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राहुल की उलटबांसीकठघरे में 'युवराज'

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Sep 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2016 14:38:19

 

रा. स्व. संघ पर अनर्गल आरोप के संदर्भ में अपने बयानों से पलटते कांग्रेस के 'युवराज' की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। न्यायालय का सख्त रवैया आने वाले दिनों में उनके लिए समस्याएं बढ़ा सकता है

महात्मा गांधी की हत्या के लिए रा़ स्व.संघ को दोषी ठहराने वाले बयान पर मानहानि का मुकदमा झेल रहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के विरुद्ध अदालती मामला अब महाराष्ट्र की निचली अदालत में चलेगा। इस मामले पर बार-बार अपने बयानों से पलटने के कारण चर्चा में रहे राहुल गांधी ने 1 सितंबर की सुनवाई में फिर से पलटी खाई। अब राहुल ने कहा है कि वे अपने पुराने बयान पर कायम हैं। सर्वोच्च न्यायालय में राहुल गांधी के वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि राहुल अपने उस बयान पर कायम हैं कि 'रा.स्व.संघ के लोगों ने ही गांधी जी की हत्या की। राहुल मुकदमा लड़ने के लिए तैयार हैं।' हालांकि राहुल गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय से अपनी याचिका वापस ले ली है। अब वे महाराष्ट्र की निचली अदालत में मानहानि का मुकदमा लड़ेंगे। भिवंडी न्यायालय ने राहुल को पेशी में छूट देने से इंकार कर दिया है। तो अब 16 नवंबर को उन्हें अदालत में पेश होना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री मनमोहन वैद्य ने राहुल के इस कदम पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा,''राहुल क्यों पिछले दो वषोंर् से इस मामले में सुनवाई से बचते रहे? वे बार-बार बयान पलट क्यों रहे हैं? क्या वे सच का सामना करने से कतरा रहे हैं?''

गौरतलब है कि दो साल पहले एक चुनावी सभा में भाषण देते हुए राहुल गांधी ने महात्मा गांधी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार ठहराया था। इस पर एक संघ कार्यकर्ता ने उनके विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर किया। इस मामले के खिलाफ कांग्रेस उपाध्यक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाई थी। उसी पर सुनवाई के दौरान उनके वकील ने कहा कि 'राहुल ने महात्मा गांधी की हत्या के लिए संघ के लिए नहीं बल्कि संगठन से जुड़े लोगों के लिए हत्यारा शब्द का इस्तेमाल किया था'। राहुल गांधी के इस बयान के बाद ट्विटर पर 'पप्पू मुकर गया' ट्रेंड चलता रहा। एक 'यूजर' कमलेश ने लिखा,''…तो आज राहुल गांधी ने वह चीज कर दी जिसके लिए अरविंद केजरीवाल एक मास्टर माने जाते हैं।'' तो किशोर ने लिखा,''राहुल गांधी को लगता है कि वे राजनीति के मामले में शेर हैं, लेकिन न्यायालय के आगे वे मात्र एक बिल्ली हैं।''

हालांकि न्यायालय से बाहर आने के बाद राहुल ने फिर यू टर्न लिया और नया पैंतरा चला। राहुल ने ट्वीट किया,''मैं आर.एस.एस. के घृणित और विभाजनकारी एजेंडे के खिलाफ हमेशा लड़ता रहूंगा। मैं अपने कहे हर शब्द पर आज भी कायम हूं।'' श्री मनमोहन वैद्य ने चुटकी लेते हुए कहा, ''वे किन शब्दों पर कायम हैं- जो उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में दायर हलफनामे में कहे या सार्वजनिक मंच से भाषण के दौरान बोले?''

राहुल गांधी से बिना शर्त माफी की मांग करते हुए श्री वैद्य ने एक अखबार का उदाहरण दिया, जिसने रा.स्व.संघ के बारे में लिखा था- 'गांधी को मारने वाली संस्था'। श्री वैद्य ने कहा, ''द स्टेट्समैन ने वर्ष 2000 में यह संपादकीय प्रकाशित किया था। जब अदालत में वह तथ्य गलत और आधारहीन साबित हो गया, तब उन्होंने माफी मांगी।'' उन्होंने पूछा,''क्या राहुल गांधी और उनकी पार्टी में सत्य के प्रति इतना सम्मान है कि वे ऐसा माफीनामा लिखित में दे सकें और यह गारंटी ले सकें कि वह या उनकी पार्टी भविष्य में झूठ नहीं बोलेगी?''

