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सवार्ेच्च न्यायालय के कड़े रुख के बाद विदेशों से पैसा लेने वाले एनजीओ को देना होगा हिसाब- किताब। कई एनजीओ पर राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ का आरोप तो कई संस्थाओं ने विकास परियोजनाओं में खडे किए अवरोध। विदेशी मदद के तौर पर 164 देशों से मिले 11,838 करोड़ रुपए
मनोज वर्मा
आम तौर पर सवार्ेच्च न्यायालय ऐसी टिप्पणी या फैसला नहीं सुनाता जो जनसेवा को प्रभावित करने वाला हो, लेकिन बात जब जनसेवा के नाम पर कारोबार करने की हो और स्वयंसेवी संगठन पेशे का रूप ले लें, तब ऐसे में न्यायालय को भी यह कहना पड़ता है कि जो स्वयंसेवी संगठन यानी एनजीओ हिसाब-किताब का ब्यौरा नहीं दे रहे हैं उन्हें 'ब्लैक लिस्ट' कर उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया जाए। जाहिर है, देश में बड़ी संख्या में ऐसे स्वयंसेवी संगठन कार्यरत हैं जो देश-विदेश से करोड़ों रुपए लेते हैं, लेकिन उसका हिसाब-किताब नहीं देते। लिहाजा अब सवार्ेच्च न्यायालय ने ही स्वयंसेवी संगठनों की कार्यशैली को लेकर सवाल उठा दिया है। असल में कोई 5 साल पहले सवार्ेच्च न्यायालय में अधिवक्ता एम़ एल़ शर्मा ने महाराष्ट्र के कई एनजीओ के खिलाफ एक याचिका दायर की थी और गबन का आरोप लगाया था। इसके बाद सवार्ेच्च न्यायालय ने मामले का दायरा बढ़ाते हुए देश भर के एनजीओ के बारे में सीबीआई से जवाब मांगा था। न्यायालय में दाखिल सीबीआई के रिकार्ड के मुताबिक सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत 30 लाख एनजीओ में से सिर्फ तीन लाख एनजीओ ही सालाना हिसाब-किताब दाखिल करते हैं। इतना ही नहीं, सीबीआई के मुताबिक कुछ राज्यों में तो पैसों के लेन-देन को पारदर्शी बनाए रखने के लिए कानून तक नही हैं।
लिहाजा न्यायालय ने सुनवाई के दौरान पूछा कि आखिर सरकार अपने पैसों का हिसाब क्यों नहीं लेती? सवालों के बीच सीबीआई ने एनजीओ के आंकड़ों का राज्यवार ब्यौरा दिया तो न्यायालय को पूरा मामला बेहद गंभीर नजर आया। सीबीआई ने न्यायालय के समक्ष जो ब्योरा पेश किया उसके मुताबिक उत्तर प्रदेश में ही लगभग 5 लाख स्वयंसेवी संगठन पंजीकृत हैं, जबकि महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है। देश भर में लगभग 32,09,044 एनजीओ पंजीकृत हैं। दरअसल 2011 में अधिवक्ता एम.एल. शर्मा ने एक जनहित याचिका दाखिल कर यह आरोप लगाया था कि देश भर में कई एनजीओ में फंड का कथित तौर पर गबन हो रहा है। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 2 सितंबर, 2013 को सीबीआई से इस बारे में रिपोर्ट पेश करने को कहा था। इस पूरे मामले की सुनवाई के बाद मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर की अगुआई वाली बेंच ने कहा कि, एनजीओ को जनता का धन दिया जाता है जिसका दुरुपयोग नहीं होने दिया जा सकता, इसलिए हिसाब-किताब जरूरी है। साथ ही अदालत ने केंद्र सरकार से यह भी कहा कि वह भविष्य में एनजीओ की मान्यता के लिए दिशा-निर्देश तय करे और अदालत को इस बारे में अवगत कराए। जो भी हलफनामा दिया जाए, उसमें संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी की मंजूरी होनी चाहिए। इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए कि जनता का धन इस्तेमाल कर रहे एनजीओ का लेखा और निगरानी हो। न्यायालय ने सरकार को यह भी निर्देश दिया है कि आगामी 31 मार्च तक तमाम एनजीओ के खातों का लेखा करके हर हाल में उसकी रपट न्यायालय में पेश की जाए।
