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प्रचंड एक बार फिर से नेपाल के प्रधानमंत्री बने हैं और अपनी विदेश यात्रा की शुरुआत भारत से करने वाले हैं। 2008 में जब वे पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो पहली विदेश यात्रा पर चीन गए थे। लोग कयास लगा रहे हैं कि अब प्रचंड में 2008 वाले तेवर नहीं रहे। शायद यही वजह है कि वे इस बार चीन नहीं जाकर भारत आ रहे हैं
डॉ. सतीश कुमार
पिछले दिनों भारत आए नेपाल के गृह मंत्री विमलेन्द्र निधि ने कहा कि हाल ही में नेपाल के प्रधानमंत्री बने पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड की पहली विदेश यात्रा भारत की होगी। जब यह बात कही जा रही थी, उसी समय प्रचंड ने अपने एक दूत कृष्णा बहादुर को चीन भेजा। उन्होंने चीन को यह समझाने की कोशिश की कि प्रधानमंत्री ओली के साथ हुए करार को नेपाल बखूबी लागू करने की कोशिश करेगा।
दरअसल, नेपाल की मुसीबत को समझने की जरूरत है। प्रो. एस़ डी़ मुनि का मानना है कि नेपाल अपनी सामरिक स्थिति का भरपूर फायदा उठाना चाहता है। किसी भी देश की ऐसी सोच होना स्वाभाविक है। प्रो. मुनि का यह भी मानना है कि इस बार प्रचंड के तेवर में परिवर्तन दिख रहा है। यह नेपाल के विकास के लिए आवश्यक भी है।
इधर प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल के गृह मंत्री को नेपाल के विकास में हर तरह की मदद देने का भरोसा देते हुए कहा कि हमारा संबंध सिर्फ दो देशों का नहीं है, बल्कि दोनों देशों के लोगों के बीच सांस्कृतिक संबंध हैं। इसलिए इस बात की पूरी उम्मीद है कि दोनों देशों के बीच लंबित योजनाओं पर जल्दी काम शुरू हो सकता है।
2008 में प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड अपनी पहली विदेश यात्रा के अंतर्गत चीन गए थे। वे आठ वर्ष बाद पुन: प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए हैं, लेकिन इस बार की राजनीतिक स्थिति और मर्यादा में काफी अंतर है। पिछली बार वे द्वितीय जन-आंदोलन के नायक थे, चुनाव के उपरांत उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। जनता के बीच उनकी पैठ थी, लेकिन उन्होंने जिस नीयत और समीकरण के तहत काम करने की कोशिश की, उससे उनकी मंशा पर ही गंभीर प्रश्न उठने लगे थे।
नेपाल की बहुसंख्यक जनता राजशाही की निरंकुशता और अकर्मण्यता से परेशान थी। जनमानस हिंदू धर्म की स्थापित मान्यताओं से दु:खी नहीं था। प्रचंड के प्रथम कार्यकाल में हिंदू धर्म पर शिकंजा कसा गया। क्रिश्चियन संस्थाओं को फैलने और कन्वर्जन को प्रश्रय दिया गया था। इन सबसे लोगों के बीच उनकी छवि खराब हुई थी। और प्रधानमंत्री ओली के समय भी कुछ ऐसा ही हुआ।
इस बार प्रधानमंत्री के रूप में प्रचंड का दूसरा कार्यकाल बिल्कुल अलग है। विडंबना तो यह कि उनका चिर-परिचित राजनीतिक दुश्मन उनका सहयोगी है। उन्हें प्रधानमंत्री का पद कांग्रेस पार्टी से समन्वय और समझौते के रूप में मिला है । समझौते की शतार्ें के अनुसार प्रचंड के लिए नौ महीने का एक छोटा-सा कार्यकाल है। लंबित समस्याएं गंभीर और उलझी हुई हैं। उनकी पार्टी के सिद्धांत और राष्ट्रीय एजेंडे में जमीन-आसमान का फर्क है। ओली ने परिस्थितियों को और विकृत और विखण्डित कर दिया है। कहने का अर्थ यह कि प्रचंड के सामने अनेक चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों से वे जितनी जल्दी निपटेंगे, उतना अच्छा रहेगा, अन्यथा उनकी राजनीतिक छवि तहस-नहस हो सकती है।
संघवाद का मुद्दा
2015 में संविधान सभा के तहत जब ओली प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने नेपाल की राजनीति में दो महत्वपूर्ण बदलाव करने की कोशिश की। पहला, संघवाद के नाम पर नेपाल की जनता को दो खेमों में बांट दिया। मधेशी और जनजातीय समुदाय को महज दो जिलों में रहने के लिए विवश कर दिया। नागरिकता के नियमों में बदलाव लाकर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया। इसके कारण तराई का पूरा इलाका सुलग उठा, लोग हिंसा पर उतारू हो गए। परिणामस्वरुप नेपाल की अर्थव्यवस्था खराब होने लगी। नेपाल ने इसका पूरा दोष भारत पर मढ़ दिया। नेपाल सरकार ने दुनिया को यह दिखाने की कोशिश की कि उसकी हर समस्या का कारण भारत है। जबकि भारत सरकार ने हर बार नेपाल की बातों का खंडन किया। भारत ने कहा कि आर्थिक नाकाबंदी भारत की वजह से नहीं, बल्कि नेपाल की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की वजह से उपजी थी। वही मधेशी राजनीतिक दलों ने मांग की है कि तराई के दो और जिलों को उनके नाम कर दिया जाए। उनकी यह भी मांग है कि नागरिकता की शर्तें बदली जाएं। लेकिन यह काम आसान नहीं है। प्रचंड ने संघवाद से जुड़े मुद्दों को सुलझाने का आश्वासन दिया है। पर इसमें कई अड़चनें हैं। मधेशी दक्षिणी भाग में दो जिलों के लिए कटिबद्ध हैं। एक मुद्दा दूसरे से जुड़ा हुआ है। क्षेत्रीय निकायों के चुनाव होने हैं। प्रचंड के एजेंडे में यह प्रमुख है। अगर यह नहीं हो पाएगा तो राष्ट्रीय चुनाव अधर में लटक जाएंगा। राष्ट्रीय चुनाव के बगैर संसदीय चुनाव की रूपरेखा नहीं बन पाएगी । अंतत: स्थिति ऐसी बन सकती है जिससे एक बार फिर से संवैधानिक संकट पैदा हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो यह पूरे नेपाल के लिए चुनौती होगी। देखना यह है कि प्रचण्ड इस मुद्दे को सुलझाने में कितना सफल हो पाते हैं?
