आवरण कथा/साहित्य - साहित्य के यथार्थवाद का यथार्थ
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आवरण कथा/साहित्य – साहित्य के यथार्थवाद का यथार्थ

by
Aug 8, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2016 13:37:16

इसे मात्र विडंबना कहें या फिर कुचक्र कि स्वतंत्रता के लिए हमारा समूचा संघर्ष जिसे इतिहास की पुस्तकों में 'स्वाधीनता संघर्ष' के रूप में लिखा और पढ़ाया जाता है, उसे बीसवीं शती से ही शुरू हुआ बताया गया। काफी समय तक तो 1857 के स्वाधीनता संग्राम को भी 'गदर' ही कहा जाता रहा और अपनी-अपनी रियासतों को बचाने का उपक्रम भर बताया जाता रहा। वास्तव में 1857 की 'स्वातंत्र्य चेतना' को रियासतों का विद्रोह बताने के पीछे एक सोची-समझी चाल थी क्योंकि इसी के बरअक्स वे भारत की उस अजस्र स्वाधीनता की आकांक्षा को मराठों-राजपूतों के विदेशी मुगल-साम्राज्य के विरुद्घ संघर्ष को असफल विद्रोह साबित कर सकते थे, जबकि सच्चाई यह है कि विदेशी आक्रांताओं के विरुद्घ लड़ने और संघर्ष का इतिहास तो चाणक्य से ही शुरू हो जाता है— छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु तेगबहादुर और गुरु गोबिन्द सिंह भारत की उसी विराट और अविरल स्वातंत्र्य आकांक्षा की अभिव्यक्ति थे। 'हिस्टोरियोग्राफी' के हिसाब से इस तरह का भारतीय इतिहास बेशक न लिखा गया हो लेकिन अपना साहित्य विरोध के इस इतिहास का जीवंत दस्तावेज़ है। मध्यकाल के जिस साहित्य को भक्ति-साहित्य कहा जाता है, वह वास्तव में भारतीय जनमानस में अद्भुत ऊर्जा उत्साह और निर्भयता का संचार करने वाला है, इसीलिए जहां एक तरफ कुंभनदास जहांपनाह अकबर के निमंत्रण का जवाब संतन को कहा सीकरी सों काम' कहकर देते हैं तो गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं- 'जाके प्रिय न राम बैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही'। इसलिए भक्ति साहित्य 'कीर्तनियों' का नहीं है बल्कि यह साहित्य जहां एक तरफ अपनी परंपरा और आस्थाओं पर भरोसा दिलाने का साहित्य है तो जिन कारणों से विदेशी आक्रांता हम पर शासन जमाने में सफल हो गए, अपने समाज में व्याप्त उन दुर्बलताओं एवं त्रुटियों का परिष्कार करने वाला भी है।
इसमें किसी को भी रत्ती भर संदेह नहीं होना चाहिए कि बीसवीं सदी में अंग्रेजों के विरुद्घ जो स्वाधीनता संग्राम लड़ा जा रहा था, उसके लिए जनमानस को तैयार करने का काम मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे रचनाकार बखूबी कर रहे थे। क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों की जुबान पर इन कवियों की ही कविताएं रहा करती थीं। समूचा भारतवर्ष 'स्वतंत्र' होने की जिस 'विराट आकांक्षा' में आंदोलित हो रहा था, हिन्दी साहित्यकार उससे अछूता रह भी कैसे सकता था, बल्कि इससे भी बढ़कर सच्चाई यह है कि इनमें से तमाम साहित्यकार न केवल 'शब्द-संघर्ष' कर रहे थे बल्कि साक्षात् उस लड़ाई का भी हिस्सा थे जिसमें क्रांति और सत्याग्रह साथ-साथ चल रहे थे। गुप्त जी की 'भारत-भारती' के गीत तो जन-जन की जुबान पर थे ही प्रसाद 'अरुण यह मधुमय देश हमारा', 'जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा' हिमाद्रि तुंगशृंग से प्रबुद्घ शुद्घ भारती, स्वयंप्रभा, समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती, बढ़े चलो', गीत-कविता लिख रहे थे तो इसी समय 'पुष्प की अभिलाषा' और 'बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी' जैसी कविताओं की धूम थी। सच्चाई यह है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में व्याप्त राष्ट्रीयता की भावना 'भारतीयता' ही है जिसे गांधी जी ने 'हिन्द स्वराज' में रेखांकित किया और साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में। कृष्णदत्त पालीवाल जब इस काल के साहित्य की पड़ताल करते हैं तो बिना किसी हिचक और लाग-लपट के लिखते हैं- 'भारतीयता की यही आहुति हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा में भरी पड़ी है अपार भंडार के साथ। यह भारतीयता की ही अवधारणा है, जिसका विस्तार रामायण महाभारत और पुराणों में हुआ। उपनिषदों और आरण्यकों में हुआ। पूरे भारत की पीड़ा रामायण है और महाभारत न्याय और कर्त्तव्य की पुकार। गीता और भागवत पुराण भारतीयता की महिमा का विस्तार करते हैं- नर के नारायण बनने की व्याख्या का संदर्भ यहां जुड़ता है। यहां भारतीय बनाम राष्ट्रीयता खोखला स्वाभिमान नहीं है- न नस्लवाद का दंभ। हमने अपने स्रोतों को पहचानकर, प्रतीकों को पहचानकर उनसे शक्ति पाई और जनजागरण के साथ इतिहास का पुन:पाठ किया। भारत को मातृभूमि के साथ पूजा और वंदेमातरम् का संकल्प साधारण किया। तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारे समूचे स्वाधीनता संग्राम में रचनाकारों के अपने समृद्घ अतीत की गौरवमयी स्मृति ने सर्वाधिक महती भूमिका अदा की। इसी बीच अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम में भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ और फिर प्रगतिशील लेखक संघ का गठन। लेखकीय स्वतंत्रता का पक्षधर कहे जाने वाले लेखकों के इस संगठन का हाल यह था कि लेखक संगठन का सचिव कौन होगा, अन्य पदाधिकारी कौन होंगे- यह भी स्वयं लेखक नहीं तय करते थे बल्कि राजनैतिक दल यानी कम्युनिस्ट पार्टी का पोलित ब्यूरो तय करता था/है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन हुआ जिसमें अध्यक्षीय वक्तव्य प्रेमचंद ने दिया-हालांकि प्रेमचंद उसमें सम्मिलित नहीं होना चाहते थे, लेकिन विडंबना देखिये कि जिस पे्रमचंद ने यहां कहा था आगे चलने वाली मशाल है, उसका यथार्थ इन प्रगतिशीलों के लिए अपने संगठन का पदाधिकारियों का चुनाव भी पोलित ब्यूरो से  साहित्य राजनीति ने स्वीकारा-यही नहीं, राजनीतिक दल की पिछलग्गुता का हश्र यहां तक हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई तो लेखक संघ भी कई हो गए- प्रलेस, जलेस और न जाने कितने। दुनिया भर के मजदूरों को एक होने का नारा देने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों की भारत में ही कितनी संख्या है – इसका सही उत्तर देना बहुत मुश्किल है। यह सही है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने सबसे अधिक ध्यान लेखकों-रचनाकारों को दिया, उन्होंने कलम और शब्द की ताकत को पहचाना और अब तक हिन्दी कविता जो 'हिमालय के आंगन में उसे प्रकृति का पहला 'उपहार' कहती थी-'लाल रूस को लाल सलाम' ठोकने लगी। 