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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल ने विश्व पुस्तक मेले में 'सामाजिक समरसता और हिन्दुत्व' तथा 'दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन' नाम से दो पुस्तकों का लोकार्पण किया। सुरुचि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इन पुस्तकों के विमोचन के अवसर पर डॉ. कृष्णगोपाल से पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर की सामाजिक समरसता और हिन्दुत्व विषय पर विस्तृत चर्चा हुई। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश :
संघ सृष्टि से बाहर 'हिन्दुत्व' शब्द ज्यादा सुनाई देता है जबकि संघ से बाहर 'समरसता' शब्द का प्रयोग बहुत कम होता है। आपकी दृष्टि में इन दोनों शब्दों की क्या परिभाषा है?
पिछले लगभग डेढ़ हजार वर्षों से हिन्दू समाज लगातार बाहर से आए आक्रमणकारियों से संघर्षरत रहा है। वे आक्रमणकारी यहां के समाज में विलीन भी हो गए। अनेक बार यहां का समाज पराजित हुआ। हारने के कारण से हिन्दू समाज में बहुत तरह की कुरीतियां घर कर गई थीं। उन कुरीतियों में एक वह है जिसके कारण हिन्दू समाज अपने बंधुओं को ही अपने से अलग मानने लगा। इस वजह से वे दूर किए गए बंधु अपने-अपने खोल में सिमटते चले गए और इसलिए पिछले 12, 13, 1,400 वर्षों के अंदर हिन्दू समाज के अंदर अस्पृश्य भाव पैदा हो गया। इससे पहले किसी दर्शन में इसका उल्लेख नहीं मिलता। भगवान बुद्ध के समय यह भाव कहीं नहीं दिखता, उपनिषदों में नहीं दिखता। इसकी उत्पत्ति हुई पिछले डेढ़ हजार वर्षों के अंदर। आज हमारा देश स्वतंत्र है, लेकिन स्वतंत्र होने के पहले से ही इस देश में लगातार अस्पृश्यता के विरोध में लोग खड़े होते रहे हैं। हमने प्रयत्नपूर्वक इस समाज के अंदर जो भेदभाव था, छुआछूत थी, उसको न मानने के लिए संघर्ष जारी रखा। वही संघर्ष समरसता लाने का संघर्ष है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रारंभ किया है, ऐसा नहीं है। कबीर को पढ़ें, वे भी वही बात बोलते हैं कि भेदभाव खत्म करो। रैदास भी वही बोलते हैं-भेदभाव खत्म करो। गुरुनानक देव जी ने वही बात बोली है-जातिभेद, छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच समाप्त करो। जो काम उन्होंने किया वही काम स्वामी विवेकानंद ने किया, वही काम महर्षि दयानंद ने किया, वही काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। अर्थात् पिछले हजार-डेढ़ हजार वर्षों से समाज में आई कुरीतियों को दूर करके एक समरसतापूर्ण जीवन, सबके प्रति आत्मीयता रखने वाला जीवन हमारे समाज में फिर से दिखाई दे। हर प्रकार का जातिभेद समाप्त हो जाए। एक रस, एकात्म। आत्मीयता के बोध वाला। उसी को एक सरल-सा शब्द दिया है-समरस जीवन। इसलिए इस शब्द का प्रयोग रा.स्व.संघ ने किया है। संघ ने आत्मीयता के आधार पर सारे समाज को अपना माना है। इसलिए संघ समरसता का प्रयोग अधिक करता है। हम किसी भी जातिगत भेदभाव के आधार पर किए व्यवहार को कभी भी स्वीकार नहीं करते। इसके कारण लोगों को थोड़ा अजीब-सा लगता होगा। अब दूसरे शब्द यानी हिन्दुत्व की चर्चा करें तो, हजारों वर्षों से समय-समय पर सनातन परंपरा से जो समाज चला आ रहा है, उसके शब्द बदलते चले गए। कभी यहां के लोगों को आर्य कहा, कभी यहां के लोगों को सनातनधर्मी कहा गया। लेकिन पिछले 1,200 वर्षों में यहां के सारे समाज को हिन्दू शब्द से संबोधित करने का स्वभाव बन गया है। यह बात भी ठीक है कि यहां के लोग अपना कोई विशेष नाम प्रयोग नहीं करते थे। इस्लाम के आक्रमण के बाद, आक्रमणकारी और दूसरे, ऐसा विभाजन हुआ। हिन्दू समुदाय कहीं भुला दिया गया। लेकिन जो समाज सनातन परंपरा को मानता है, हमारे अनुसार वह सारा समाज हिन्दू है। जो सनातन परंपरा के अच्छे आदर्श, सिद्धांतों को मानता है, उस सिद्धांत को, उस दर्शन को, उस व्यवहार को हम लोग हिन्दुत्व के नाम से जानते हैं। इस देश की धरती पर पैदा हुए सभी दर्शन, सभी विचार, जो सबको एक मानते हैं, सबको समान मानते हैं, सम्मान करते हैं और सबकी मंगलकामना करते है, इस समन्वित भाव को हम लोग हिन्दुत्व मानते हैं।
इन दोनों शब्दों के अंग्रेजी में समानार्थक नहीं मिलते। हिंदुत्व को हिन्दुइज्म लिखते हैं। क्या हिन्दुइज्म और हिन्दुत्व एक ही हंै?
