथ 'डोम' शब्द लगा लिया। यानी उन्होंने अपना नाम संजीव डोम रख लिया। पढ़ाने से पहले वे बच्चों को खुद नहलाते भी थे। जिस बस्ती में लोग जाना भी नहीं चाहते थे, वहां के बच्चों को स्नान कराने के बाद एक अगड़ी जाति का युवा पढ़ाता है, यह खबर बहुत ही तेजी से पूरे क्षेत्र में फैली। आस-पास के गांवों के लोग संजीव को देखने के लिए आते। कोई उनकी सराहना करता, तो कोई कहता, इस लड़के ने अपनी जाति का नाम डुबो दिया। लेकिन संजीव इन आलोचनाओं से डिगे नहीं और अपने काम में लगे रहे। अब बीडीओ अनिल कुमार सिंह को भरोसा हुआ कि संजीव सच में बस्ती के बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। वे एक दिन खुद संजीव के पास आए और बोले कि अच्छा काम कर रहे हो, लेकिन पेड़ के नीचे के बजाय पड़ोस के लोहिया भवन में बच्चों को पढ़ाओ। बीडीओ के कहने पर वे बच्चों को लोहिया भवन में पढ़ाने लगे।
दिनभर पढ़ाने के बाद वे शाम को बहन के घर वापस आ जाते। संजीव के ऐसा करने से गांव वाले उनके बहनोई से शिकायत करने लगे कि एक भिूमहार का इस तरह डोम बस्ती में रहना ठीक नहीं है। यह गांव की प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। उसे ऐसा करने से रोको। इसके बाद बहन और बहनोई ने संजीव को डोम बस्ती में जाने से मना किया। काफी मनाने के बाद भी वे नहीं माने। अंत में उन्होंेने कहा कि यदि नहीं मानोगे तो वापस घर मत आना। इसके बाद उन्होंने अपनी बहन का घर छोड़ दिया और करीब सात किलोमीटर दूर नया गांव, जहां उनका पैतृक घर है, चले गए। वहीं से वे रोजाना पैदल ही डोम बस्ती आते और बच्चों को पढ़ाते। पढ़ाई के बाद वे परबत्ता के आसपास रहने वाले सभी डोमों से संपर्क करते और उन्हें शिक्षा, रोजगार और सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूक करते। इसी दौरान उन्होंने 'बहिष्कृत हितकारी संगठन' की स्थापना की। उसके सभी प्रमुख पदों की जिम्मेदारी बस्ती के लोगों को ही दी गई। इस संगठन के बैनर तले पूरे क्षेत्र में समाज जागरण का कार्य शुरू किया गया। इन कार्यों की जानकारी उनके घर वाले किसी न किसी तरीके से लेते थे। आखिर में वे लोग भी बेटे के कार्य में सहयोग के लिए तैयार हो गए और उनके खर्च के लिए कुछ राशि हर महीने भेजने लगे।
उन्हीं दिनों गांव में किसी ने संजीव के चचेरे भाई की हत्या कर दी। दुर्भाग्य से हत्या का आरोप उन पर लगा। आरोप लगते ही घर वालों और अन्य रिश्तेदारों ने उनसे नाता तोड़ लिया और मदद भी बंद कर दी। लेकिन उन्होंने तो ऐसा कुछ किया नहीं था। इसलिए निश्चिंत रहे और बाद में वह आरोप भी खत्म हो गया। इसके बाद उन्होंने गांव छोड़ दिया और डोम बस्ती में ही रहने लगे।
उन्होंने लोगों से कहा कि जूठा खाना मत खाओ, मरे जानवरों को नहीं उठाओ और सिर पर मैला मत ढोओ। उनके इस आह्वान के बाद लोगों ने इन कामों को छोड़ दिया। समाज के सभी वर्ग के लोग आपस में प्रेम, एकता के साथ रहें, इसलिए उन्होंने सहभोज शुरू करवाया। बहिष्कृत चेतना मेला के जरिए धार्मिक कार्यों में इन लोगों की सहभागिता बढ़ाई। पहले गंगा की मुख्यधारा में इन लोगों को नहाने से रोका जाता था। इसलिए ये लोग उपधारा में नहाते थे। संजीव ने 2006 में छठ पूजा के समय बहिष्कृत चेतना मेला शुरू किया। मेला शुरू करने से पहले इस समाज की महिलाओं ने गंगा स्नान किया और अगवानी घाट से परबत्ता तक कलशयात्रा निकाली। इसमें पहली बार 75 महिलाओं ने हिस्सा लिया। यह मेला 2012 तक निरंतर लगा। इससे इस समाज के लोगों में एक नई जागृति आई।