राहुल गांधी से भी ज्यादा बयानबाजी उनके वकील कपिल सिब्बल कर रहे हैं। उन्होंने एक अंग्रेजी अखबार (इकोनामिक टाइम्स, 26 अगस्त) को दिए एक साक्षात्कार में कहा-''प्रधानमंत्री आरएसएस के प्रचारक हैं। उनसे कहिए कि हमें बताएं कि नाथूराम गोडसे ने संघ से इस्तीफा कब दिया था।'' लेकिन राजनीति के जानकारों का कहना है कि पहले कपिल सिब्बल यह बताएं कि नाथूराम ने संघ का फॉर्म कब भरा था। वैसे शायद इतिहास के जानकार कपिल सिब्बल को यह पता ही होगा कि 1942 में नाथूराम गोडसे ने अपना स्वयंसेवक दल बनाया था जिसका नाम था हिन्दू राष्ट्र दल। सावरकर की जीवनी के लेखक धनंजय कीर ने भी गोडसे द्वारा हिन्दू राष्ट्र दल की स्थापना का जिक्र किया है। एक पुस्तक में नाथूराम गोडसे पर लिखे लेख में उन्होंने इसका जिक्र किया है, जो यह दर्शाता है कि गोडसे ने संघ से अलग होकर अपना अलग संगठन बना लिया था। कई जीवन परिचयों में यह कहा गया था कि गोडसे ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी हिस्सा लिया था। तो क्या यह माना जाए कि वह कांग्रेसी थे? फिर हिन्दू महासभा तो घोषित तौर पर कांग्रेस का हिस्सा रही है। महामना मदनमोहन मालवीय और लाला लाजपत राय जैसे व्यक्तित्व उसके नेता रहे हैं, तो यह माना जाए कि नाथूराम गोडसे कांग्रेसी थे? दरअसल कांग्रेस और वामपंथी नेताओं का रवैया यही रहा है। पंचायत का फैसला सरमाथे, मगर नाला तो यहीं से बहेगा। यानी अदालत कुछ भी कहे, हम तो संघ पर आरोप लगाते रहेंगे। इस कहावत पर वे आज भी डटे हैं और इस झूठ को लगातार फैला रहे हैं। संघ को बदनाम करना उनकी वोट की राजनीति का हिस्सा है।

महात्मा गांधी की हत्या की जांच के लिए 4 मई,1948 को विशेष अदालत गठित हुई थी। उसने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को मृत्युदंड की सजा सुनाई। बाकी पांच आरोपियों को उम्र कैद की सजा हुई। इसी फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि महात्मा गांधी की हत्या से संघ का कोई लेना-देना नहीं है। बाद में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दबाव या भरोसे में लेकर इस मामले को फिर से उखाड़ा गया। वर्ष 1966-67 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 'गांधी हत्या का सच' सामने लाने के लिए न्यायमूर्ति जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में कपूर आयोग का गठन किया। कपूर आयोग ने अपनी रपट में कहा कि 'महात्मा गांधी की जघन्य हत्या के लिए संघ को किसी प्रकार जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता'। न्यायालय और आयोग के स्पष्ट निर्णयों के बाद भी आज तक संघ विरोधी गांधी हत्या के मामले में संघ को बदनाम करने से बाज नहीं आते।

राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करने वाले राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ के भिवंडी कार्यवाह श्री राजेश कुंटे के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने भिवंडी में कहा कि 'आरएसएस के लोगों ने गांधी को गोली मारी'। उसके खिलाफ उन्होंने भिवंडी के न्यायालय में मुकदमा दायर किया। उस मुकदमे के खिलाफ राहुल गांधी ने उच्च न्यायालय में उसे खारिज करने की अर्जी दायर की जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। फिर राहुल गांधी ने सर्चोच्च न्यायालय में धारार 499 को चुनौती देने वाली याचिका दायर की।