ये इज्म शब्द पाश्चात्य जगत से आया है। इज्म का अर्थ है कि कोई व्यक्ति कोई सिद्धांत देता है, कोई विचार देता है, वह एक खांचे में आ जाता है, उसके बाहर जाना तो संभव नहीं होता। इसलिए जो हम हिन्दुत्व बोलते हैं इसका कोई खांचा नहीं है, इसकी कोई आउटलाइन बाउंड्री नहीं है, क्योंकि इसमें हर दिन कोई भी व्यक्ति एक नया विचार देता है। इसमें एक नया एडिशन कर देता है। इसलिए सनातन परंपरा का एक प्रवाह है। यह प्रवाह निरंतर चलता है, निरंतर नई-नई बातें जुड़ती हैं, नई-नई खोज होती और ये नई खोजों को प्रोत्साहित करता है, नये विचार को स्वीकार करता है, उनका सम्मान करता है। इसी निरंतर प्रवाह को हम लोग कहते हैं हिन्दुत्व। हिन्दुनेस या हिन्दुत्व न कि इज्म, इज्म कहते ही एक वाद हो जाता है। वाद होता है तो एक सीमा बन जाती है तो एक परिभाषा निश्चित हो जाती है, जिसके अंदर रहना होता है। मार्क्सवाद या समाजवाद या पूंजीवाद, ये सब इज्म हैं। इसी प्रकार मानो कोई बोल देता है क्रिश्चियनिज्म, इस्लामिज्म, तो इसमें एक निश्चित विचार है, उसको बदला नहीं जा सकता। उसमें एडिशन नहीं कर सकते। उसकी आलोचना भी नहीं कर सकते। लेकिन हिन्दुत्व इन सबकी छूट देता है, इसकी अनुमति देता है। इसलिए गांधीजी कहते हैं-सत्य की निरंतर खोज का नाम हिन्दुत्व है। इस खोज को विराम नहीं लगाना है। इसी खोज को महर्षि दयानंद अच्छी प्रकार से समझाते हैं, उसी सत्य को स्वामी विवेकानंद अलग तरह से समझाते हैं, आदि शंकराचार्य समझाते हैं, उपनिषद् समझाते हैं, भगवान बुद्ध समझाते हैं, उसी सत्य को महावीर समझाते हैं। हजारों लोग अपने-अपने प्रकार से उस सत्य को समझाते हैं। ये जो निरंतरता है, ये हमेशा नई, अच्छी चीजों को जोड़ते चलने का सनातन प्रवाह है, इसी को हिन्दुत्व कहते हैं। हिन्दुत्व एक व्यक्ति द्वारा शुरू किया गया नहीं है, एक पुस्तक को आधार मानकर नहीं चल रहा है। इसकी एक निश्चित परिभाषा नहीं है। हर दिन मानव का कल्याण, संपूर्ण सृष्टि का कल्याण, यही आधार है। इस पर जो विचार आएगा वह हिन्दुत्व का ही प्रकाश करेगा। इसलिए हमने कहा, हिन्दुत्व एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का नाम है। निरंतर चलने वाले प्रवाह का नाम हिन्दुत्व है।
हाल में देश ने दो मनीषियों के जन्मशताब्दी वर्ष मनाए, एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय और दूसरे संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस जी। राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में देखें तो—पालों में बंटी राजनीति और जातियों में बंटा समाज— यह स्थिति आज भारत की वास्तविकता बन गई है। आप इस जातिभेद और राजनीति को कैसे देखते हैं?