न्यायालय के इस दिशा-निर्देश के बीच केंद्र सरकार ने देश के करीब 20,000 एनजीओ के लाइसेंस रद्द कर दिए हैं। सरकार ने इन एनजीओ द्वारा विदेशी चंदा नियमन कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर यह कार्रवाई की है। सरकार ने जिन एनजीओ का एफसीआरए लाइसेंस रद्द किया है, अब वे विदेशी चंदा नहीं ले सकेंगे। असल में कई नामचीन एनजीओ के कामकाज को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। खासतौर से ऐसे एनजीओ जो विदेशों से फंड या चंदा लेते हैं और इसके बदल में काम करते हैं देश के विकास में अवरोध खड़ा करने का। कभी पर्यावरण के नाम पर किसी परियोजना का विरोध तो कभी आदिवासियों के नाम पर। जैसे कि पर्यावरण रक्षा के नाम पर काम करने वाली संस्था 'ग्रीन पीस' लगातार विवादों में रही है। 2015 में 'इम्पेक्ट ऑफ एनजीओज ऑन डेवेलपमेन्ट' नाम से जारी गुप्तचर ब्यूरो की रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि विदेशों से मिले पैसों के दम पर भारत में कुछ गैर सरकारी संस्थाएं देश के विकास से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध कर रही हैं। पर्यावरण और समुद्र की रक्षा के लिए काम करने वाला ग्रीनपीस एनजीओ मुख्य तौर पर मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए चर्चा में रहा। आईबी ने इस एनजीओ को देश के विकास में अवरोधक बताया। उक्त रिपोर्ट में कोयला खदान, ऊर्जा परियोजना, परमाणु ऊर्जा प्लांट के खिलाफ अभियान चलाने वाले 12 विदेशियों के नाम भी हैं जो ग्रीनपीस सहित कुछ अन्य एनजीओ से सीधे जुड़े हुए हैं। हालांकि ग्रीनपीस इंडिया इस तरह के आरोपों का खंडन करती रही है।
उल्लेखनीय है कि कई एनजीओ की कार्यशैली तो राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाली रही है। मानवाधिकार, पर्यावरण सुरक्षा, पांथिक स्वतंत्रता, असमानता आदि के नाम पर देश की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को रोका गया है, चाहे वह गुजरात में नर्मदा नदी पर बनने वाली सरदार सरोवर परियोजना हो या फिर तमिलनाडु में परमाणु ऊर्जा संयंत्र वाली कुंडकुलम परियोजना। आईबी ने अपनी रिपोर्ट में बुनियादी संरचना से जुड़ी 7 परियोजनाओं का उदाहरण दिया है जो सिर्फ एनजीओ की अगुआई में हुए विरोध प्रदर्शन के कारण रुकीं। इनकी पूरी गतिविधियों को तथ्यात्मक दृष्टिकोण से देखने पर प्रमाणित हो जाता है कि कुछ बड़े एनजीओ समाज सेवा में कम, विदेशी एजेंट की भूमिका में ज्यादा सक्रिय हैं। खुद सरकार ने भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस बात को संसद में माना। सरकार ने संसद में कहा कि प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के कुछ नक्सली काडर ने फिलीपींस की कम्युनिस्ट पार्टी से प्रशिक्षण लिया था। इसे भारत विरोधी गतिविधियों में जर्मनी, फ्रांस, हालैंड, तुर्की और इटली के माओवादी संगठनों से मदद मिल रही है।
गृह राज्यमंत्री किरन रिजीजू ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में बताया कि विभिन्न संगठनों को 2012-13 के दौरान विदेशी मदद के तौर पर 164 देशों से 11,838 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। रिजीजू कहते हैं कि अगर इस पूंजी का स्रोत अवैध है, तो जांच की जानी चाहिए। अगर पूंजी वैध तरीके से जुटाई गई है और उसका गैर-कानूनी गतिविधियों में इस्तेमाल किया जा रहा है तो जरूरत पड़ने पर कार्रवाई की जाएगी। बकौल रिजीजू देश भर में बड़ी तादाद में गैर-सरकारी संगठन काम कर रहे हैं। इनमें ज्यादातर विभिन्न मंत्रालयों, विभागों की योजनाओं से जुड़े हैं। विदेशी सहायता पाने वालेे एनजीओ की निगरानी गृह मंत्रालय करता है। दरअसल इस निगरानी प्रक्रिया के दौरान विदेशों से चंदा लेने वाले 10,000 से