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उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति का सनातन संस्कार रही है। जीवन रस का सामूहिक गान ही भारतीय त्योहारों की मूल संवेदना है। इस रूप में दीपावली आर्य संस्कृति की महत् गरिमा से मण्डित दीपों के प्रकाश का महान सांस्कृतिक पर्व है। ज्ञान का यह आलोक प्रवाह युगों-युगों से सभ्यता के घाटों को प्रदीप्त करता रहा है। आलोक पर्व, दीप पर्व, प्रकाश पर्व, दीपोत्सव, दीपमालिका, दीपावली, सुखरात्रि व यक्षरात्रि आदि अनेक रूपों से विख्यात यह पर्व आत्मोद्धार का प्रतीक होने के साथ-साथ तपोनिष्ठ जीवन की गरिमा भी संजोता है। इस पर्व में समाई हमारी ज्ञान-गामिनी सांस्कृतिक धरोहर उतनी ही प्राचीन है, जितनी स्वयं हमारी संस्कृति। हमारी संस्कृति में विभिन्न अवसरों पर प्रकाश करने की वैदिक परंपरा रही है। वैदिक काल में यह प्रकाश अग्नि रूप में था, बाद में मंदिर के आरती-दीप के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। इस प्रकार वैदिक काल से वर्तमान तक दीप ज्योति की गौरवमय परंपरा से संयुक्त अनेक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौतिक महत्ता के आलोक में दीपोत्सव का महानुष्ठान किया जाता रहा है। इस पर्व में जहां एक ओर बुराई पर अच्छाई की जीत एवं भाईचारे का संदेश निहित है, वहीं दूसरी ओर अंधकार के नैराश्य को प्रकाश के आशारूपी दीप से दूर भगाने का पुरुषार्थ। वस्तुत: दीपावली हमारे आत्म-उजास की अमूल्य थाती है। मान्यता है कि होली महोत्सव है और दशहरा महानुष्ठान, जबकि एकमात्र दीपावली ही सम्पूर्ण अर्थों में महापर्व है।
शास्त्रों की उक्ति है—दीपो ज्योति: ज्योति जनार्दन:। यानी दीप हमारी आस्था के सबसे सनातन प्रमाण हैं। महाकवि अश्वघोष ने अपनी कृति 'सौदरानेक' में मोक्ष की उपमा दीपक की निर्वाण दशा से दी है। कालजयी महाकवि कालिदास भी प्रदीप्त दीपों की कतारों को आत्म-आलोक की सबसे सशक्त प्रेरणा बताते हैं। पद्म व भविष्य पुराण में इस पर्व का सम्यक् विवेचन मिलता है जहां इस पर्व को लौकिक मान्यताओं, वैभव एवं प्रदर्शन से पृथक सुसंस्कारिता का आवरण पहनाकर सात्विकता से ज्योति मण्डित किया गया है। गुह्य सूत्रों के अनुसार चन्द्र संवत्सर नववर्ष के प्रारंभ होने के कारण दीप पर्व पर सफाई आदि की जाती थी। बुद्धघोष का राजगृह इसी महापर्व पर सजता था। धम्मपद अल्प कथा के अनुसार मगध सम्राट अजातशत्रु के शासनकाल में इस शुभ पर्व पर कौमुदी महोत्सव का आयोजन किया जाता था। दीपावली की पांच दिवसीय पर्व शृंखला संस्कृति की अनेक धाराओं को समाहित करती है।
दीपोत्सव का पहला पर्व त्रयोदशी तिथि को धनतेरस व धन्वंतरि जयंती का होता है। पौराणिक कथानुसार, इसी दिन सागर मंथन के दौरान आयुर्वेद के प्रणेता धन्वंतरि ऋषि अमृत घट लेकर प्रकट हुए थे जिन्हें विष्णु का अंशावतार माना जाता है। आचार्य धन्वंतरि महानतम आयुर्वेदाचार्य थे। उनके जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत माना जाता है। उनके जीवन के साथ आरोग्य व अमरत्व का स्वर्ण कलश जुड़ा हुआ है। सुश्रुत व चरक संहिताओं के साथ रामायण, महाभारत व श्रीमद्भागवत पुराण आदि पुरा साहित्य में आचार्य धन्वंतरि की आयुर्वेदिक उपलब्धियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। वे आरोग्य व दीर्घायुष्य के प्रतिनिधि देवता के रूप में विख्यात हैं। आचार्य धन्वंतरि के स्वास्थ्य दर्शन के मुताबिक मानव देह की प्रत्येक कोशिका अपने आप में एक संसार है। उनके मुताबिक भौतिक देह एक ऐसा संगठन है जो सृजन और विनाश की प्राकृतिक शक्तियों के