दरअसल मानहानि के मामले में दो तरह की धाराएं लगती हैं-दीवानी और आपराधिक। उन्होंने आपराधिक धारा को चुनौती दी थी। एक प्रकरण में जयललिता द्वारा किए गए मानहानि के मुकदमे में सुब्रह्मण्यम स्वामी ने आपराधिक प्रक्रिया कानून के तहत सजा देने के प्रावधान को चुनौती दी थी और कहा था कि सजा संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ है। इस आधार पर उन्हें स्थगनादेश मिल गया था। सुब्रह्मण्यम स्वामी के बारे में दिए फैसले को आधार बनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी एक मामले में अपील की थी और उन्हें स्थगनादेश मिल गया था। इन दोनों मामलों के आधार पर ही राहुल गांधी ने भी अपील की थी और उन्हें भी स्थगनादेश मिल गया था। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों याचिकाओं को मिलाते हुए मई में उनके बारे में फैसला दिया कि यह अनुच्छेद सही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि आप कुछ भी गलत बयानी कर सकते हैं। इसके बाद में उच्च न्यायालय द्वारा याचिका को खारिज किए जाने के खिलाफ राहुल गांधी की धारा 499 को चुनौती देने वाली याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 'हम केवल इस बारे में फैसला कर सकते हैं कि निचली अदालत का फैसला सही है कि नहीं। गोडसे संघ का स्वयंसेवक था या नहीं, इस बारे में नीचे की ही अदालतें सुनवाई करेंगी।' दो महीने पहले अदालत ने राहुल गांधी से कहा था कि 'यदि आप खेद प्रगट करने को तैयार हैं तो हम सहमति के आधार पर कोई फैसला दे सकते हैं।'

लेकिन मामला केवल गांधी हत्या में संघ का हाथ होने के आरोप का ही नहीं है, वरन् कई मामलों में अदालतों के फैसले होने के बावजूद इस आरोप को दोहराए जाने का है। कांग्रेसी बार-बार कहते हैं कि सरकारी कर्मचारी रा.स्व.संघ की किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं ले सकते। हालांकि कई मामलों में उच्च न्यायालय आदि स्पष्ट रूप से फैसला कर चुके हैं कि संघ न तो गैर कानूनी संगठन है, न राजनीतिक दल है, न ही यह विध्वंसक कार्यों में लगा कोई दल है। इसलिए संघ की गतिविधियों में भाग लेने के कारण किसी कर्मचारी को नहीं हटाया जा सकता। इसके बावजूद कई संघ विरोधियों द्वारा इस आशय का प्रचार चलाया जाता रहा है। उनका एक ही मकसद होता है कि सरकारी कर्मचारी संघ से दूर रहें।

विरोधियों द्वारा पैदा की गई गलतफहमियों को बेनकाब करने के लिए हाल ही में एक बहुत उपयोगी पुस्तक-'क्या कहते हैं संघ पर न्यायालय-सुरुचि प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इस पुस्तक में रा़ स्व़ संघ के बारे में विभिन्न उच्च न्यायालयों के 13 निर्णयों के साथ ही एक निर्णय अवैध गतिविधि (निवारण) न्यायाधिकरण का और एक निर्णय उच्चतम न्यायालय का सम्मिलित है। इससे संघ की स्थिति पर कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश पड़ता है और वास्तविकता उजागर होती है। यह पुस्तक अंग्रेजी में साहित्य सिंधु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है। सुरुचि साहित्य ने विनोद बजाज द्वारा किया गया उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया है।

पुस्तक की भूमिका में सुरुचि प्रकाशन ने कहा है-''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम लेकर भिन्न-भिन्न कोनों से जब-तब शोर मचता रहता है। शोर मचाने वाले संख्या में अधिक नहीं होते, शायद इसलिए उन्हें चीख-चीख कर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करना पड़ता है। जब कोलाहल होता है तो लोग उसकी तरफ देखते भी हैं कि कुछ तो बात होगी। ऐसे में यदि दूसरे पक्ष को कोलाहल मचाने की आदत न हो तो दृश्य कुछ एक पक्षीय हो जाता है। उसे संतुलित करने के लिए कुछ बुद्धिजीवियों ने कुछ लिखित तथ्य पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए एकत्र किए हैं। ये आलेख किन्ही संघ से संबधित व्यक्तियों के नहीं वरन् पक्षभेद रहित, मर्यादा और सम्मान के सर्वमान्य उच्च अधिष्ठानों के हैं।''

पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक श्री गुरुजी के भाषण के मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला भी उल्लेखनीय है। 16 दिसंबर, 1954 को श्री गुरुजी का दरभंगा के टाउन हाल में भाषण हुआ था। इस भाषण के खिलाफ सरकार ने मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 153 (क) के तहत दोषी पाया गया और 500 रु. का जुर्माना या जुर्माना न भरने की स्थिति में 6 महीने की जेल की सजा सुनाई गई। सरकार का कहना था कि यह भाषण उपर्युक्त धारा के तहत एक अपराध है। सत्र न्यायाधीश ने फैसला सुनाया कि 'उस भाषण में समाज में घृणा फैलाने की स्पष्ट प्रवृत्ति है, इसका उद्देश्य शत्रुता और घृणा की भावना उत्पन्न करना था।' इसके खिलाफ श्रीगुरु जी ने उच्च न्यायालय में अपील की। उनकी तरफ से ठाकुर प्रसाद और कालिकानंदन सिंह वकील के तौर पर पेश हुए। उच्च न्यायालय की पीठ के न्यायमूर्ति यू ़ एन. सिन्हा ने अपने फैसले में कहा-''प्रश्न यह है कि उपर्युक्त भाषण को समग्र रूप से पढ़ने पर क्या यह कहा जा सकता है कि यह भाषण देकर वक्ता ने एक ओर हिन्दुओं तथा दूसरी ओर मुसलमानों और ईसाइयों के बीच वैर-वैमनस्य की भावना को बढ़ाया या बढ़ाने का प्रयास किया है। मेरे विचार में समग्र भाषण का अवलोकन करने के बाद यह कहना कठिन है कि भाषणकर्ता का आशय भारत के नागरिकों के विभिन्न वगोंर् यथा एक ओर हिन्दुओं तथा दूसरी ओर मुसलमानों और ईसाइयों के बीच ऐसे वैर और घृणा की भावना उत्पन्न करना था। …भाषण लंबा और विषय अनंत थे। …मेरी राय में याचिकादाता के विद्वान वकील द्वारा किया गया पहला तर्क मान्य होना चाहिए कि इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 153 (क) के अंतर्गत अपराध के संघटक सिद्ध नहीं हो पाए हैं।''

इस पुस्तक में उन मुकदमों के बारे में बहुत से फैसले हैं जिनमें संघ के स्वयंसेवकों को संघ की गतिविधियों में शामिल होने के कारण नौकरी से हटाया गया। जैसा बताया गया है, अक्सर कांग्रेस की सरकारें यह प्रचार करती रही हैं कि सरकारी कर्मचारी संघ के कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकते, यदि वह ऐसा करते हैं तो उन्हें बर्खास्त किया जा सकता है। कई कांगे्रसी सरकारों ने ऐसा किया भी है। इस पुस्तक में बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें किसी मामले में संघ की गतिविधियों में भाग लेने के कारण व्यक्ति की सेवाएं समाप्त कर दी गईं, किसी को संघ का स्वयंसेवक होने के कारण सरकारी नौकरी से वंचित रखा गया। इस तरह के बहुत से मामलों में जब पीडि़तों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तो फैसले उनके अनुकूल ही हुए। ज्यादातर फैसलों में यही कहा गया कि संघ के कार्य को न तो विध्वंसक कार्य कहा जा सकता है और न ही गैर कानूनी।