उनके के सामने दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है माओवादी दस्ता। इस दस्ते में शामिल माओवादियों को मुख्यधारा से जोड़ना इतना आसान नहीं है। द्वितीय जन आंदोलन के दौरान माओवादियों ने भारी उत्पात मचाया था। इन लोगों ने हजारों लोगों की जान ले ली थी। इनकी वजह से सैकड़ों लोग बेघर हो गए थे। माओवादियों ने हिन्दुत्व से जुड़े निशानों को मिटाने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं, संस्कृत विद्यालयों को आग के हवाले कर दिया था। पहली बार सरकार में आने के बाद प्रचंड ने माओवादियों के मामलों को अदालत से बाहर निपटाकर उन्हें माफी देने की पहल की, लेकिन यह मामला वहां के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया और न्यायालय ने कहा कि हर मामले को अदालत के स्तर पर ही निपटाया जाएगा।
प्रचंड के सामने तीसरी सबसे बड़ी चुनौती है ठप पड़ चुकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना। इस समय नेपाल की राष्ट्रीय विकास गति 1़ 5 प्रतिशत की दर से खिसक रही है। तेजी से मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा है। विनाशकारी भूकंप के बाद लोगों की तकलीफों पर मरहम लगाना था जो अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। नेपाल निरंतर आर्थिक दलदल में धंसता जा रहा है। शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि इस समय नेपाल में एक असफल राष्ट्र के तमाम कारण मौजूद हैं। इसके लिए वहां के नेता ही जिम्मेदार हैं। उनकी आपसी रंजिश की वजह से पर्यटन का कारोबार भी संकुचित हुआ है।
प्रचंड को चीन की चुनौती का भी सामना करना पड़ेगा। चीन और भारत के संबंधों को लेकर भी उनके सामने चुनौतियां खड़ी होंगी। चीन प्रचंड पर लगातार दबाव बनाए रखेगा कि प्रधानमंत्री ओली के समय नेपाल और चीन के बीच जो समझौते हुए हैं, उनका अनुपालन जल्दी हो। लेकिन यह इतना आसान नहीं है।
प्रचंड अपने प्रथम कार्यकाल में घोर भारत विरोधी और चीनी पक्षधर के रूप में पहचान बना चुके हैं। वे चीनोन्मुख विदेश नीति के प्रणेता हैं। ओली उन्हीं के नक्शे कदम पर चले। जबकि चीन इस बात को दबी जुबान से कबूल करता है कि वह नेपाल में भारत का विकल्प नहीं बन सकता। 1989 की बातें आज भी सच हैं। उन दिनों भारत-नेपाल के संबंधों में उबाल आया था और भारत ने आर्थिक नाकाबंदी कर दी थी। तब तत्कालीन महाराजा बीरेन्द्र ने आनन-फानन में एक विशेष दल को चीन भेजा। इसका नेतृत्व दुर्गा प्रसाद पाण्डे कर रहे थे। जब वे चीन के नेताओं से मिले तो उन्होंने उन्हें यह कह कर टरका दिया था कि नेपाल के लिए चीन भारत का विकल्प नहीं बन सकता।
1989 के बाद परिस्थितियां बदली जरूर हैं लेकिन चीन और नेपाल के बीच के रास्ते अब भी उतने ही दुर्गम हैं, जितने तब थे। चीन से नेपाल तक कोई सामान लाने के लिए 3,000 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। चीन के ज्यादातर व्यापारिक प्रतिष्ठान उसके दक्षिणी हिस्से में हैं। वहां से शिगास्ते होते हुए कोई भी सामान तिब्बत के गिर्रोग तक पहुंचता है। इसके बाद 10 दिन की कठिन यात्रा के बाद नेपाल पहुंचता है। इसलिए प्रचंड के सामने भारत के साथ बेहतर संबंध बनाने की भी चुनौती होगी।
वे भारत आ रहे हैं। प्रश्न उठता है कि प्रचंड अपनी दूसरी पारी में अपनी पुरानी आदतों से बाज आएंगे? उन्हें कम समय में ही बहुत कुछ करना होगा। उनके पास समय कम है। समझौते का अगर सही परिपालन हुआ तो नौ महीने बाद सत्ता कांग्रेस पार्टी के हाथों में होगी। उम्मीद है कि प्रचंड दूसरी पारी में सूझबूझ के साथ विदेश नीति को आगे बढ़ाएंगे। चीन से दोस्ती और भारत से मनमुटाव नेपाल के लिए मुसीबत बन सकता है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि नेपाल का कोई भी नेता भारत विरोध की नीति के साथ अपने देश का नहीं कर सकता।
(लेखक झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रांची में अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)
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