ज्यादा गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को गृह मंत्रालय ने कुछ समय पहले नोटिस भी जारी किया था। कारण, इन एनजीओ ने सरकार को लगातार तीन वित्तीय वषोंर् का ब्योरा नहीं दिया था। गृह मंत्रालय ने तब यह कदम आईबी की रिपोर्ट के तीन महीने बाद उठाया जिसमें खुफिया एजेंसी ने विदेशों से चंदा लेने वाले कई एनजीओ के कथित तौर पर विकास विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने की बात कही गई। पड़ताल में गृह मंत्रालय ने पाया कि 10,331 संस्थाओं ने वित्तीय वर्ष 2009-10, 2010-11 और 2011-12 के लिए अनिवार्य वार्षिक वित्तीय ब्योरा नहीं दिया।
बंगलादेश में विस्फोट की एक घटना ने विवादित इस्लामिक मत प्रचारक जाकिर नाइक के संगठन को लेकर भी कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए। कारण, बंगलादेश सरकार ने आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए विवादित जाकिर नाइक और उसके संगठन को जिम्मेदार ठहराते हुए उस प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद नाइक के संगठन की पड़ताल शुरू हुई तो उसे मिलने वाले विदेशी फंड का धीरे-धीरे खुलासा होने लगा। 1 जुलाई, 2016 को बंगलादेश की राजधानी ढाका में एक कैफे पर हमला कर एक भारतीय सहित 20 बंधकों को मौत के घाट उतारने वाले पांच आतंकवादियों में से दो उसके भाषणों से प्रेरित थे। यहां बता दें कि मुंबई में इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन (आईआरएफ) के संस्थापक नाइक के अन्य पंथों को निशाना बनाने वाले जहरीले भाषणों को लेकर उस पर ब्रिटेन और कनाडा में प्रतिबंध है। नाइक द्वारा संचालित आईआरएफ इन आरोपों के कारण विवाद में है कि वह आतंकवाद के लिए युवाओं को उकसाता है। जांच में यह भी बात सामने आई कि जाकिर नाइक के रिश्तेदारों के नाम पर भी 50 से 60 करोड़ रुपए का लेन-देन हुआ। इस बीच राजीव गांधी फाउंडेशन पर भी विवादास्पद जाकिर नाइक के एक एनजीओ से 50 लाख रुपये का चंदा लेने-देने को लेकर सवाल उठे। नाइक के इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन को 'प्राथमिकता सूची' में रखने वाले केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार इस एनजीओ ने राजीव गांधी फाउंडेशन से संबद्घ संस्था राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट (आरजीसीटी) को 2011 में चंदा दिया था।
इस सिलसिले में एनजीओ चलाने वाली तीस्ता सीतलवाड की चर्चा करना भी जरूरी हो जाता है। कारण, गुजरात दंगों में उसकी संदिग्ध भूमिका और इस दौरान उसके एनजीओ को मिले विदेशी फंड को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) एनजीओ चलाने वाली सीतलवाड क्या विदेशों के इशारे पर काम कर रही है? यह सवाल उठता रहा है। कारण, तीस्ता सीतलवाड विदेशी से जुड़े सूत्र का खुलासा खुद उसके पूर्व सहयोगी रईस खान पठान ने अदालत में जमा अपने एक हलफनामे में किया था। रईस खान के मुताबिक तीस्ता के पास विदेशों से हवाला के जरिए जमकर पैसा आता रहा। गुजरात दंगों से पहले जनवरी 2001 से दिसंबर 2002 के बीच सीतलवाड़ व उसके पति जावेद आनंद के यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में खुले बचत खाते में कोई भी रकम नहीं थी, लेकिन गुजरात दंगे के बाद न केवल उन्होंने कई बैंकों में खाते खोले बल्कि करोड़ों रुपए भी खातों में आ गए। मसलन, तीस्ता के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के बचत खाते में वर्ष 2002 से मई 2013 के बीच 1.5 करोड़ रुपए जमा हुए। इसी दौरान उनके पति जावेद के बचत खाते में भी 92 लाख 21 हजार रुपए जमा हुए। तीस्ता-जावेद दंपती का