मध्य एक सुनिश्चित क्रम और संतुलन में ढला रहता है। जब यह संतुलन बिगड़ता है, तब हमारे कायतंत्र में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी यह भारतीय अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। वे स्वास्थ्य को समग्रता में देखते हैं। उन्होंने स्वास्थ्य को व्यक्ति के स्व और उसके परिवेश से संतुलित तालमेल के रूप में परिभाषित किया और जीवन के इस ज्ञान-विज्ञान को आयुर्वेद की संज्ञा दी। धन्वंतरि के तत्वदर्शन के अनुसार जिन पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, पानी, धरती) से यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड बना है उन्हीं से हमारे शरीर की भी संरचना हुई है। इसीलिए प्रकृति के साथ तदाकार हुए बिना हम कभी स्वस्थ नहीं रह सकते। धन्वंतरि का आयुर्वेद वह विज्ञान है जो जीवन के लिए हितकारी और अहितकारी, पथ्य और अपथ्य, जीवन जीने की शैली, रोगों से बचाव के तरीके और रोगों के उपचार के उपायों का ज्ञान कराता है।
हैरानी की बात है कि कैसे कोई आयु के आधार पर शरीर के एक-एक अवयव का स्वस्थ और अस्वस्थ माप बता सकता है, पर यह चमत्कार धन्वंतरि ऋषि ने कर दिखाया था। उनका कहना था कि एक स्वस्थ पुरुष अथवा स्त्री को अपने हाथ के नाप से 120 उंगली लंबा होना चाहिए, जबकि छाती और कमर अठारह उंगली की होनी चाहिए। यही नहीं, उन्हें पशु-पक्षियों के स्वभाव, उनके मांस के गुण-अवगुण और उनके भेद भी ज्ञात थे। मानव की भोज्य सामग्री का जितना वैज्ञानिक व सांगोपांग विवेचन धन्वंतरि और सुश्रुत ने किया है, वह आज के युग में भी दुर्लभ है। धन्वंतरि ने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव-गुण को प्रकट किया। धन्वंतरि संहिता आयुर्वेद का मूल ग्रंथ मानी जाती है। आयुर्वेद के आद्याचार्य सुश्रुत मुनि ने ऋषि धन्वंतरि से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त
किया था। उनके बाद में चरक आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
शास्त्रों में इस बारे में कहा है कि जिन परिवारों में धनतेरस के दिन प्रात:काल स्नान कर पर्व की प्रतिनिधि देव शक्तियों के समक्ष दीपदान कर आरोग्य नियमों के पालन व धन के सुनियोजन के सत्संकल्प लिये जाते हैं वहां श्री सम्पदा व आरोग्य सुख सदा बना रहता है। परंपराओं की बात करें तो इस दिन पुराने बर्तनों को बदलकर नए बर्तन व नयी वस्तुएं, विशेष रूप से चांदी के बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है। वैद्यगण इस दिन विशेष रूप से धन्वंतरि ऋषि का पूजन करते हैं और वर मांगते हैं कि उनके औषधि उपचार में ऐसी शक्ति आ जाए, जिससे रोगी को शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो। गृहस्थ लोग अमृत पात्र का स्मरण करते हुए घरों में नए बर्तन लाकर धनतेरस मनाते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान को भोग अर्पित करते हैं। यह पर्व विशेष रूप से धन और समृद्धि से संबंधित है। इस दिन लोग धन-संपत्ति की प्रदाता देवी लक्ष्मी व धन-सम्पत्ति के कोषाध्यक्ष कुबेर देवता की पूजा करते हैं। शास्त्रों में इस दिन प्रदोष काल में नदी, घाट, गोशाला, कुआं, बावली, मंदिर आदि स्थानों पर दीपदान करना शुभ बताया गया है। त्रयोदशी की संध्या में यमदीप दान का अनुष्ठान किया जाता है।