'लाल रूस को लाल सलाम' लिखने वाला रचनाकार कवि शिरोमणि हो गया और साहित्य के इतिहासों में उद्धृत होने लगा। प्रगतिवाद के नाम पर हिन्दी कविता अपने 'रूप' और 'वस्तु' दोनों से ही स्खलित हो गयी। स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के साथ आए देश विभाजन पर वामपंथी दलों और उनकी सोच तो जगजाहिर है लेकिन पिछले दिनों कभी मार्क्सवादी रहे भगवान सिंह जैसे लेखक ने फेसबुक पर 'प्रगतिशीलों' की 'सच्चाई' को जैसा उघाड़ कर रख दिया है। वह उद्धरण साहित्य और इतिहास लेखन में होने वाले कुचक्रों की एक-एक परत खोलकर रख देता है। स्वतंत्रता के पश्चात् के साहित्य के 'यथार्थ' को समझने के लिए ये टिप्पणियां सचमुच बहुत उपयोगी हैं जो अब 'किताबघर' से प्रकाशित 'इतिहास और वर्तमान' नाम से पुस्तकाकार रूप में भी उपलब्ध हैं। पिछले दिनों दादरी में हुई घटना के पश्चात् जिस प्रकार से सम्मान, पुरस्कार वापसी का अभियान-सा शुरू हुआ उसी दौर में पुस्तक में संकलित इन टिप्पणियों का लेखन भी। आपातकाल में भवानी प्रसाद मिश्र ने अपना विरोध प्रतिदिन तीन कविताएं लिखकर दर्जकराया था जिसे उन्होंने 'त्रिकाल संध्या' का नाम दिया था, लगभग उसी प्रकार भगवान सिंह ने 5 अक्तूबर 2015 से 30 दिसम्बर तक नित्यप्रति देश के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर जम कर बहस की -मंच था 'सोशल मीडिया'-'सीधे फेसबुक पर पाठकों की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित करते हुए पुस्तक लिखने का यह शायद पहला प्रयोग हो! मित्रों ने जिस मुक्त भाव से इसका स्वागत किया और अपनी उदार टिप्पणियों से मेरा उत्साहवर्द्घन किया वह मेरे लिए भी अविश्वसनीय था।' इन टिप्पणियों में भगवान सिंह ने 'डेविल्स एडवोकेट' की भूमिका निभाते हुए उन सभी प्रश्नों-मुद्दों को विस्तार से उठाया है जिसे वामपंथी लेखक लगातार रटते रहे हैं, और फिर उन्हीं प्रश्नों के उत्तर भी पूरी संजीदगी से, तकार्ें-उदाहरणों से दिये हैं। इस बहस में लगभग वे सभी विषय आ गए हैं जिनके ईद-गिर्द पिछली आधी शताब्दी में विमर्श होता रहा है।
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस आधी शती में विमर्श में वामपंथी रुझान के विचारकों का वर्चस्व रहा है, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान सिंह इस वर्चस्व के कारणों की तह तक गए हैं। उन्होंने अपने साथ एक मार्क्सवादी को रखा है जिससे वे निरंतर संवाद करते हैं। उस अनाम मार्क्सवादी से उन्होंने वही तर्क, प्रश्न, प्रमाण और मुद्दे उठवाए हैं जो मार्क्सवादी निरंतर उठाते हैं, और फिर भगवान सिंह उनका उत्तर देते हैं। इस पूरे प्रकरण में शायद ही कोई ऐसा प्रश्न बचा हो जो अब तक मार्क्सवादी विचारक उठाते रहे हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि लेखक, मार्क्स एंगेल्स, हीगेल, नीत्शे को साथ-साथ उद्धृत भी करता चलता है, ताकि प्रमाणों में कहीं किसी तरह के संशय की गुंजाइश न रह जाए। पिछले कई दशकों से स्वयं मार्क्सवादी होने के कारण लेखक उस भाषा और मुहावरे को अंदर से जानता है जिसमें वामपंथी 'बुद्घिजीवी' बहस करते हैं, इसलिए यह समूची बहस बड़ी रोचक भी बन पड़ी है और एकदम 'पेनीट्रेटड' भी-सीधे-सीधे जवाब। 1930 के दशक से ही साहित्य में वामपंथी विचार का दबदबा रहा है, इसलिए अज्ञेय को अपवाद मान कर छोड़ दें तो वामपंथ की पूंछ पकड़े बिना शायद ही कोई रचनाकार साहित्य्ि ाक भवसागर की वैतरणी को पार कर सका हो, लेकिन इस साहित्य के 'यथार्थ' की असलियत को जब भगवान सिंह उघाड़ते हैं तो काफी कुछ साफ हो जाता है-''जिसे हम अपना साहित्य कहते हैं वह हमारी भाषा में, उनका साहित्य है। उनका साहित्य भी नहीं, उनका साहित्य लिखने की कोशिश मात्र है, जो न हमारे लोगों के काम का है, न उनके। हां, यदि