आईडीबीआई बैंक में भी बचत खाता है, जिसमें 2005-13 के बीच करीब 98 लाख रुपए जमा हुए हैं। दंगे के बाद तीस्ता के आईडीबीआई व यूनियन बैंक खाते में क्रमश: 2 करोड़ 11 लाख एवं 1 करोड़ 28 लाख रुपए जमा हुए हैं। तीस्ता के पूर्व सहयोगी रईस खान पठान के मुताबिक, दंगा पीडि़तों की मदद के लिए आए इस दान के धन को तीस्ता व उसके पति ने फिक्स्ड डिपोजिट, मार्केट शेयर और म्युच्युअल फंड में निवेश कर खूब मुनाफा कमाया। तीस्ता ने दंगा पीडि़तों की मदद के लिए 'सबरंग ट्रस्ट' और 'सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस' नामक एनजीओ बना रखा है। अप्रैल 2007 से 2013 के बीच सबरंग ट्रस्ट के फेरा खाते में एक करोड़ 38 लाख रुपए का विदेशी चंदा आया। तीस्ता के एनजीओ पर फेरा के उल्लंघन का मामला भी सामने आ चुका है।
वैसे मेधा पाटकर, लेखिका अरुंधती राय और परमाणु ऊर्जा विरोधी पी़ उदयकुमार वे नाम हैं जो कई जन परियोजनाओं का विरोध करते रहे हैं। मसलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन चलाकर मेधा पाटकर ने नर्मदा नदी पर 800 मीटर ऊंची सरदार सरोवर बांध परियोजना का लगातार विरोध किया, जिसकी वजह से यह परियोजना 6 साल तक लटकी रही। मेधा पाटकर ने इस परियोजना को वनवासियों के लिए नुकसानदायक बताया था, लेकिन आज इस परियोजना के कारण ही दाहोद जिले में नर्मदा नदी से वनवासी फल व सब्जियों की खेती कर रहे हैं। मेधा ने पुनर्वास का मुद्दा उठाकर गुजरात से लेकर दिल्ली तक धरना-प्रदर्शन करते हुए इस परियोजना को ठप कर दिया था, लेकिन आज यह परियोजना पूरा होने को है और कोई भी व्यक्ति बेघर नहीं हुआ है। बल्कि गुजरात सरकार के पुनर्वास कार्यक्रम को पूरी दुनिया ने सराहा है। अक्तूबर 2000 में सवार्ेच्च न्यायालय ने सरदार सरोवर बांध परियोजना को रोकने से मना कर दिया था।
पी़ उदयकुमार की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। तमिलनाडु के तिरुनेलवेल्ली जिले में स्थित कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र का उन्होंने विरोध किया। पी़ उदयकुमार अरविंद केजरीवाल की आआप पार्टी से कन्याकुमारी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। पी़ उदयकुमार ने सड़क से लेकर अदालत तक इस परियोजना को रोकने की जबरदस्त कोशिश की लेकिन आखिर में 6 मई 2013 को सवार्ेच्च न्यायालय से उनको झटका लगा। सवार्ेच्च न्यायालय ने कुडनकुलम परमाणु प्लांट को यह कहते हुए मंजूरी दे दी कि प्लांट लोगों के कल्याण और विकास के लिए है। न्यायालय ने दलील दी कि देश और लोगों के विकास को देखते हुए इस प्लांट पर रोक नहीं लगाई जा सकती। वर्तमान और भविष्य में देश में परमाणु प्लांट की जरूरत है, इसलिए कुडनकुलम प्लांट को बंद नहीं किया जा सकता है। इस परियोजना के विरोध के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साइंस पत्रिका को दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम कुछ एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया है। इन एनजीओ में से अधिकांश अमेरिका के हैं। वे बिजली आपूर्ति बढ़ाने की हमारे देश की जरूरत को नहीं समझते। वहीं अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ओडिशा के बरगढ़ में एक किसान रैली में कहा था कि सरकार चाहती है कि विदेशों से वित्त पोषित एनजीओ को जवाबदेह होना चाहिए और कानून के दायरे में काम करना चाहिए। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर सवार्ेच्च न्यायालय से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक एनजीओ की कार्यप्रणाली को जवाबदेह और पारदर्शी बनाए जाने पर ही जोर क्यों देते रहे हैं?
