स्वामी विवेकानंद पर विवेकहीन बातें
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स्वामी विवेकानंद पर विवेकहीन बातें

by
Jan 30, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Jan 2017 15:34:27


वामपंथी और सेकुलर बुद्धिजीवी स्वामी विवेकानंद की कुछ बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं और उन पर गलतबयानी भी करते हैं। ये लोग विवेकानंद विचार को लेकर भ्रम पैदा करने की कोशिश भी कर रहे हैं। वामपंथियों की शिकायत यह भी है कि स्वामी विवेकानंद ने हिंदुत्व पर ही सबसे अधिक जोर क्यों दिया

प्रशांत बाजपेई

वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर' भारत के समाज के लिए स्वामी विवेकानंद का यह प्रसिद्ध वाक्य है। गत 12 जनवरी  को उनकी जयंती पर एक प्रसिद्ध हिंदी अखबार ने अपने संपादकीय पृष्ठ पर स्वामी जी के इस वचन को तोड़ते-मरोड़ते हुए 'इस्लामी शरीर और वैज्ञानिक बुद्धि'  शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया। देखते ही माथा ठनका कि यह कैसी पा्रमाणिकता है जो एक इतिहास पुरुष के बाकायदा दस्तावेजी बयान को अपनी वैचारिक रूढि़ के अनुसार विकृत करती है, और यह कैसी बुद्धिजीविता है जिसे इस्लामी शरीर तो स्वीकार है लेकिन वेदांती बुद्धि नहीं?
सबसे पहले यह जानना ठीक होगा कि विवेकानंद का वास्तविक वचन और उनका अभिप्राय क्या था। 10 जून, 1898 को अल्मोड़ा से स्वामी विवेकानंद ने मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखा, ''हमारी मातृभूमि के लिए एक ही आशा है वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर।'' (देखें- पत्रावली, विवेकानंद साहित्य संचयन, रामकृष्ण मठ, नागपुर)। ऐसा कहने के पीछे स्वामी जी का क्या आशय था, इसे भी उन्होंने इस पत्र के मध्य भाग में स्पष्ट किया है।  वे लिखते हैं कि इस्लाम के अनुयायी  समानता के भाव का अंश रूप में पालन करते हैं परंतु उसके गहरे अर्थ से अनभिज्ञ हैं, उसे (मानव मात्र की समानता के तत्व को) हिंदू साधारणत: स्पष्ट रूप से समझते हैं (परंतु पूरी तरह आचरण नहीं कर रहे हैं, संकेत जातिगत रूढि़यों और तब प्रचलित कुरीतियों की ओर है।)। इस्लाम के अनुयायियों द्वारा 'समानता के सिद्धांत का अंश रूप में पालन' का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए 'विश्वधर्म का आदर्श' नामक प्रसिद्ध भाषण में स्वामीजी कहते हैं, ''मुसलमान विश्वबंधुत्व का शोर मचाते हैं, किन्तु वस्तुत: वे भ्रातृभाव से कितनी दूर हैं। जो मुसलमान नहीं हैं, वे भ्रातृ-संघ में शामिल नहीं किए जाएंगे। उनके गले काटे जाने की ही अधिक संभावना है। ईसाई भी विश्व बंधुत्व की बातें करते हैं, किन्तु (उनकी मान्यता के अनुसार) जो ईसाई नहीं हैं, वह (मृत्यु के बाद) अवश्य ही ऐसे एक स्थान में जाएगा, जहां अनंतकाल तक वह (नरक की) आग से झुलसाया जाए।''
