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एक आतंकी की मौत को भुनाने निकले अलगाववादियों ने यह दूर-दूर तक नहीं सोचा था कि जिस आग को हवा देना उनके बाएं हाथ का खेल रहा है, इस बार उस आग की लपटें उनके लबादों तक बढ़ आएंगी।
एक माह में देश के गृह मंत्री का अशांत क्षेत्र में दूसरा दौरा और व्यथित-पीडि़त पक्षों से संवैधानिक दायरे में खुली चर्चा का आह्वान बताता है कि सरकार इस समस्या के समाधान के लिए पूरी तरह सक्रिय और संवेदनशील है। इतनी तत्परता और खुलेपन के बावजूद सरकार पर अनमनी या कठोर होने का आरोप तो केवल वे ही लोग लगा सकते हैं जो भारत की लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक उदारता का गलत अथोंर् में प्रयोग करते रहे हों।
सरकार पूरी तरह संवेदनशील है परंतु यह कोमलता निश्चित ही आतंकियों के प्रति नहीं बरती जा सकती। खुलापन है, परंतु संविधान की सीमारेखा एक ऐसी स्पष्ट चीज है जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
वर्तमान राजग सरकार का कश्मीर के मामले में साफ, तत्पर और दृढ़ रुख नई और रेखांकित की जाने वाली बात है। ऐसी बात जिससे अलगाववादियों, उन्हें पोसने वाले नेताओं और आतंकियों का दम फूला हुआ है। दिल्ली तक खबरें पहुंचें न पहुंचें, परंतु इस बात के साफ संकेत हैं कि डेढ़ माह से ज्यादा लंबे कर्फ्यू से सहमे, टूटे, कराहते और आक्रोशित क्षेत्र में आतंकवाद-अलगाववाद के लिए गुस्से और बद्दुआओं के गहरे बादल घिर आए हैं।
सन्नाटे में हिचकोले खाते खाली शिकारे। दुकानों के बंद शटर, कालीन और शाल की बुनाई में लगातार शोर मचाने वाले करघों की लंबी खामोशी, पश्मीना, गुलबंद और काफ्तान के मुंह चिढ़ाते ढेर…घाटी के घर आंगनों में उन आतंकियों के लिए नफरत उबल रही है जिन्होंने वहाबी-पाकिस्तानी मशाल फूंकते-फूंकते सारा घरौंदा जला डाला।
पूरे प्रांत से कभी भी आतंकवाद को समर्थन नहीं मिला लेकिन घाटी की मीडिया बाड़बंदी कुछ ऐसी है कि देश और दुनिया को तस्वीर का एक ही पहलू दिखता है। आज घाटी में अपने-अपने दड़बों में घिरे अलगाववादी जानते हैं कि खबरें दबाने और पत्थरबाजी के लिए दिहाड़ी के नौजवान जुटाने का खेल ज्यादा नहीं खिंच सकता। वे अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। बेनकाब हो रहे हैं।
ऐसे में भले ही यह खबरें पहुंचाई जा रही हों कि कर्फ्यू के दौरान भी लोगों का गुस्सा चरम पर है और विरोध-प्रदर्शन जारी हैं सच यह है कि लोगों का सब्र जवाब दे रहा है। गुस्सा अलगाववादियों के विरुद्घ घुमड़ रहा है और दिहाड़ी के पत्थरबाजों की टोलियां छीजने लगी हैं।
घाटी में आतंकवाद और राजनीति की आंखमिचौली के आदी लोगों के लिए दशकों आजमाए पैंतरों का नाकाम होना चौंकाने वाली और उनके अस्तित्व को झकझोरने वाली बात है। 'कब्र में दफन बुरहान वानी जिंदा बुरहान वानी से ज्यादा खतरनाक है' यह या ऐसी ही और ट्विटर दलीलें अशांति की चिनगारी फूटते वक्त उन लोगों द्वारा दी गईं थी जिन्हें लगता था कि आतंकवाद से गुत्थमगुत्था होना केवल सैन्यबलों का विषय है और स्थानीय बवाल को काबू करना केवल भाजपा-पीडीपी सरकार की सिरदर्दी। उन्हें तो सिर्फ दूर खड़े रहकर तमाशा देखना है। इस गलतफहमी को करारी चोट लगी है। लेकिन भ्रांति पैदा करने वाली कई संवेदनशील भंगिमाओं का टूटना अभी बाकी है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की अगुआई में राज्य के विपक्षी नेताओं की राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री से मुलाकात अच्छी बात है लेकिन यह पहल दिल्ली आने से पहले राज्य में आतंकवाद के विरुद्घ किसी राजनैतिक एकजुटता में परिणित क्यों नहीं हुई? राज्य की राजनीति में हाशिए पर पड़े नेताओं की अपील समस्या के राजनैतिक समाधान की है। इसके मायने क्या हैं? क्या जानलेवा पत्थरबाजी जैसी सीधी हिंसा के मामले में राजनैतिक समाधान जैसी कोई गुंजाइश है? क्या इसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि पत्थरमार गिरोह उन सियासी टोलियों के उकसावे में खेल रहे हैं जो सत्ता में नहीं है किन्तु अलगाववादी एजेंडा के साथ राजनीति की वार्ता मेज पर अपनी भूमिका दर्ज कराना चाहती हैं?
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के विस्तृत भूक्षेत्र में सिर्फ घाटी को केन्द्र बनाकर खेला गया आतंकी खेल संभवत अपने आखिरी दौर में है। पाक आक्रांत कश्मीर को वापस लेने के संकल्प ने सीमापार के षडयंत्रकारियों को दहला दिया है।
आतंकियों की खराशों पर गुलाबजल के फाहे, दिल्ली से ही पाकिस्तानी हितों के अनुकूल मन बनाकर चलने वाली मानवाधिकारों की पैरोकार- समस्या के वार्ताकारों की टोलियां और मोटे आर्थिक पैकेज वाली तिजोरियों का खुलना , यह सब अब बीते दिनों की बात है। खुलेदिल, साफ नीयत और संविधान के दायरे में जम्मू-कश्मीर के भविष्य की कहानी लिखी जानी है। लिखी जा रही है। जिन्हें यह दायरा चुभता है, उनकी कराहों को अनसुना करना एक राष्ट्र के तौर पर हम सबकी जिम्मेदारी है।
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