ऐसे ही एक मामले में बंबई उच्च न्यायालय का फैसला बहुत साफ शब्दों में कहता है-'याचिकादाता चिंतामणि के मामले में पहला अभिकथन यह है कि यह रा.स्व.संघ की गतिविधियों से संबद्ध है। तथापि चिंतामणि ने इस अभिकथन को अस्वीकार किया है। हम यह मान लेते हैं कि यह अभिकथन उसके अनुसार सही है। लेकिन रा़ स्व़ संघ ऐसा संगठन नहीं है जिसे गैर कानूनी घोषित किया गया हो। अभिकथन से यह भी स्पष्ट नहीं है कि रा़ स्व. संघ की कौन सी गतिविधियां हैं, जिनमें भाग लेना विध्वंसक है। उस सीमा तक यह कथन अस्पष्ट है। जब तक किसी व्यक्ति के संबंध में यह संदेह करने का उचित आधार न हो कि वह ऐसा कुछ कर रहा है, जो गैर कानूनी है अथवा सार्वजनिक सुरक्षा को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता हो तब तक ऐसा नहीं माना जा सकता।' न्यायालय आगे कहता है कि 'अगला कथन यह है कि चिंतामणि भ्रमण के लिए गया। लेकिन यहां भी यह नहीं बताया गया है भ्रमण का उद्देश्य क्या था? इसलिए किसी अन्य किस्म की जानकारी के अभाव में इसे विध्वंसक गतिविधि कैसे कहा जा सकता है। तीसरा आधार यह है कि उसने संघ के संक्रांति उत्सव में हिस्सा लिया। यह समझना कठिन है कि किसी सामाजिक उत्सव में भाग लेने को कैसे और क्यों विध्वंसक माना जाए? अंतिम आधार है कि वह संघ कार्यालय में गया था।' न्यायालय ने कहा कि 'यह समझ पाना कठिन है कि किस तरह किसी संस्था के कार्यालय में जाने मात्र से यह निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि कोई व्यक्ति विध्वंसक कार्य में संलग्न है।'

कुछ इसी तरह का आदेश इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस. एन. द्विवेदी ने जय किशोर मेहरोत्रा बनाम महालेखाकार, उत्तर प्रदेश के मामले में भी दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा-''इन ब्यौरों पर नजर डालने पर हम यह कह पाते हैं कि याचिकादाता के खिलाफ एकमात्र आरोप यह है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक सदस्य है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कि संपूर्ण आरोप में यह नहीं कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विध्वंसक कायोंर् में लिप्त है। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि संघ गैर कानूनी संस्था नहीं है। यदि यह मान लिया जाए कि वह संघ का सदस्य है तो भी संस्था का सदस्य होने मात्र से यह कैसे मान लिया जाए कि वह विध्वंसक गतिविधियों में संलग्न है।''

इसके अलावा इस पुस्तक में संघ के साथ कई तरह के भेदभाव के मामले दर्ज हैं। एक मामला केरल का है, जिसमें विद्यालय प्रशासन बाकी संस्थाओं को विद्यालय के भवन का इस्तेमाल करने की अनुमति देता है लेकिन संघ के साथ भेदभाव करता है। उस प्रशासन को भी न्यायालय ने आड़े हाथों लिया। ऐसा ही सरकारी लालफीताशाही का मामला है अवैध गतिविधियां अधिकरण का। भारत सरकार ने 30 दिसंबर, 1992 को अवैध गतिविधि (निवारण) अधिकरण का गठन किया था। न्यायमूर्ति पी.के. बाहरी उसके अध्यक्ष थे। उन्हें यह निर्णय करना था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल को 10 दिसंबर,1992 को अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी कर अवैध घोषित किया गया था। इसके लिए पर्याप्त कारण हैं या नहीं।

न्यायाधीश बाहरी ने अपने आदेश में कहा, ''मैं पहले ही अधिनिर्णीत कर चुका हूं कि इन तीनों संगठनों में अंतर्संबंद्ध होने का केंद्र सरकार का अभिवाक प्रथम समीक्षा में सामने आया और यह नया आधार है जो अधिसूचना में उल्लिखित नहीं है। फलत: इसे प्रतिबंध ठहराने के लिए आधार नहीं बनाया जा सकता। अभिवाक से स्वतंत्र कोई सामग्री और साक्ष्य दिखाई नहीं देता, जो अधिसूचना में उल्लिखित आधारों को सत्य सिद्ध करता हो। …आरएसएस के विरुद्ध ऐसी कोई अन्य अधिसूचना में तथ्य समीक्षा तक में प्रस्तुत नहीं किया गया है, जिसमें अधिसूचना में उल्लिखित आधारों का समर्थन होता हो।…उपर्युक्त कारणों से मैं यह अधिनिर्णीत करता हूं कि आऱ एस. एस. को अवैध घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण मौजूद नहीं हैं। आऱ एस़ एस. के संबंध में यह अधिसूचना निरस्त किये जाने योग्य है।''

यह पूरी पुस्तक इस बात की मिसाल है कि सरकारें किस तरह से नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करती हं। जब तक उसे कानूनी अदालत में चुनौती नहीं दी जाती, सत्य सामने नहीं आ पाता।

 

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