वेदांत दर्शन क्या है, इसे 12 नवंबर, 1897 को उन्होंने लाहौर में युवकों के सामने दिए गए अपने भाषण में समझाते हुए कहा था, ''भारतीय  मन को बाहरी जगत से (अर्थात् भौतिक अथवा सांसारिक पदाथोंर् से) जो कुछ मिलना था, मिल चुका था, परंतु उससे इसे (भारत के मन को ) तृप्ति नहीं हुई। अनुसंधान के लिए वह और आगे बढ़ा। समस्या के समाधान के लिए उसने अपने में ही गोता लगाया और तब यथार्थ  उत्तर मिला। वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद् या वेदांत या आरण्यक या रहस्य।'' आगे विवेकानंद समझाते हैं कि भारत के विभिन्न मत संप्रदायों में प्रचलित कर्म-कांड, अनुष्ठान और विभिन्न पूजा-पद्धतियों आदि के सार को समझने के लिए वेदांत की आवश्यकता है। ऐसे में वेदांती बुद्धि को वैज्ञानिक बुद्धि बनाकर उसे इस्लामी शरीर से जोड़ने की 'सेकुलर' जरूरत को समझा जा सकता है। प्रामाणिकता और ईमानदारी का तो पूछना ही क्या, आखिर प्रमाणपत्र बांटने वाले भी यही लोग हैं।
पिछले कुछ अरसे में विवेकानंद से खफा तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात उभरी है। इसके ज्यादातर महारथी वामपंथी खेमे से आते हैं। विवेकानंद से उन्हें सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे हिंदुत्व के ऐसे प्रतीक हैं जो आज युवाओं के बीच पहले से भी अधिक तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। ऐसे में हिंदुत्व को खुद के लिए चुनौती मानने वाले अब विवेकानंद को लेकर भ्रम पैदा करने के अभियान में जुट गए हैं। आधी-अधूरी समझ लेकर राजनीतिक दृष्टिकोण से टीका-टिप्पणियां  की जा रही हैं एवं आधे-अधूरे उद्धरणों को लेकर तमाशा खड़ा करने के प्रयास हो रहे हैं। कुछ समय पहले एक किताब आई 'कॉस्मिक लव एंड ह्यूमन इम्पैथी : स्वामी विवेकानंदाज रिसेंटमेन्ट ऑफ रिलीजन'। पुस्तक के लेखक की पहली शिकायत या आरोप है कि विवेकानंद ने हिंदुत्व पर सारा जोर दिया है, जबकि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के वचनों के संग्रह 'रामकृष्ण कथामृत' में हिंदू शब्द नहीं आता। आरोपकर्ता लेखक ने यदि थोड़े से सहज ज्ञान का उपयोग किया होता, या वैसी उनकी नीयत होती तो उन्हें ध्यान में आ सकता था कि रामकृष्ण परमहंस हिंदुओं के छोटे समूह के बीच ही बोल रहे थे, तीर्थयात्रा के अतिरिक्त वे कभी बाहर भी नहीं निकले, अत: अलग से हिंदू संबोधन के प्रयोग का औचित्य नहीं था। साथ ही परमहंस की बातों का केंद्र उनके शिष्यों की व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना और इस मार्ग की कठिनाइयों आदि के बारे में रहा है। जबकि विवेकानंद वैश्विक श्रोताओं को संबोधित कर रहे थे। उनकी सार्वजनिक चर्चाओं का सारा जोर सामाजिक है। अत: उन्होंने भारत के सारे विचार और भाव समूह को संयुक्त रूप से हिंदू कहकर संबोधित किया है। जब वे व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना की बात करते हैं तब हिंदू या यूरोपीय जैसी भौगोलिक या सांस्कृतिक पहचानों की बात नहीं करते। इसका प्रमाण हैं उनकी राज

लेखक की दूसरी शिकायत है कि विवेकानंद ने हिंदुत्व को वैश्विक उपासना पद्धति (यूनिवर्सल फेथ ) के रूप में प्रस्तुत किया है। यह आरोप भी झूठा है। इसे विस्तार से समझने की जरूरत है। पहली बात यह है कि हिंदुत्व इस्लाम और ईसाइयत जैसा फेथ ( विश्वासियों का समूह) नहीं है। यहां न एक किताब है, न एक पैगंबर, न ही एक पूजा-पद्धति। यहां हजारों सालों से गुरु और शिष्य अपनी इच्छानुसार अलग-अलग  साधना पद्धतियों की खोज करते आए हैं। गीता में ही कृष्ण ने अनेक उपासना पद्धतियों की शिक्षा दी है जिसमें उन्होंने प्रेमयोग, भक्तियोग, राजयोग, कर्मयोग आदि को समझाया है। योग के अंदर भी अनेक धाराएं  विकसित हुई हैं। सभी ने महान गुरुओं को जन्म दिया है। इसी परंपरा को विवेकानंद ने हिंदुत्व कहा है, जैसा कि उनके शिकागो के भाषण से स्पष्ट है। भारत की वैदिक परंपरा और वेदांत उपनिषद् आदि भी व्यक्ति के स्वभाव और रुचि के अनुसार अपना मार्ग चुनने को कहते हैं।