इसके अगले दिन छोटी दीपावली यानी नरक चतुर्दशी (रूप चौदस) तिथि को पितरों को अर्घ्य देने की परम्परा है। चूंकि इस समय मौसम बदल रहा होता है, इसलिए हमारे विद्वान ऋषियों ने इस दिन सूर्योदय से पूर्व शरीर पर तिल या सरसों का तेल लगाकर स्नान करने का विधान बनाया था। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन स्नान के पश्चात दक्षिण मुख करके यमराज से प्रार्थना करने पर व्यक्ति के वर्ष भर के पाप नष्ट हो जाते हैं। ये विधान महज परंपरा नहीं हैं, वरन् इनके पीछे शारीरिक स्वास्थ्य का सुनियोजित विज्ञान निहित है। लोग इन परंपराओं का पालन कर स्वस्थ रहें, इसलिए उन्होंने युक्तिसंगत तरीके यह कहकर इस नियम को प्रचारित कर दिया कि जो मनुष्य इस दिन सूर्योदय के पश्चात स्नान करेगा, उसके वर्षभर के शुभ कार्य नष्ट हो जाएंगे। जरा विचार कीजिए, इन परंपराओं के पीछे कितनी दूरदृष्टि रही होगी हमारे मनीषियों की। पौराणिक कथा है कि श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर का वध किया था। 'धर्मसिंध' के अनुसार इस दिन लोग देवों से अपने पितरों की परम गति के लिए प्रार्थना करते हैं। इस दिन सायंकाल देवताओं का पूजन करके घर के प्रवेश द्वार पर दीपक जलाने की भी परम्परा है। अगले दिन पर्व की मध्यावधि में अमावस्या की महानिशा में दीपोत्सव मनाया जाता है। लोक परंपरा में दीपावली की रात को मुख्य रूप से लक्ष्मी व गणेश के संयुक्त पूजन का विधान है। इसके पीछे मूलत: समृद्धि एवं सद्बुद्धि दोनों की आराधना के साथ श्रेष्ठ मूल्यों एवं आदर्शों की स्थापना का दिव्य भाव निहित है। लक्ष्मी समृद्धि, विभूति एवं सम्पत्ति की देवी हैं और गणपति सद्बुद्धि एवं सद्ज्ञान के सर्वसमर्थ देवता। समृद्धि का तात्पर्य विलासिता नहीं है, बल्कि उसका सत्कर्मों में नियोजन है। सद्बुद्धि के प्रकाश में ही समृद्धि का सुनियोजन संभव है। अत: सद्बुद्धि के अभाव में समृद्धि हितकारी नहीं हो सकती और विपुल बुद्धि भी धनाभाव के कारण मंद पड़ जाती है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त से लेकर पुराणों तक देवी लक्ष्मी परमेश्वर की ऐश्वर्यशक्ति के रूप में प्रकाशित हैं। ऋषि मनीषा यह महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित करती है कि लक्ष्मी केवल बाहरी वस्तु नहीं अपितु ऐसी आत्मविभूति है जो बीज रूप में सारे प्राणियों के अंदर विद्यमान है। जो अपनी आत्मज्योति को प्रकाशित कर पाता है वही इससे यथार्थ रूप में लाभान्वित होता है। महर्षि मार्कण्डेय इसे आंतरिक तत्व की संज्ञा देते हैं। मानव के अभ्यन्तर में जो सार्वभौम शक्ति विद्यमान है वही बाह्य सम्पत्ति का अर्जन-विसर्जन करती है। इसीलिए लक्ष्मी कमल पर आसीन हंै। कमल विवेक का प्रतीक है, पंक से उत्पन्न होकर भी पंक रहित स्वच्छ, पावन, सुगन्धित। संपत्ति तभी वरेण्य है जब वह पवित्रता पर आधारित हो। सचमुच अद्भुत है 'श्री' का यह तत्वदर्शन।
इस दिन रात्रि को जागरण करके धन की देवी लक्ष्मी का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए एवं घर के प्रत्येक स्थान को स्वच्छ कर वहां दीपक रखना चाहिए। इससे घर में लक्ष्मी का वास एवं दरिद्रता का नाश होता है। इस दिन देवी लक्ष्मी तथा भगवान् गणेश का विधिविधान से पूजन कर पर्व के शिक्षण को आत्मसात करना चाहिए। दीपावली पर दीये जलाते समय दीये के दर्शन को समझना निहायत जरूरी है। अमावस की काली अंधेरी रात में टिमटिमाते नन्हे-नन्हे दीपकों की अवली (पंक्ति) संघर्षशील मानवीय चेतना का प्रमाण बनकर जग से तम को हर लेने की कोशिश करने की प्रेरणा देती है। इन प्रकाशित दीपों से यह सत्य भी प्रकट होता है कि जीवन में स्नेह बना रहे तो प्रकाश की कमी नहीं पड़ती; भावनात्मक टूटन से ही जीवन में अंधेरा फैलता है। यदि हमारे जीवन का प्रत्येक कोना भावना और साधना की परम ज्योति से ज्योतित होता रहे और हमारा प्रत्येक आचरण कर्म और आदर्श से परिपूर्ण बना रहे तो न केवल हमारा जीवन प्रकाश से पूर्ण होगा बल्कि हम लक्ष्मी की वैभव-विभूति, उसकी श्री सम्पदा से भी लाभान्वित होंगे। इसी तत्वदर्शन में निहित है इस दीप पर्व के महानुष्ठान की सार्थकता।