कई एनजीओ पर तो ऐसे पुख्ता आरोप हैं कि वे कन्वर्जन की गतिविधियों में लिप्त हैं जो हिंदुओं को ईसाई या मुस्लिम बनाने में लगे हुए हैं। इन गैर सरकारी संगठनों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। एक वे, जिन्हें ईसाई देशों से धन मिलता है। दूसरे वे, जिन्हें मुस्लिम देशों से धन मिलता है और तीसरे वे, जो जाति और समुदाय की दिशा में काम करते हैं और जिन्हें समाज के तथाकथित वामपंथी झुकाव वाले बौद्धिक वर्ग का समर्थन मिलता है। हद तो यह कि अतिवादी विचारधारा के मार्ग का अनुसरण करते हुए इन लोगों में से कई भारत के संवैधानिक ढांचे में विश्वास नहीं करते।
सालों से बचपन बचाओ आंदोलन के कार्य में लगे और शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी कहते हैं, ''गैर-सरकारी संगठनों में नैतिक जवाबदेही का बहुत अभाव है। नैतिकता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। अगर बेहतर भारत और समाज को बेहतर बनाना है तो यह जवाबदेही अनिवार्य है। मैंने अपने 40 साल के सार्वजनिक जीवन में सब तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। इसमें समाज में जनचेतना का ज्वार भी देखा है तो आंदोलनों में क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत युवा शक्ति का जोश भी। वैचारिक प्रदूषण फैला रहे और ज्ञान विलासिता कर रहे उन एनजीओ को भी देखा है जिन्होंने सामाजिक बदलाव और समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है। इनमें से अधिकांश लोग समाज के हाशिए पर खड़े जिस व्यक्ति के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा ले रहे हैं और बढि़या रपट बना रहे हैं, उस गांव के गरीब को तो उन्होंने देखा तक नहीं है। कन्वर्जन के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। पिछले करीब दो दशकों में एनजीओ का एक वर्ग सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि करियर बनाने का जरिया बन गया है।''
उधर मीडिया एसोसिएशन फॉर सोशल सर्विस के संस्थापक सदस्य और अधिवक्ता श्याम मनोहर वर्मा कहते हैं, ''पहले लोग सामाजिक कल्याण के लिए सामाजिक संस्थाएं बनाते थे, पर अब कॉर्पोरेट जगत, नौकरशाह और राजनीतिकों के साथ-साथ उनके नाते- रिश्तेदार भी एनजीओ बना रहे हैं। ऐसे में सबका अपना अलग-अलग एजेंडा है। वैसे बुराई एनजीओ बनाने में नहीं है और न ही चंदा लेेने में है, पर असल सवाल यह है कि एनजीओ जिस लिए बनाया गया है क्या वह उस उददेश्य पर काम कर रहा है? यदि वह देश-विदेश से पैसा चंदा लेे रहा है तो उसका उपयोग जन सेवा के लिए कर रहा है या किसी और कार्य के लिए। सिविल सोसायटी के नाम पर जिस तरह से दिल्ली और देश के दूसरे भागों में कुछ एनजीओ संगठनों ने चोला बदलकर सत्ता में घुसपैठ की है, वह देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। आम आदमी के नाम पर चंदे और सत्ता का खेल अधिक दिन नहीं चल सकता।''
दरअसल एनजीओ को लेकर जिस तरह के गंभीर सवाल सामने आ रहे हैं, सिविल सोसायटी आर्गनाइजेशन और एनजीओ के सामने उससे साफ निकल आने की चुनौती है। उन्हें यह स्पष्ट करना होगा कि दुनियाभर के 164 से अधिक देशों के दानदाताओं की रुचि भारत में क्यों है और वे भारत के नाम पर 10,000 करोड़ से अधिक की रकम क्यों खर्च करने को तैयार हैं, जबकि जिन मुद्दों के लिए वे भारत में पैसा खर्च कर रहे हैं, उससे जुड़ी समस्याएं उनके अपने देश में कम नहीं हैं?