सभी लोग एक ही ढंग से चलें, ऐसा आग्रह ही सारे अनथोंर् की जड़ है। इस बारे में विवेकानंद 'विश्वधर्म का आदर्श' नामक भाषण में कहते हैं, ''बहुत्व में एकत्व का होना सृष्टि का विधान है। हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी परस्पर पृथक हैं। मनुष्य जाति के एक अंश के रूप में मैं और तुम एक हैं, किन्तु व्यक्ति के रूप में मैं तुमसे पृथक हूँ। पुरुष होने से तुम स्त्री से भिन्न हो, किन्तु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं। ईश्वर है वह विराट सत्ता—इस विचित्रता भरे जगत का चरम एकत्व। उस ईश्वर में हम सभी एक हैं, किन्तु हमारे प्रत्येक बाहरी कार्य और चेष्टा में यह भेद सदा ही विद्यमान रहेगा। इसलिए विश्व धर्म का यदि यह अर्थ लगाया जाए कि एक प्रकार के विशेष मत (पंथ) में संसार के सभी लोग विश्वास करें, तो यह सर्वथा असंभव है। यह कभी नहीं हो सकता। ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जब सब लोगों का मुंह एक रंग का हो जाए और यदि हम आशा करें कि समस्त संसार एक ही पौराणिक तत्व में विश्वास करेगा, तो यह भी असंभव है, यह कभी नहीं हो सकता।  फिर, समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्ठान पद्धति प्रचलित नहीं हो सकती। ऐसा किसी समय हो नहीं सकता, हो भी जाए, तो सृष्टि लुप्त हो जाएगी। कारण, विविधता ही जीवन का मूल है।'' विश्व में सर्वसमावेशक सोच और गहरी समझ विकसित करने की आवश्यकता बताते हुए विवेकानंद कहते हैं, ''यह सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो, इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समानभाव  से रहेंगे।  यदि कॉलेज से वैज्ञानिक और भौतिकशास्त्री आएं तो वे तर्क-वितर्क पसंद करेंगे।  उनको  युक्ति-तर्क करने दो, अंत में वे एक ऐसी स्थिति पर पहुंचेंगे, जहां से युक्ति-तर्क की धारा छोड़े बिना वे और आगे बढ़ ही नहीं सकते, वे यह (स्वयं ही) समझ लेंगे।़.़.''  ''इसी तरह यदि कोई योगप्रिय व्यक्ति आए, तो हम उनकी आदर के साथ अभ्यर्थना करके वैज्ञानिक भाव से मन का विश्लेषण कर देने और उनकी आंखों के सामने उसका प्रयोग दिखाने को प्रस्तुत रहेंगे। यदि भक्त लोग आएं, तो हम उनके साथ एकत्र बैठ कर भगवान के नाम पर हंसेंगे और रोएंगे, प्रेम का प्याला पीकर उन्मत्त हो जाएंगे। यदि एक पुरुषार्थी कर्मी आए, तो उसके साथ पूरी शक्ति से काम करेंगे। भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म का इस प्रकार का समन्वय विश्वधर्म का अत्यंत निकटतम आदर्श होगा।''
स्वामी विवेकानंद द्वारा व्यक्त मूलभूत एकता का यह विचार ही उपनिषद् या वेदांत या आरण्यक या रहस्य के रूप में हजारों साल पहले अभिव्यक्त हुआ है। इस विचार को पूरी ताकत से व्यवहार में उतारने को ही उन्होंने 'वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर' कहकर व्यक्त किया है। एक अंग्रेजी अखबार ने मानव की मूलभूत एकता का चिंतन करने वाले विवेकानंद को जातिवाद का प्रतीक बताया। 'कॉस्मिक लव एंड ह्यूमन इम्पैथी ़.