देखिए, यह बात सच है कि पूरे देश में जाति का भेद थोड़ा गहरा है, क्योंकि एक व्यक्ति के लिए जाति जन्मना हो गई है। लेकिन जाति को लेकर, जन्म को लेकर भेद करना, जन्म को लेकर उसको छोटा या बड़ा मान लेना गलत है। ये कुरीति है। हां, जब यह व्यवस्था बनायी होगी तब समय-काल की क्या आवश्यकता रही होगी, क्या स्वरूप रहा होगा, उसको हम नहीं जानते। आज यह अव्यावहारिक है, यह पक्की बात है। लेकिन कुछ लोगों के निहित स्वार्थ होते हैं, राजनीतिक स्वार्थ होते हैं। उनको लगता है कि मैं जाति का आह्वान करूंगा तो मेरी जाति के लोग मेरा समर्थन करेंगे। और इसलिए वे जाति को बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं, जाति को आधार बनाकर अपना वोट बैंक बनाने की कोशिश करते हैं। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है। व्यक्ति का चुनाव उसकी योग्यता के आधार पर होना चाहिए, उसके गुणों के आधार पर होना चाहिए। मान लीजिए सांसद चुनते वक्त जनता का दायित्व बनता है कि किसी योग्य व्यक्ति को चुने। वह किस जाति का है, यह कोई अर्थ नहीं रखता। महत्वपूर्ण है कि उसकी शिक्षा क्या है, उसकी क्षमता क्या है, योग्यता क्या है, समाज के प्रति उसकी संवेदना कैसी है, समाज का हित चाहने का उसका स्वभाव कैसा है, उसकी कर्मठता कैसी है, उसकी सत्यनिष्ठा-प्रामाणिकता कैसी है। लेकिन दुर्भाग्य से देश में राजनीतिक वातावरण में जाति का महत्व बन गया है। यह ठीक नहीं है। और इसलिए दीनदयाल जी, जो जनसंघ में तो थे लेकिन रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक थे, उन्होंने अपने उदाहरण से एक समझ दी थी। जौनपुर से वे लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे। वहां के लोगों ने कहा कि पंडित जी, यहां आपकी जाति वालों की बहुत संख्या है, एक बार उन लोगों की मीटिंग ले लीजिए, आप चुनाव जीत जाएंगे। दीनदयाल जी ने कहा, ''मैं अपनी जाति के लोगों के साथ बैठकर उनको यह बताऊं कि मैं इसी जाति का हूं इसलिए मुझे वोट देना, इससे अच्छा तो मैं चुनाव हार जाना समझूंगा।'' वे ऐसी किसी मीटिंग में नहीं गए। और चुनाव हार गए। अपनी जाति के नाम पर वोट मांगना किसी प्रकार से लोकतंत्र के लिए सम्मानजनक बात नहीं है।
दूसरे, बालासाहब देवरस राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे। वे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन चलाते थे। उन्होंने भी जीवन भर यह प्रयत्न किया कि व्यक्ति का सम्मान उसके गुण के आधार पर हो, उसके कर्तृत्व के आधार पर हो, उसकी क्षमता के आधार पर हो। अपने समाज के अंदर से हर प्रकार का भेदभाव, वैमनस्य, ऊंच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य, छोटे-बड़े का भाव जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया। किसी भी बिरादरी वाले व्यक्ति के घर जाकर वहां भोजन करना, किसी भी जाति-बिरादरी वाले की समस्या का समाधान करने के लिए आगे आना। सारे देश के संघ स्वयंसेवकों का आह्वान करना कि जाओ, उन बस्तियों में जाओ जहां और लोग नहीं जाते, उन्हें अपने घर में बुलाओ जिन्हें लोग अपने घर में बुलाने की हिम्मत नहीं करते। समाज समरस हो, एकात्म हो। बालासाहब देवरस जी ने सामाजिक क्षेत्र में, तो दीनदयाल जी ने सामाजिक के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी जातिभेद, वैमनस्यता मिटाने के प्रयत्न किए। इसलिए यह अच्छी बात है कि हमने इन दोनों महापुरुषों के जन्म का 100वां वर्ष मनाते हुए समाज से इस कुरीति को मिटाने के प्रयत्न किए, संकल्प लिए।
पहले वर्ण व्यवस्था थी। आज शासकीय व्यवस्था में क्लास वन और फोर्थ क्लास सर्विस है। शासकीय और सामाजिक व्यवस्था में पदक्रम के अनुसार किसी का शोषण न हो, इसका कोई दर्शन हो सकता है? दूसरे, यह भूमण्डलीकरण का दौर है। क्या वह दर्शन भारत से बाहर पूरी दुनिया के लिए अपनाया जा सकता है?