लाख टके का सवाल यह भी है कि यदि कोई आंदोलन पांच साल के लिए चलता है तो उस आंदोलन में कितने पैसे की मदद, कहां-कहां से आई, इसकी जानकारी आंदोलन चलाने वाला संगठन सार्वजनिक क्यों नहीं करता ?
विदेशों से वित्त पोषित एनजीओ को जवाबदेह होना चाहिए और कानून के दायरे में काम करना चाहिए।
—नरेंद्र मोद, प्रधानमंत्री
विकास के विरोधी
पी़ उदयकुमार ने तमिलनाडु के तिरुनेलवेल्ली जिले में स्थित कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध किया। उदयकुमार अरविंद केजरीवाल की आआपा से कन्याकुमारी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। उन्होंने सड़क से लेकर अदालत तक इस परियोजना को रोकने की जबरदस्त कोशिश की, लेकिन आखिर में 6 मई 2013 को सवार्ेच्च न्यायालय से उनको झटका लगा। सवार्ेच्च न्यायालय ने कुडनकुलम परमाणु प्लांट को यह कहते हुए मंजूरी दे दी कि प्लांट लोगों के कल्याण और विकास के लिए है। वर्तमान और भविष्य में देश में परमाणु प्लांट की जरूरत है, इसलिए कुडनकुलम प्लांट को बंद नहीं किया जा सकता है। इस परियोजना के विरोध के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साइंस पत्रिका को दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम कुछ एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया है। इन एनजीओ में से अधिकांश अमेरिका के हैं।
घेरे में जाकिर
बंगलादेश में विस्फोट की एक घटना ने विवादित इस्लामिक मत प्रचारक जाकिर नाइक के संगठन इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन (आईआरएफ) पर बंगलादेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। नाइक के संगठन की पड़ताल शुरू हुई तो उसे मिलने वाले विदेशी फंड का धीरे-धीरे खुलासा होने लगा। 1 जुलाई, 2016 को बंगलादेश की राजधानी ढाका में एक कैफे पर हमला कर एक भारतीय सहित 20 बंधकों को मौत के घाट उतारने वाले पांच आतंकवादियों में से दो उसके भाषणों से प्रेरित थे। नाइक के अन्य पंथों को निशाना बनाने वाले जहरीले भाषणों को लेकर उस पर ब्रिटेन और कनाडा में प्रतिबंध है। नाइक द्वारा संचालित आईआरएफ इन आरोपों के कारण विवाद में है कि वह आतंकवाद के लिए युवाओं को उकसाता है। नाइक के रिश्तेदारों के नाम पर भी 50 से 60 करोड़ रुपए का लेन-देन हुआ।
परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम कुछ एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया था।
—मनमोहन सिंह पूर्व प्रधानमंत्री
अगर पूंजी वैध तरीके से जुटाई गई है और उसका गैर-कानूनी गतिविधियों में इस्तेमाल किया जा रहा है तो जरूरत पड़ने पर कार्रवाई की जाएगी।
— किरन रिजीजू ,गृह राज्यमंत्री
कुछ लोगों ने सामाजिक बदलाव और समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है। कन्वर्जन के लिए भी एनजीओ का इस्तेमाल किया जा रहा है। एनजीओ का एक वर्ग सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि करियर बनाने का जरिया बन गया है।
— कैलाश सत्यार्थी, नोबेल पुरस्कार विजेता
कुछ एनजीओ ने चोला बदलकर सत्ता में घुसपैठ की है। यह लोकतंत्र और देश दोनों के लिए खतरा है।
— श्याम मनोहर वर्मा, अधिवक्ता
अवरोधक 'ग्रीन पीस'