़.' के लेखक ने विवेकानंद के विचारों को तोड़-मरोड़कर उन्हें जातिवाद का समर्थक बताया है जो ब्राह्मण जाति के सामाजिक प्रभुत्व की वकालत करते हैं। इससे बड़ा झूठ कुछ हो नहीं सकता। विवेकानंद ने साफ कहा है कि जन्म के आधार पर जाति का अभिमान करना व्यर्थ है और वैदिककाल में वर्णों के विभाजन का आधार व्यक्तिगत स्वभाव था, न कि किसी घर में जन्म लेना। उनके अनुसार ब्राह्मण अर्थात् सत्य के अनुसंधान के लिए सब कुछ दांव पर लगा देने वाला। और इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणत्व को मानवता का सवार्ेच्च आदर्श बताया। यह ब्राह्मणत्व गुरु रैदास और कबीर में, गुरु गोबिंद और रामकृष्ण परमहंस में झलकता है। 3 जनवरी, 1895 को, शिकागो से उन्होंने जस्टिस सुब्रमण्यम अय्यर को लिखा, ''अमेरिका में यथार्थ जाति के विकास के लिए सबसे अधिक सुविधा है। इसलिए अमेरिका वाले बड़े (सफल) हैं।'' अब अमेरिका में कौन-सी जाति प्रचलित है? वहां तो एक ही व्यवस्था है, व्यक्ति अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार काम करे।
अपनी जाति का अभिमान करने और दूसरों को कम समझने वालों पर उन्होंने तीखी चोट करते हुए एक लेख लिखा है, 'भारत की उच्च जातियों के प्रति।' इसमें वे लिखते हैं, ''कितना भी 'डमडम' कह कर गाल बजाओ, तुम ऊंची जात वाले क्या जीवित हो? तुम लोग हो दस हजार वर्ष पूर्व के ममी! जिनकी 'सचल श्मशान' कहकर तुम्हारे पूर्व-पुरुषों ने घृणा की है। भारत में जो कुछ वर्तमान जीवन है, वह उन्हीं (महान पूर्वजों के कारण) में है और सचल श्मशान हो तुम लोग। तुम्हारे घर-द्वार म्यूजियम हैं, तुम्हारे आचार-व्यवहार, चाल-चलन देखने से जान पड़ता है, बड़ी दादी के मुंह से कहानियां सुन रहा हूं। तुम्हारे साथ प्रत्यक्ष वार्तालाप करके भी घर लौटता हूं, तो जान पड़ता है, चित्रशाला में तस्वीरें  देख आया। इस माया के संसार की असली प्रहेलिका, असली मरु-मरीचिका तुम लोग हो भारत के उच्च वर्ण वाले।''
भारत के वंचित वर्ग को समर्थ बनाने का आह्वान करते हुए वे लिखते हैं, ''फिर एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, जाली, माली, मोची, मेहतरों की झोंपडि़यों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाडि़यों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने सहस्र-सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है— उससे पाई है अपूर्व सहिष्णुता।  सनातन दु:ख उठाया, जिससे पाई है अटल जीवनी-शक्ति। ये लोग मुट्ठी भर सत्तू खाकर दुनिया उलट सकेंगे।  आधी रोटी मिली, तो तीनों लोक में इतना तेज न अटेगा। ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं। और पाया है सदाचार-बल, जो तीनों लोक में नहीं है। इतनी शांति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम।''
वे कहते हैं कि अपने झूठे अभिमान को त्यागकर कान लगाकर सुनो तुम्हें भविष्य के भारत की आवाज सुनाई पड़ेगी, ''अतीत के कंकाल-समूह! यही है तुम्हारे सामने तुम्हारा उत्तराधिकारी भावी भारत। वे तुम्हारी रत्नपेटिकाएं, तुम्हारी मणि की अंगूठियां – फेंक दो इनके बीच, जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो, और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। तुम ज्यों ही विलीन होगे, उसी वक्त सुनोगे, कोटि कंठों से निनादित त्रैलोक्यकम्पनकारिणी भावी भारत की उद्बोधन ध्वनि वाहे गुरु की फतह!''