उसमें इस बात का चित्रण है कि हम कितने गर्हित हैं, तो इस पर वे तालियां बजाना नहीं भूलते। इसे हमारे लेखक दाद समझ लेते हैं और अपना जीवन सार्थक मान लेते हैं। हमने औपनिवेशिक मानसिकता के कारण अग्रणी देशों जैसा बनने की कोशिश में उनकी नकल की।' साहित्य के 'समाजशास्त्र' और समाज के प्रति उत्तरदायी या 'सामाजिक सरोकारों' की बात तो खूब कही गई, लेकिन जैसे राजनैतिक नारों से न समाज का कुछ भला हुआ, न गरीबी हटी वैसे ही इस साहित्य से समाज में कुछ बदला। लेखक की सफलता की कसौटी जो उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव से तय होनी थी वह पुरस्कारों से ही होने लगी- 'मैं उस व्याधि को समझा रहा था जिसके चलते लिखा बहुत कुछ जा रहा है पर समझ तक नहीं पहुंच रहा है और लेखक पुरस्कारों को पाने और खोने को, अनूदित होने और न होने को लेखकीय सफलता की कसौटी मानने लगे हैं। हमें अपने पुराने कलारूपों में आज की चुनौतियों के अनुसार कुछ निखार लाना था और इस दिशा में प्रयोग करते हुए एक नया सौन्दर्यशास्त्र विकसित करना था, वह नहीं किया। राजनीति करने लगे। राजनीतिक घटियापन को साहित्यिक चुनौतियों से अधिक प्राथमिकता देने लगे''-भगवान सिंह जब यह सवाल उठाते हैं तो सीधा-सीधा प्रहार करते हैं, कोई लच्छेदार भाषा या लक्षणा-व्यंजना में बात नहीं करते, 'अभिधा का सौंदर्य' बताने वालों से अभिधा में ही बात करते हैं – 'इसीलिए लंबे समय तक इसमें दो तत्व हावी रहे, एक विदेशी परामर्श, विदेशों पर निर्भरता और दूसरे किसी न किसी तरह व्यापक जनाधार की तलाश, जो विदेशी भाषा, सामंती जीवन शैली और बौद्घिक स्नाबेरी में रहते संभव ही न थी।' हालांकि इन टिप्पणियों में कहीं भी संृजय की 'कामरेड का कोट'कहानी का जिक्र नहीं आया है किन्तु इन्हें पढ़ते हुए बार-बार उस कहानी की बरबस याद आ ही जाती है कि जो पार्टी 'बुर्जुआ' को लगातार गरियाते हुए केवल मजदूर-किसानों की बात करे लेकिन आचरण और यथार्थ में 'कामरेड का कोट' सच्चाई हो। जो पार्टी को अफीम मानती हो, धर्म को राजनीति से हमेशा अलग करने की बात करती हो, सोते-जागते धर्म-निरपेक्षता की दुहाई देती हो, वह भारत विभाजन और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त को केवल इसलिए स्वीकार कर ले कि उसमें उसका राजनैतिक लाभ दिखायी दे रहा हो। इसलिए भगवान सिंह जब यह कहते हैं – 'इसी बीच किसी 'दूरदर्शी' ने यह सुझा दिया कि यदि द्विराष्ट्र सिद्घान्त को मान लिया जाए तो पूरा मुस्लिम जनमत हमारे साथ आ जाएगा और एक झटके में व्यापक जनाधार मिल जाएगा। इसे लपक लिया गया और इसके परिणामस्वरूप मुस्लिम लीग की सोच का प्रवेश कम्युनिस्ट पार्टी में हुआ' तो इसका जवाब आज भी किसी कम्युनिस्ट नेता के पास नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी की सोच केवल लीग में समर्थन तक ही सीमित नहीं रही बल्कि इससे भी आगे विभाजन के समय जो रक्तपात हुआ उसके संदर्भ में भी कम्युनिस्ट नेता डांगे का जो उत्तर था उसे राज थापर के माध्यम से उद्धृत करते हैं कि कम्युनिस्ट नेता डांगे यह कहने में जरा सा भी नहीं हिचकिचाए कि इस रक्तपात और हिंसा से ही क्रांति का आना सरल होगा – 'तो यह थी तुम्हारी क्रांति की समझ और यह था मानवीय संवेदना का रूप। यह था देशप्रेम और पीडि़तों-दुखियारों का पक्ष। डांगे के ही कार्यकाल में आपात्-काल आया था और उन्होंने ही उसका समर्थन किया था।'
