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पाञ्चजन्य के पन्नों से
श्री क.मा. मुन्शी (भू.पू. राज्यपाल, उत्तर प्रदेश)
मैंने केरल की स्थिति का प्रत्यक्ष अध्ययन करने का निर्णय लिया, क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि केरल में भारतीय संविधान एक संकट की स्थिति से गुजर रहा है, जिसके परिणाम बहुत खतरनाक हो सकते हैं।
विभिन्न पक्षों से भेंट- मैंने केरल में चार दिवस बिताए। मैंने कम्युनिस्टों के अतिरिक्त जनता के सब वर्गों के प्रतिनिधियों से स्थिति पर विचार-विमर्श किया। मैंने दलीय नेताओं, जनसेवियों, भूतपूर्व जजों, प्रमुख वकीलों, धार्मिक नेताओं, मजदूर नेताओं, महिला कार्यकर्ताओं, सर्वोंदय कार्यकर्ताओं, भूतपूर्व सरकारी अधिकारियों एवं विद्यार्थियों से भेंट की। मैं श्री नम्बूदरीपाद से भी भेंट करना चाहता था किन्तु वे उसी जहाज से दिल्ली चले आए जिससे मैं त्रिवेन्द्रम पहुंचा। बहरहाल, मैं सरकारी पक्ष की जानकारी भी उस प्रचार साहित्य से प्राप्त कर सका, जिसे केरल के राजकीय जन-सम्पर्क अधिकारी ने कृपा करके मुझे प्रदान कर दिया था।
ग्रामों का अध्ययन— मैंने 180 मील लम्बी सड़क पर चलकर उसके दोनों ओर बसे हुए केरल के आन्तरिक प्रदेशों का भी अध्ययन किया; अनेक ग्रामों के मुखियों से भेंट एवं वार्ता की; स्वयंसेवकों को बड़े गौरव एवं शान्तिपूर्ण ढंग से सरकारी दफ्तरों पर धरना देते हुए देखा; उन्हें बन्दी होते, एवं शान्तिपूर्ण तथा व्यवस्थित विशाल जनसमूहों द्वारा जिनमें अधिकांश ग्रामीण थे तुमुल हर्षध्वनि के बीच उन्हें विदाई देते हुए भी देखा, मैंने विशाल जुलूसों एवं प्रदर्शनों को देखा जिनमें प्रमुख व्यापारियों, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, भूतपूर्व न्यायाधीश, भू. पू. राजदूत, एवं संसद सदस्य सभी सम्मिलित थे। मैं उन ग्रामों में भी गया जहां पुलिस ने अपने पागलपन का प्रदर्शन किया था; वहां गोलियों के निशान देखे और ग्रामवासियों से घटनाओं की छानबीन की।
अभूतपूर्व आन्दोलन- प्रधानमंत्री ने उसे सत्य ही 'जनविद्रोह' का नाम दिया है। मैंने जनजागरण का इतना अभूतपूर्व दृश्य कभी नहीं देखा, यहां तक कि उन दिनों में भी नहीं जब हमारा स्वतंत्रता का संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुंचा था। यह कहना कि यह आंदोलन निहित स्वार्थों अथवा संकु चित भावनाओं से प्रेरित है, यह गलत है। मैं यह कहने के लिए विवश हूं कि यह जान-बूझ कर फैलाया जाने वाला झूठा प्रचार है। केरल की जनता विशुद्ध गांधीवादी परम्परा के अनुसार अन्याय और कुुशासन के विरुद्ध ्हिंसक संघर्ष चला रही है।
मूल समस्या- मुझे वास्तव में इस समस्या का अध्ययन करना था कि क्या केरल की सरकार को संविधान की धारा 356 के अंर्तगत दी हुई शर्तों के अनुसार चलाया जा रहा है, अथवा जिन तथ्यों को मैंने एकत्र किया है, और यदि अवसर दिया गया तो जिनकी प्रामाणिकता को किसी भी निष्पक्ष ट्रिब्यूनल के समक्ष सिद्ध किया जा सकता है। … जैसा कि सर्वविदित है कम्युनिसट मंत्रिमंडल केवल दो गैर-कम्युनिस्टों के बहुमत के समर्थन से सत्तारूढ़ हो चुका है। वे दोनों ही मंत्रिपद पाने के भाग्यशाली हैं। इस पर …
क्या भारत 'धर्म-ग्लानि'
की स्थिति से गुजर रहा है?
