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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित शहीद गोविन्द राम वर्मा एवं शहीद रोशनलाल मेहरा के साथी रहे परमानन्द का आलेख:—
परमानन्द
एक शाम डॉ. मथुरा सिंह ने हमसे कहा- ''मेरा काम पूरा हो गया है। अब आगे का तुम जानो। कम से कम दो हजार बमों के लिए मैं काफी सामान एकत्रित कर चुका हूं।'' अमर सिंह ने मेरी ओर देखा और मैंने अमर सिंह की ओर। मानो दोनों एक-दूसरे से पूछ रहे हों कि आगे का इंतजाम कैसे किया जाए तथा इतनी बड़ी तादाद में लोहे के मजबूत खोल (शेल) कहां से और कैसे बनवाये जाएं?
मथुरा सिंह दस-पांच मिनट इधर-उधर की बातें करके चल दिए। इसी सोच-विचार में हम लोग सो गए और मुझे अभी तक याद है कि पूरी बात स्वप्निल योजनाओं में ही बीती। अभी पड़ोस का मुर्गा एक-दो बार ही बांग दे पाया था कि मैंने जीते हुए पहलवान की तरह पास में सोए अमर सिंह को ललकारा-''जग रे! सोता ही रहेगा क्या? जरा पास आकर सुन मेरी बात।'' अमर सिंह ने उनींदे स्वर में कहा—''बता भी, यहां मेरे-तेरे सिवाय सुनने वाला ही कौन है।'' मैंने डपटा उसे—''उठ भी। कुंभकर्णी निद्रा छोड़। जानता नहीं, दीवारों के भी कान होते हैं।'' और तब वह बड़ी जोर से हंसा, हड़बड़ाकर उठा और बिल्कुल करीब आकर बैठ गया।
हम लोगों ने धीर-धीरे कुछ बातें कीं। एक-दो बार उसने टोका, दो-एक बार हिचका और फिर कुल-मिलाकर मेरी योजना पर सहमत हो गया। मैंने अपने बतलाये हुए कार्य के लिए अकेले जाने की बात कही। वह बोला-''सो नहीं होगा। क्या अकेले तुम ही पूरा श्रेय ले लेना चाहते हो? यह नहीं होगा। मैं भी चलूंगा साथ। यश-अपयश, जय-पराजय, जिंदगी-मौत, फांसी या कालापानी, सबमें हम लोग साथ रहेंगे। तुमने ही तो उस दिन चार-पंचों के सामने यह वायदा किया था भाई।''बेमन से मैंने सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी।
अंग्रेज मैनेजर के सामने
सिद्ध-साधक बनकर हम लोग कारखाने के मैनेजर के दफ्तर में प्रविष्ट हुए। बहुत बड़ा लोहे का कारखाना था यह। यहां हजारों तरह की चीजें ढलती और बनती थीं। था तो यह सरकारी, और ज्यादातर सरकार के लिए ही माल बनता था, पर यदा-कदा अंग्रेज सरकार के किसी अप्रतिम भक्त केसरे हिंद, रायबहादुर या राय साहब का काम आ जाता तो थोड़ी सी खानापूरी के बाद उसे भी कर देता था। एक लंबा-चौड़ा भूरी आंखों वाला अंग्रेज मैनेजर था उसका। हर वक्त सिगरेट का धुआं उड़ता रहता था उसके मुंह से, पर मुंह पर तनिक भी कालिमा का आभास नहीं था, मानो सारी कालिख सिमटकर मन पर ही घिर गयी हो।
अंग्रेज मैनेजर से भेंट
हमने अंग्रेजी तहजीब के साथ उससे दुआ-सलाम की और उसके संकेत पर पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गए। उसने प्रश्नभरी दृष्टि हम पर फेंकी, मानो पूछ रहा हो कि हम लोग क्यों आए हैं। मैंने विनम्रता प्रदर्शित करते हुए कहा-''सर सुन्दर सिंह मजीठिया के यहां से आए हैं हम लोग।'' अमर सिंह ने पुट दिया- ''उनकी कोठी के बगीचे को सजाने का काम कर रहे हैं हम लोग आजकल।'' उसे प्रश्न का अवसर दिए बिना मैंने कहा-''बगीचे के चारों ओर हम लोगों ने चहारदीवारी बनवाई है और उस पर खूबसूरत तार खींचने का काम कर रहेे हैं इस समय।''अमर सिंह ने मेरी बात पूरी की-हर पांच फुट पर हमने खूबसूरत लोहे के खंभे लगाए हैं और मजीठिया साहब चाहते हैं कि इन खंभों के ऊपरी भाग को खूबसूरत लोहे के गुंबज से सजाया जाए।''
युक्ति काम कर गई
अंग्रेज मैनेजर हम लोगों के समवेत निवेदन से ऊब सा गया था। झुंझलाकर बोला—''सर सुन्दर सिंह मजीठिया का मेरे लिए क्या हुक्म है? साफ-साफ बतलाइए न।'' मैंने अपनी बात कही-''मजीठिया साहब चाहते हैं कि इन खंभों पर लगाने के लिए लोहे के शेल' आपके कारखाने से बनवा लिए जाएं।''
''कितने शेल की जरूरत है मजीठिया साहब को और कितने बड़े होंगे ये शेल?'' मैंने हाथ के इशारे से 'शेल' का आकार बतलाया और अमर सिंह ने हिसाब लगाकर उनकी संख्या। मैनेजर जरा चौंका-''दो हजार! ये तो बहुत ज्यादा हैं महाशय!'' मैंने निवेदन किया- ''ठीक इतने ही खंभे गाढे़ गए हैं बगीचे की चहारदीवारी में। आपने तो देखा ही है कि उनकी कोठी के आस-पास कितनी लंबी चहरदीवारी है।'' मैनेजर कुछ सोचता-विचारता रहा-एक ओर इसकी सीमाएं थीं दूसरी ओर मजीठिया साहब का आदेश।
कुछ हिचक के साथ मैंनेजर ने कहा- ''ठीक है, कब तक चाहिए आपको?''