प्राचीनकाल में हमारे देश में वर्ण व्यवस्था थी, वैदिक काल में थी। लेकिन यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ऋषि कौन होता था और ऋषि होने की शर्त क्या थी। ऋग्वेद में महिलाएं भी ऋषि हैं। उन्होंने वैदिक मंत्र दिये हैं। सूर्या, सावित्री हैं, घोषा है, अपाला है, वैवस्वति है, इंद्राणी है। पुरुषों में हम देखेंे तो ऋषि महिदास शूद्र हैं, कवष एलूष शूद्र हैं। ये बहुत बड़े विद्वान थे। इन्होंने वैदिक मंत्र दिये हैं। शूद्र कुल में उत्पन्न हुए तो भी ऋषि परंपरा में उनका एक स्थान था। तब वर्ण थे लेकिन जन्म से नहीं थे। योग्य होने पर ही कोई ऋषि पद पा सकता था। कालांतर में वह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। अब व्यक्ति का स्थान उसके गुण से ही तय होता था। उसके कर्म से होता था। उसकी अपनी योग्य क्षमताओं से होता था। वर्तमान युग में सारी दुनिया में भिन्न-भिन्न प्रकार के समूह बन रहे हैं। अध्यापक अर्थात् बच्चों को अच्छे संस्कार देने वालों का समूह है। उसको ऐसा आचरण करना चाहिए जैसा वह बच्चों से चाहता है। काम करने वाले मजदूरों का एक समूह है। अच्छे इंजीनियर हैं, डॉक्टर हैं, प्रशासनिक अधिकारी हैं, उनका एक समूह है। और श्रमिक वर्ग है, उनका भी एक समूह है। अब चार नहीं, छह प्रकार के समूह बन सकते हैं। लेकिन मौलिक बात क्या है? सबके अंदर बैठा हुआ परमात्मा, ईश्वर, आत्मा, जीव, हम जो भी बोलेंं, वह सबमें समान है। वह सबकी समानता का संदेश देता है। सबके अंदर की जो आत्मा है, सबके अंदर का जो जीव है वह एक ही है। वह ये सब भेद नहीं मानता। कोई राजा है, कोई मंत्री है अथवा कोई दुकान करने वाला व्यक्ति है। कोई छोटा काम करने वाला कम वेतन पाने वाला हमारा श्रमिक है। सबके बीच कोई भेद नहीं होना चाहिए। किसी परिवार में चार लड़के होते हैं। उनमें से एक बहुत अच्छा पढ़ ले, एक बहुत अच्छा व्यापार कर ले, कोई कम पढ़ा-लिखा खेती कर ले, तो मां उन सबसे कैसा व्यवहार करती है? पिता कैसा व्यवहार करता है? चारों का एक सा ध्यान रखा जाता है। पैरों से कोई कमजोर है, अस्वस्थ है, तो उसकी खास देखभाल करते हैं। समाज में कर्म के अनुसार, दायित्व के अनुसार, क्षमता के अनुसार, उनके स्थान के अनुसार वर्ग बन सकते हैं, लेकिन भेदभाव नहीं होना चाहिए। सबके अंदर एकात्म भाव ही चाहिए और यह भाव तभी पैदा होगा जब हम इस बात को सैद्धांतिक रूप से मान लेंगे। सब मनुष्य समान हैं। वह धरती के किसी भी कोने में हो सकता है। वह काले रंग का है, गोरा है, पीला है, लंबा है, छोटा है, विद्वान है, निरक्षर है, धनवान है, गरीब है आदि बातों को भुलाते हुए सब समान हैं। किसी को अवसर नहीं मिला तो नहीं पढ़ पाया। मुझे मालूम है कि जब मैं पढ़ता था तो मेरे बगल में रहने वाले बच्चे भी मेरे साथ ही पढ़ते थे। कालांतर में उनकी पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं रही, तो वे बच्चे आगे नहीं पढ़ पाये। पांचवी-छठी तक पढ़कर छोटी-मोटी नौकरी में लग गये। मुझे अवसर मिला, उन बच्चों को अवसर नहीं मिला, वे मजदूर हो गये। अवसर मिला तो मैं पढ़-लिख गया। ऐसा अवसर मिलना या न मिलना यह किसी के भी साथ हो सकता है। लेकिन किसी भी सुसंस्कृत समाज में भेदभाव करना अच्छी