श्री चिन्तामणि देशमुख (भूतपूर्व केन्द्रीय वित्तमंत्री)
मुख्य प्रश्न यह है,''क्या गत 12 वर्ष में भारत के नागरिकों ने अपने व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि वे एक महान राष्ट्र के नागरिक हैं?'' इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए राष्ट्र जीवन की वर्तमान स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण कर गत 12 वर्ष में हुई उसकी प्रगति-परागति का विवेक युक्त मूल्यांकन करना होगा। स्थिति का विश्लेषण करने पर हम एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि राष्ट्र का प्रशासकीय एवं नैतिक, दोनों दृष्टियों से चिन्ताजनक पतन हुआ है।
जनता असंतुष्ट है-अब यह माना जाने लगा है, यद्यपि संकोचपूर्वक, कि सम्पूर्ण प्रशासकीय तंत्र सब स्तरों पर मंत्रियों से लेकर नीचे तक नित्य-प्रति के व्यवहारों को चलाने एवं राष्ट्र के योजनापूर्ण विकास की योजनाओं को कार्यान्वित करने-दोनों ही दृष्टियों से दोषपूर्ण एवं अक्षम है। असन्तुष्ट जनता भाई- भतीजावाद (जो अब भी बहुप्रचलित है) उद्दण्डता, दलीय एवं व्यक्तिगत स्वाथोंर् की दृष्टि से तथ्यों एवं योजनाओं को तोड़ने मरोड़ने, वंशपोषण के द्वारा निजी घोंसले निर्माण करने एवं इसी प्रकार के पापों के बारे में सुनती थी, किन्तु निश्चित आंकड़ों, तथ्यों एवं प्रमाणों के अभाव में कोई पग नहीं उठा पाती थी।
सर्वोच्च शासक भ्रम में- कुछ अंशों तक मुझे लगता है कि शासन के सर्वोच्च पदों पर बैठे हुए जन-नेताओं को इस बात की स्पष्ट कल्पना नहीं है कि कानून और व्यवस्था की स्थिति के कई पहलू ऐसे हैं जो गंभीर चिन्ता उत्पन्न करने वाले हैं। उनके लिए यह योग्य होगा कि वे इस समस्या में जरा गहरे घुसें और पता लगाएं कि क्या इस स्थिति को बिगाड़ने वाले कारण ऐसे हैं जिन्हें अभी भी सुधारा जा सकता है अथवा शिशु जनतंत्र; एक स्वस्थ आपरेशन की स्थिति में जा पहुंचा है।
दिशाबोध : बड़े उद्योगों की जगह हों छोटे उद्योग
''पश्चिमी ढंग की भारी एवं जटिल यंत्र प्रधान उत्पादन-प्रणाली के द्वारा उत्पादन बहुत बड़ी मात्रा में हो तो सकता है, किन्तु उससे देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था में स्थायी और क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाला कोई प्रवाह-निर्मित नहीं हो सकता। उसके के लिए कृषि-भूमि पर आज जो बोझ पड़ रहा है उसे कम कर सकने वाले और खेती के साथ सुसंवाद रखने वाले स्थायी उद्योगों की स्थापना करने वाली व्यवस्था लानी पड़ेगी। उसके लिए बड़े-बड़े उद्योगों के स्थान पर हमें छोटे उद्योगों को प्रधानता देनी पड़ेगी। आज की परिस्थिति में हमारे लिए थोड़े कामगारों और छोटे उपकरणों द्वारा चलाए जाने वाले छोटे-छोटे उद्योग अधिक उपयोगी होंगे। उसके लिए हमें देश में चल रहे ग्रामोद्योग, छोटे उद्योगों एवं उनमें काम करने वाले कारीगरों को आधारभूत मानकर उनकी समुचित व्यवस्था करनी होगी। —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 67)
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