महानिशा के दीपोत्सव के अगले दिन प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी मनाते हैं। यह प्रारंभ में नवान्न पूजा का पर्व था जो बाद में अन्नकूट पूजा में परिवर्तित हो गया। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। हमारी संस्कृति में गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख-समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गोमाता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। गो के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोवर्धन की पूजा की जाती है। गोवर्धन पूजा की परंपरा द्वापर युग से चली आ रही है। उससे पूर्व ब्रज में इंद्र की पूजा की जाती थी। मगर भगवान कृष्ण ने गोकुलवासियों को तर्क दिया कि गोवर्धन पर्वत हमारे गोधन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसलिए इंद्र की नहीं, गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए। इसके बाद इंद्र ने ब्रजवासियों को भारी वर्षा से डराने का प्रयास किया, पर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर सभी गोकुलवासियों को उनके कोप से बचा लिया। भगवान कृष्ण का इंद्र के मान-मर्दन के पीछे उद्देश्य था कि ब्रजवासी गो-धन एवं पर्यावरण के महत्व को समझें और उनकी रक्षा करें। आज भी हमारे जीवन में गायों का विशेष महत्व है। इसके बाद से ही इंद्र भगवान की जगह गोवर्धन पूजा की परंपरा शुरू हो गयी, जो आज भी जारी है। हिंदू इस दिन घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल, दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा-परिक्रमा करते हैं। फिर गोवंश (गाय-बैल) को स्नान कराकर फूलमाला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मीठा खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है। अनेक श्रद्धालु इस मौके पर ब्रजमंडल में गिरिराज गोवर्धन की पूजा-प्रदक्षिणा भी करते हैं।
इस पांच दिवसीय महापर्व का समापन भाई दूज के पर्व के साथ होता है। भाई-बहन के अगाध प्रेम को समर्पित इस पर्व को यम द्वितीया भी कहा जाता है। इस दिन बहनें अपने भाई के मस्तक पर मंगल तिलक लगाकर उसकी लम्बी उम्र व स्वस्थ जीवन की कामना करती हैं। भाई दूज का पर्व अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग परंपराओं के साथ मनाया जाता है। इसके पीछे एक रोचक पौराणिक कथानक है। कथा के अनुसार सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ। यमुना अपने भाई यमराज से स्नेहवश निवेदन करती थी कि वे उसके घर आकर भोजन करें। लेकिन यमराज व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात को टाल जाते थे। एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना अपने द्वार पर अचानक भाई यम को खड़ा देखकर हर्ष-विभोर हो गई। प्रसंनचित्त हो उसने भाई का स्वागत-सत्कार किया तथा भोजन करवाया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने बहन से वर मांगने को कहा। तब बहन ने भाई से कहा कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाए, उसे आपका भय न रहे। यमराज 'तथास्तु' कहकर यमपुरी चले गए। ऐसी मान्यता है कि जो भाई इस दिन बहनों के घर जाकर उनका आतिथ्य स्वीकार करते हैं तथा उन्हें यथा सामर्थ्य भेंट देते हैं उन्हें तथा उनकी बहन को अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता।