कुछ वर्ष पहले भले ही संजीव के घर वालों ने उनसे नाता तोड़ लिया था, लेकिन आखिर मां तो मां ही होती है। उन्होंने अपने बेटे के लिए कई सपने देखे थे। वे सपने उन्हें बेचैन कर देते थे। आखिर में उन्होंने एक दिन संजीव को वापस बुलाने का विचार किया। इसके लिए उन्होंने संजीव के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन वे तैयार नहीं हुए। इसके बावजूद मां जिद पर अड़ी रहीं। इस पर संजीव ने शर्त रखी कि विवाह के बाद भी दिल्ली में नहीं रहना है। अगर लड़की मेरे साथ यहां रहना चाहती है तो फिर ठीक है। मां ने उनकी शर्त यह सोचकर मान ली कि बहू के सामने संजीव की एक नहीं चलेगी और वह एक दिन उसे दिल्ली वापस ले आएगी। इसके बाद विवाह हुआ और दोनों खगडि़या में एक किराए के मकान में रहने लगे। दोनों का सारा खर्च घर वाले ही देते थे। विवाह के कुछ दिन बाद ही उनकी पत्नी उन्हें दिल्ली वापस चलने के लिए कहने लगी, लेकिन वे वापसी की कोई बात सुनने के लिए ही तैयार नहीं थे। इसी बीच घर में एक नए मेहमान का भी आगमन हुआ। पत्नी बच्चे के भविष्य की दुहाई देकर संजीव को लौटने की बात कहती रहती। इस पर वे कहते, एक बच्चे के भविष्य के लिए सैकड़ों बच्चों के भविष्य को दांव पर नहीं लगाया जा सकता। इसको तुम देखो और मुझे इन बच्चों के लिए छोड़ दो। आखिर में 2010 में उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर दिल्ली वापस आ गई।
पारिवारिक झंझटों से मुक्त होने के बाद वे पूरी तरह डोम और मुसहर जाति की सेवा में तत्पर हैं। उल्लेखनीय है कि इन दोनों जातियों के लोग बेघर हैं। ये लोग पीढि़यों से सरकारी जमीन पर झु़ग्गी बनाकर रह रहे हैं। जब सरकारी विभाग उस जमीन पर कुछ बनवाता है तो उन्हें उजाड़ दिया जाता है। फिर ये लोग और कहीं झुग्गी बना लेते हैं। संजीव ने इन लोगों के लिए परबत्ता के पास सरकारी जमीन पर इंदिरा आवास बनवाने की पहल की। इसका गांव वालों ने यह कहते हुए विरोध किया कि इससे गांव का माहौल खराब होगा और गांव की बेटियों की शादी में दिक्कत होगी। लेकिन इस विरोध की परवाह न करते हुए संजीव ने वहां उन लोगों के लिए इंदिरा आवास बनवाया। पर दबंगों ने इन घरों में लोगों को रहने नहीं दिया। प्रशासन की मदद से लोग वहां रहने लगे।
संजीव उन युवकों को भी सही मार्ग पर लाए, जो बहकावे में आकर माओवादी बन गए थे। दरअसल, बेरोजगारी से परेशान होकर अनके युवक माओवादी बन गए थे। संजीव ने उन युवकों से संपर्क किया और उन्हें घर लौटने के लिए प्रेरित किया। इससे माओवादी संजीव से नाराज हो गए। उन लोगों ने 2009 में एक रात संजीव का अपहरण कर लिया। उन्होंने कई घंटों तक संजीव को एक सुनसान स्थान पर रखा और वहां उनसे कहा कि आप जो काम कर रहे हैं, उससे छोड़ दें, अन्यथा आपकी हत्या कर दी जाएगी। लेकिन संजीव किसी दूसरी ही मिट्टी के बने हैं। उन्होंने कहा, भले ही मार दो, पर काम नहीं रुकेगा। बाद में प्रशासन ने उन्हें माओवादियों के चंगुल से मुक्त कराया।
इस घटना के बाद वे लोग ज्यादा चिन्तित हुए, जिनके लिए वे काम करते हैं। उन लोगों ने उन्हें परबत्ता छोड
़ने की सलाह दी। हालांकि उन्हें यह मंजूर नहीं था। लेकिन जन दबाव पर उन्होंने परबत्ता छोड़ दिया और खगडि़या आ गए। यहां रेलवे स्टेशन के पास डोम बस्ती है। वे वहीं रहकर वहां के बच्चों को पढ़ाने लगे। आज खगडि़या के डोम भी उन्हें अपना उद्धारक मानते हैं।
सच में संजीव उद्धारक हैं। वे खगडि़या में भी वही काम कर रहे हैं, जो उन्होंने परबत्ता में किया। यहां के डोमों के लिए भी वे घर बनवाने की कोशिश कर रहे हैं। प्रशासन से जमीन मिल गई, पर वहां का स्थानीय समाज भी घर बनवाने का विरोध कर रहा है। उम्मीद है, संजीव यहां भी इस समस्या का हल निकाल लेंगे। इन दिनों वे मुसहर जाति के लोगों के लिए काम कर रहे हैं। इन जातियों के उद्धार के लिए संजीव जो त्याग और तपस्या कर रहे हैं, उसकी मिसाल बहुत ही कम मिलती है। –अरुण कुमार सिंह, खगडि़या से लौटकर
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