 

सत्य को जानने के लिए नीयत का भी बड़ा महत्व है। आश्चर्य क्या, कि विवेकानंद की आलोचना में पूरी किताब लिखने वाले लिक्खाड़ों को उनके ये वचन सुनाई नहीं पड़ते।
उन्हें चुभता है जब विवेकानंद कहते हैं,  ''वेदांत दर्शन का एक ही उद्देश्य है और वह है —एकत्व की खोज। हिंदू लोग किसी विशेष के पीछे नहीं दौड़ते, वे तो सदैव सर्वमान्य की, यही क्यों, सर्वव्यापी सार्वभौमिक की खोज करते हैं। 'वह क्या है, जिसके जान लेने से सब कुछ जाना जा सकता है ?' यही उनका विषय है। जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पर जगत की सारी मिट्टी को जान लिया जा सकता है, उसी प्रकार ऐसी कौन-सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर जगत की सारी वस्तुएं जानी जा सकती हैं। उनकी यही एक खोज है, यही एक जिज्ञासा है।''अब हिंदू के अलावा दूसरा कौन-सा शब्द है जिससे इस भारतीय विचार को बताया जाए। वेदों में हिंदू शब्द नहीं है, उपनिषद् गीता आदि में भी नहीं है। हजारों साल पहले इस तरह के निरूपण की आवश्यकता ही नहीं थी। जब सारी दुनिया के साथ तुलना शुरू हुई तब भारत की संस्कृति, यहां के  विचार, मूलभूत संस्कार को हिंदू कहा जाने लगा। भौगोलिक पहचान के रूप में भारत को हिंदुस्थान या हिंदुस्तान भी कहा जाए। अब किसी की राजनीति पर चोट पड़ती हो तो पड़े। किसी को चुभता हो तो चुभे।  विवेकानंद डंके की चोट पर सत्य बोलते हैं। बेधड़क, बेलाग, बिना द्वेष के।
मद्रास के हिंदुओं द्वारा भेजे गए अभिनंदन पत्र का उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा, ''अब पांसे पलट गए हैं। जो हिंदू निराशा के आंसू बहाता हुआ अपने पुराने घर को आततायियों द्वारा जलाई गई आग से घिरा हुआ देख रहा था, आज जबकि आधुनिक विचार के प्रकाश ने धुंए के अंधेरे को हटा दिया है, तब वही हिंदू देख रहा है कि उसका अपना घर पूरी मजबूती के साथ खड़ा है और शेष सब या तो मर मिटे या अपने-अपने घर हिंदू नमूने के अनुसार नए सिरे से बना रहे हैं।''  
विवेकानंद के ये वचन आज वर्तमान बनकर हमारे सामने हैं। दुनिया में योग का डंका बज रहा है। दुनियाभर में ध्यान की कक्षाएं चल रही हैं। वैश्विक समाज का  प्रबुद्ध वर्ग मत-मतांतरों और संप्रदायों की सीमा लांघकर सत्य को स्वीकार कर रहा है। भारत की नई पीढ़ी उत्साह के साथ आधुनिक और पुरातन का मेल बिठाने को प्रतिबद्ध दिख रही है। सत्य के लिए      संघर्ष को तैयार है। यही है वेदांती बुद्घि और इस्लामी शरीर।      ल्ल

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