थोड़ा गहराई से चिंतन करें तो पाएंगे कि अनेकानेक दिव्य प्रेरणा प्रसंगों से जुड़े आत्म उजास के इस महापर्व में मनुष्य जीवन का बुनियादी सच समाया हुआ है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इसी दिन मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम ने वनवास की चौदह वर्षीय अवधि को पूरा कर अयोध्या में पदार्पण किया था और अयोध्यावासियों ने उनके आगमन की खुशी में घी के दीये जलाये थे। तब से दीपावली प्रतिवर्ष मनाई जाने लगी। इसी दिन यम ने जिज्ञासु नचिकेता को ज्ञान के अंतिम सूत्र का उपदेश दिया था। महान पतिव्रता सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश को तार-तार कर मनवांछित वरदान पाया था। एक अन्य कथा के अनुसार जैनतीर्थंकर भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था और देवलोक के देवताओं ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी। 'अप्प दीपो भव' कहकर भगवान बुद्ध ने इसी को उजागर किया है। दीये की माटी हमारे अस्तित्व की प्रतीक है और ज्योति चेतना की। जब हमारी अंतस चेतना में ज्ञान और प्रेम की ज्योति जल उठती है तो हमारा बाह्य जीवन भी विभूति और वैभव से प्रकाशमान हो उठता है। मानवी सद्बुद्धि का यह उजाला ही विश्व मानव को समृद्धिशाली, सुरक्षित और विकसित करने का मूल आधार है। सद्ज्ञान और सद्बुद्धि के साथ समृद्धि का समन्वय ही इस पर्व की प्रेरणा है।
आइए, समग्र जीवन के प्रतिपादक इस ज्योतिपर्व पर हम सब आत्मावलोकन करें। भारतभूमि का यह महापर्व सदियों से अंधकार से लड़ने की हमारी उत्कट अभिलाषा और प्रबल जिजीविषा का प्रतीक रहा है, फिर भी क्या कारण है कि भारतीय जनजीवन निराशा और संत्रास की बेडि़यों में जकड़ा हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के 70 साल में भारतीय जनमानस की जो स्थिति हुई है, वह एक भयंकर मनोवैज्ञानिक संघात की है। भीतरी और बाहरी दोनों मोर्चों पर अनेकानेक चुनौतियां मुंहबाये खड़ी हैं। जातीय हिंसा, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिक तनाव, माफिया गिरोहों का अंतरजाल व आतंकी घुसपैठ ने देशवासियों की नींद हराम कर रखी है। वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण नई पीढ़ी को कुसंस्कारित ही बना रहा है। इसका दुष्परिणाम पूरे समाज और देश को भुगतना पड़ रहा है। देवी को पूजने वाले देश में स्त्री का सरेआम अपमान किया जाता है। भारतभूमि के विशाल वट वृक्ष सरीखे गहन सांस्कृतिक जीवनमूल्य आज खतरे में हैं। सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए जिस समाज व्यवस्था की नींव हमारे ऋषियों ने रखी थी, वह दुर्दशाग्रस्त है। नैतिकता, मर्यादा एवं जीवन मूल्यों का पथ अपसंस्कृति के धुंधलके में विलीन होता जा रहा है। इससे उपजी कुण्ठा लोगों के व्यक्तिगत जीवन में अर्द्धविक्षिप्त मनोदशा, पारिवारिक जीवन में वैमनस्य एवं सामाजिक जीवन में विघटन एवं टूटन के साथ चतुर्दिक अराजकता, आतंक एवं अशांति के रूप में परिलक्षित हो रही है। वर्तमान परिस्थितियां सचमुच जटिल हैं किन्तु युग मनीषा हमें उज्ज्वल भविष्य की ओर प्रेरित कर रही है। हमें जरूरत है तो बस साहस, धैर्य, समझदारी और ढेर सारे विश्वास की। सवा सौ करोड़ लोगों का यह देश सिर्फ मर-मरकर जीने के लिए नहीं है। हम इस संघर्ष में विजयी होकर ही रहेंगे। यदि हम सभी राष्ट्रवासी अपने अपने राष्ट्रीय कर्तव्य पूरी निष्ठा व लगन के साथ पूरे कर सकें तभी इस ज्योतिपर्व का प्रकाश हमारे मन और राष्ट्रजीवन को सही मायने में आलोकित कर सकेगा।
– पूनम नेगी
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