दरअसल स्वतंत्रता से पूर्व सबसे बड़ा लक्ष्य 'स्वतंत्रता-प्राप्ति था', स्वतंत्रता के इस मूल्य को रचनाकारों ने न केवल पहचाना बल्कि इस 'मूल्य-सिद्घि' के लिए संघर्ष भी किया, वे जेल गए, अपनी संपत्ति कुर्क का अत्याचार झेला, पुस्तकों-रचनाओं पर प्रतिबंध का दंश भी भोगा लेकिन राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ा। स्वतंत्रता के पश्चात् सत्ता के 'संरक्षण' की वजह से साहित्य पर वर्चस्व वामपंथियों का हुआ जिनकी न जड़ें अपनी थी न सोच अपनी। वही रचनाकार 'बड़ा' और महान हो गया जो 'मेनीफेस्टो' के हिसाब से रचनारत था, पुरस्कार और सम्मान के सारे प्रतिमान संगठन से संबद्घ होना हो गया, ऐसे में जिस भी लेखक ने 'पार्टी-लाइन' से इतर कुछ लिखा वह दोयम दर्जे का, प्रतिक्रियावादी, पुनरुत्थानवादी घोषित कर दिया गया और बाद में उसकी 'शव-साधना' कर दी गयी।
अज्ञेय जैसे रचनाकार की जन्मशती मनाने का बाकायदा अपील जारी कर विरोध किया गया और वे निर्मल वर्मा जो कभी नामवरी आलोचकों के प्रिय होते थे वे अचानक हिन्दुत्ववादी हो गये। 'राष्ट्रवाद' शब्द को हिकारत से इस्तेमाल किया जाने लगा और 'राष्ट्रवादी' होना गाली हो गया। यहां तक कि रामविलास शर्मा जैसे साहित्यकार तक को नहीं छोड़ा क्योंकि उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद पर निर्द्वन्द्व होकर यह लिख दिया था – 'यहां राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनैतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई। वह मुख्यत: संस्कृति और इतिहास की देन है। इस संस्कृति के निर्माण में इस देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आंतरिक एकता टूट जाएगी। किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही, जैसी इस देश में वाल्मीकि और व्यास की है। इसलिए किसी भी देश के लिए साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना इस देश के लिए है।' हिन्दी आलोचना किस सीमा तक गुटबाजी-पार्टीबाजी से प्रभावित और पूर्वाग्रह ग्रस्त रही है इसका अनुमान कृष्णदत्त पालीवाल के इन शब्दों से सहज ही लगाया जा सकता है-'दुर्भाग्यवश राष्ट्रीय कविता को प्रपंचबुद्घि के आलोचकों ने दक्षिणपंथी विचारधारा में रखकर बड़ा अन्याय किया है। मार्क्सवाद के रंग में डूबी कविता प्रगतिवादी और अरविन्द-विवेकानंद तिलक, गांधी-सुभाष के रंग में डूबी कविता दक्षिणपंथी-भावाकुल प्रतिगामी। अजीब तर्क है वामपंथियों का।
ये देशभक्ति की कविता को संकुचित अर्थ की कविता कहकर खारिज करते हैं तथा राष्ट्रपिता, राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय कविता की निंदा करते रहे हैं, जबकि इन वामपंथियों ने गांधी जी की निंदा करने में शर्म महसूस नहीं की थी, जब 1942 'अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन' में इन्होंने गांधी का साथ नहीं दिया। यही हाल तब हुआ जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो हमारे वामपंथियों ने चीन का साथ दिया। अपने इन्हीं दुराग्रहों के चलते वामपंथी न भारतेन्दु का सही मूल्यांकन कर सके, न मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और दिनकर का। पराई विचारधारा के प्रति ऐसा पागलपन कि अपनी राष्ट्रीय धारा का अपमान करने का अरमान पनपे।'

-अवनिजेश अवस्थी
(लेखक पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर है) 

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