अमर सिंह ने कहा-''जब तक सुविधापूर्वक आप दे सकें।''मैंने आवश्यकता की गंभीरता याद दिलायी-''यदि एक सप्ताह में मिल जाएं तो हमारे कारीगरों को खाली नहीं बैठना पड़ेगा।'' मैनेजर ने सिर हिलाया। हम लोग उठकर चलने को तैयार हुए।
मैंनेजर ने हमें रोका-''पर यह तो बतलाइए कि आप शेलों को खंभों पर कसेंगे कैसे? उसके लिए पेंच कसने की गुंजाइश भी तो रखनी होगी, नहीं तो खंभों पर कैसे फिट करेंगे आप? बड़े अफसोस की बात है कि आप लोग बिना पूरी बात बतलाए ही चलने को तैयार हो रहे हैं। और हां, एक कप चाय तो पीते जाइए।'' भद्र मैनेजर ने चाय पिलाई हमें, पेंसिल से 'शेल' का आकार और नक्शा बनाया। हमसे उस नक्शे की स्वीकृति ली और तब तहजीब के साथ हाथ मिलाकर हमें विदा दी उसने।
यथासमय हम लोग मैनेजर के यहां पहुंचे। 'शेल' तैयार रखे थे। हमने बिल चुकाया और 'शेल' लेकर चल दिए। मैनेजर ने चलते-चलते कहा—''मजीठिया साहब से मेरा नमस्कार कहें और जब उन्हें किसी चीज की जरूरत हो, बिना हिचक आप मेरे पास आएं।''
बात आई-गई हो गई। हमारा काम बन गया, कैसे बना यह हमने डॉ. मथुरा सिंह को भी नहीं बतलाया। एक-दूसरे से केवल मतलब भर की बात कहना हम लोगों का उन दिनों स्वभाव सा हो गया था। इतना याद है मुझे अब तक कि कई दिनों तक हमारे साथी 'शेल' के विषय में अपने अंदाज लगाते रहे- ऊटपटांग, मनगढ़ंत और कुछ यों ही। सही बात किसी को पता नहीं लग सकी।
अदालत में
कई दिनों बाद किसी और मामले में पकड़े गए हम लोग। तब कुछ बम 'शेल' भी पकड़े गए हम लोगों के पास से। खोज-खबर से पता लगा कि ये 'शेल' सरकारी कारखाने के बने हुए थे। कारखाने के उस अंग्रेज मैनेजर को पेश किया गया अदालत में। हैरान था बेचारा मैनेजर-उसने 'शेल' बनाकर क्रांतिकारियों को दिए, यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी। उसने स्वीकारा-''हां, एक बार सर सुन्दर सिंह मजीठिया के लिए उसने कुछ शेल अवश्य तैयार करा दिए थे।'' उसने जान-बूझकर तादाद नहीं बताई, शायद। मुझे पेश किया अदालत में मैनेजर के सामने। उसने मुझे पहचाना और क्षुब्ध होकर कहा—''हां, यही युवक मेरे पास आया था, इसी उम्र का एक और नवयुवक साथ था। उन दिनों मजीठिया साहब के यहां काम करते थे ये लोग।'' मैनेजर ने अमर सिंह को भी पहचाना और घटनाओं की कड़ी जोड़कर सारी बातों का सिलसिला समझा। अदालत के बाहर जाते समय उसने झुंझलाते हुए स्वीकार किया—''मैं लज्जा के साथ स्वीकार करता हूं कि इन दोनों नवयुवकों ने जाल बिछाकर मुझे बेवकूफ बनाया और मजीठिया साहब की प्रसिद्धि का बेजा फायदा उठाया।''
न्यायाधीश ने घूरकर मेरी ओर देखा ''तुमको कुछ कहना है नवयुवक?'' मैंने गर्व के साथ स्वीकार किया-''मैनेजर साहब ने जो कुछ कहा है, सही है और मुझे इस बात की खुशी है कि मैं एक होशियार अंग्रेज मैनेजर को मूर्ख बना सका।'' फिर उद्घोष किया मैंने-''यह संसार ही चालाकी और समझदारी की होड़ पर टिका है। मेरे लिए इससे अधिक गौरव की और क्या बात हो सकती है कि इस होड़ में एक अनुभवी अंग्रेज मुझसे पिछड़ गया।''
मैनेजर जा चुका था और न्यायाधीश हतप्रभ सा मेरी ओर देख रहा था।
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