बात नहीं है। किसी समाज का स्तर इसी बात से आंका जाता है कि वह समाज अपने समाज बंधुओं के साथ कैसा व्यवहार करता है। इसलिए हम लोग हर वर्ग के साथ सम्मानजनक व्यवहार करें। सबके अंदर का मनुष्य समान है, जीव समान है। भारतीय दर्शन इस मौलिक सिद्धांत पर विश्व के सारे मनुष्यों को एक मानता है। यह किसी भी प्रकार के भेदभाव के ऊपर एक अभेद की सृष्टि करता है। समरस की, एकात्म की दृष्टि रखता है। मैं समझता हूं, यही दर्शन सारे भेदभाव को मिटा सकता है। प्रांत का, जाति का, देश का, भाषा का, बोली का, शरीर की रचना आदि किसी भी प्रकार की क्षमता का जो भेद है इसे मिटाने का सामर्थ्य भारतीय मौलिक दर्शन में है। ऐसा मौलिक व्यवहार-दर्शन ही भेदभाव को समाप्त कर सकता है।
वामपंथ समाज को दो खांचों में बांटकर देखता है-शोषक वर्ग और शोषित वर्ग। वह केवल आर्थिक आधार की बात करता है। इस वर्गीकरण के कोई और कारक या पैमाने हो सकते हैं?
यह बात ठीक है कि मार्क्सवाद ने एक सिद्धांत दिया कि दुनिया में दो ही वर्ग हैं-एक वे जो साधन संपन्न हंै और दूसरे वे जो वंचित हैं। उनके पास कुछ नहीं है। हम ऐसा मानते हैं कि ये भेदभाव हो सकता है, लेकिन क्या ये भेदभाव संघर्ष पैदा करके समानता लाएगा? भारत में भी ऐसा भेदभाव है, दुनिया में भी है। भारत का दर्शन, भारत का विचार क्या कहता है? भगवान बुद्ध क्या कहते हैं? भगवान बुद्ध एक राज परिवार में पैदा हुए। समझ आई तो राज परिवार से निकल गए। साधारण वस्त्र पहन लिए। एक भिक्षा का पात्र ले लिया। गांव-गांव, गली-गली, सारे देश में घूमे। अपने जीवन से वे क्या बताते हैं? वे बताते हैं कि जो गरीब है, वह भी अपना है। उसे कुछ देना सीखो। राजा लोग अपना भंडार खोल देते हैं। बड़े-बड़े धनपति अपना भंडार खोल देते हैं। करुणा, ममता, संवेदना, अपनत्व के आधार पर दूसरे को कुछ दें। मेरे पास जो है वह मेरा नहीं है, भगवान का है, समाज का है, इन सबका है। गांधी जी पढ़े-लिखे, अच्छे बैरिस्टर रहे हैं। वकालत छोड़कर साधारण कपड़े पहनकर देशभर में घूमे-संदेश दिया कि दूसरे की जितनी सहायता कर सकते हो, करो। संघर्ष करके लेने या प्रेम से लेने में अंतर है। भारतीय दर्शन, संघर्ष नहीं प्रेम, द्वेष नहीं करुणा, वैमनस्य नहीं मानता। यह किसी भी प्रकार के संघर्ष को टालने की क्षमता वाला दर्शन है। इसलिए मार्क्स के सिद्धांत को मानकर बहुत सारे लोग चले, लेकिन पिछले 50-60 वर्ष में बहुत से देश उस मार्क्सवाद के सिद्धांत को अव्यावहारिक मानकर उससे अपने को बाहर भी ले आये हैं। यूगोस्लाविया, हंगरी, बुल्गारिया, रोमानिया आदि ऐसे बहुत से देश इन सबने कहा कि नहीं। हम तो मार्क्सवाद से अलग हटना चाहते हैं। वे अलग हट गए। इसलिए समाज को सुख संघर्ष में नहीं, प्रेम में ही मिलेगा। यह देश बुद्ध का है। यह देश महावीर का है। यह देश गांधी का है। यह देश विनोबा का है। यह देश करुणा का है। यह देश सामंजस्य का है। यह देश समन्वय का है। यह देश शांति का है। यह देश धर्म का है अध्यात्म का है। यही तथ्य सारे देश में, समाज में सामंजस्य लाएगा और यही भाव संपूर्ण विश्व के अन्दर भी सामंजस्य लाने का सामर्थ्य रखता है यही हमारा वैश्विक दाय है।
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