पर्यावरण रक्षा के नाम पर काम करने वाली संस्था 'ग्रीन पीस' लगातार विवादों में रही है। 2015 में 'इम्पेक्ट ऑफ एनजीओज ऑन डेवेलपमेन्ट' नाम से जारी गुप्तचर ब्यूरो की रिपोर्ट में उल्लेख है कि विदेशों से मिले पैसों के दम पर भारत में कुछ गैर सरकारी संस्थाएं देश के विकास से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध कर रही हैं। पर्यावरण और समुद्र की रक्षा के लिए काम करने वाला ग्रीनपीस एनजीओ मुख्य तौर पर मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए चर्चा में रहा। आईबी ने इस एनजीओ को देश के विकास में अवरोधक बताया। उक्त रिपोर्ट में कोयला खदान, ऊर्जा परियोजना, परमाणु ऊर्जा प्लांट के खिलाफ अभियान चलाने वाले 12 विदेशियों के नाम भी हैं जो ग्रीनपीस सहित कुछ अन्य एनजीओ से सीधे जुड़े हुए हैं। हालांकि ग्रीनपीस इंडिया इस तरह के आरोपों का खंडन करती रही है।
आंकड़ों की जुबानी
सीबीआई के रिकार्ड के मुताबिक सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत 30 लाख एनजीओ में से सिर्फ 3 लाख एनजीओ ही सालाना हिसाब-किताब दाखिल करते हैं। कुछ राज्यों में तो पैसों के लेन-देन को पारदर्शी बनाए रखने के लिए कानून तक नही हैं। उत्तर प्रदेश में ही लगभग 5 लाख स्वयंसेवी संगठन पंजीकृत हैं, जबकि महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है। देश भर में लगभग 32,09,044 एनजीओ पंजीकृत हैं।
तीस्ता का बदरंग सबरंग
तीस्ता सीतलवाड़ की गुजरात दंगों में संदिग्ध भूमिका और इस दौरान उसके एनजीओ को मिले विदेशी फंड को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) एनजीओ चलाने वाली सीतलवाड क्या विदेशों के इशारे पर काम कर रही है? कारण, तीस्ता सीतलवाड का खुलासा खुद उसके पूर्व सहयोगी रईस खान पठान ने किया था। रईस खान के मुताबिक तीस्ता के पास विदेशों से हवाला के जरिए जमकर पैसा आता रहा। गुजरात दंगों से पहले जनवरी 2001 से दिसंबर 2002 के बीच सीतलवाड़ व उसके पति जावेद आनंद के यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में खुले बचत खाते में कोई भी रकम नहीं थी, लेकिन गुजरात दंगे के बाद न केवल उन्होंने कई बैंकों में खाते खोले बल्कि करोड़ों रुपए भी खातों में आ गए। मसलन, तीस्ता के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के बचत खाते में वर्ष 2002 से मई 2013 के बीच 1.5 करोड़ रुपए जमा हुए। इसी दौरान उनके पति जावेद के बचत खाते में भी 92 लाख 21 हजार रुपए जमा हुए। तीस्ता-जावेद दंपती का आईडीबीआई बैंक में भी बचत खाता है, जिसमें 2005-13 के बीच करीब 98 लाख रुपए जमा हुए हैं। दंगे के बाद तीस्ता के आईडीबीआई व यूनियन बैंक खाते में क्रमश: 2 करोड़ 11 लाख एवं 1 करोड़ 28 लाख रुपए जमा हुए हैं। दंगा पीडि़तों की मदद के लिए आए इस दान के धन को तीस्ता व उसके पति ने फिक्स्ड डिपोजिट, मार्केट शेयर और म्युच्युअल फंड में निवेश कर खूब मुनाफा कमाया। तीस्ता ने दंगा पीडि़तों की मदद के लिए 'सबरंग ट्रस्ट' और 'सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस' नामक एनजीओ बना रखा है। अप्रैल 2007 से 2013 के बीच सबरंग ट्रस्ट के फेरा खाते में एक करोड़ 38 लाख रुपए का विदेशी चंदा आया।
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