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केरल में 1960 से ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राजनीतिक हिंसा-हत्या में लिप्त रही है। उसके निशाने पर आज सिर्फ रा. स्व. संघ या भाजपा कार्यकर्ता ही नहीं हैं, बल्कि वे हर राजनीतिक विरोधी को निशाना बनाते हैं। संघ कार्यकर्ताओं के विरुद्ध हिंसा की शुरुआत 1960 में उस वक्त हुई थी तब तेल्लीशैरी रामकृष्णन की हत्या की गई थी। उसे बाद से लगातार थोड़े-थोड़े अंतराल पर संघ अथवा भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या या उन पर जानलेवा हमलों का क्रम जारी रहा है। इसमें संदेह नहीं कि मार्क्सवादियों की इस हिंसा में तालिबानी तौर-तरीकों की स्पष्ट झलक दिखती है। केरल के मार्क्सवादी तंत्र का इस्लामी आतंकियों से कहीं न कहीं कोई गठजोड़ दिखता है, संभव है, मार्क्सवादी उनसे हिंसा का प्रशिक्षण लेते हैं। ऐसा मानने के पीछे एक वजह है। 2008 में सत्यन की जिस तरह गला काटकर हत्या की गई और कटे हिस्से को अलग रखा गया वह तालिबानी बर्बरता की मिसाल ही है। संदेह इस बात का भी है कि मार्क्सवादी पार्टी में आतंकी पैसा आ रहा है, पुलिस को इसकी जांच करनी चाहिए। केरल में एक 'हेट हिन्दू ब्रिगेड' या कहें 'ब्रेक इंडिया ब्र्रिगेड' सक्रिय है। इसका संचालन मार्क्सवादी करते हैं, भारत-विरोधी ताकतों की मदद से।
आज उत्तरी केरल में अनेक 'पार्टी गांव' हैं यानी वे गांव जहां मार्क्सवादियों का दबदबा रहता है, दूसरी विचारधारा वालों के लिए वहां कोई स्थान नहीं होता। अगर कोई गैर मार्क्सवादी 'पार्टी गांव' में जाने की हिम्मत करता है तो वहां के कामरेड नेताओं का अपने जत्थों को खुला फरमान होता है कि ''वह जिस स्वरूप में आया है वैसा लौटना नहीं चाहिए, इसके लिए जो तरीका अपनाना हो अपनाओ।'' एक आतंक-सा बनाकर रखा जाता है। वे इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि उनका कोई कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर संघ में तो नहीं गया, और अगर जाता है तो उसे हिंसा का शिकार बनाया जाता है ताकि उस दिशा में सोच रहे उनके कार्यकर्ताओं को 'सबक' मिल सके।
ऐसा नहीं है कि इस हिंसा पर रोक लगाने के लिए संघ की तरफ से प्रयास नहीं हुए। कम से कम चार बार स्पष्ट कहा गया कि हिंसा का रास्ता छोड़कर मार्क्सवादी शांति का मार्ग अपनाएं, पर मार्क्सवादियों ने सदा उसे अनदेखा ही किया और स्तरहीन टिप्पणियां कीं। सबसे पहले वरिष्ठ प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी ने शांति का मसौदा तैयार किया, पर तत्कालीन मार्क्सवादी नेताओं ने सिर्फ कोरी हामी भरी, लेकिन हिंसा का क्रम नहीं टूटा। इसके बाद वरिष्ठ प्रचारक श्री पी. परमेश्वरन ने तत्कालीन वरिष्ठ मार्क्सवादी नेताओं के साथ शांति समझौता किया, लेकिन अभी समझौते की स्याही भी नहीं सूखी थी कि एक स्वयंसेवक की हत्या कर दी गई। इसके बाद मेरे मुख्य संपादकत्व काल में साप्ताहिक केसरी में हमने एक लेख प्रकाशित किया था जिसके माध्यम से केरल के कम्युनिस्टों से शांति की अपील की गई थी लेकिन उसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। फिर अभी कुछ समय पूर्व विश्व हिन्दू परिषद के संरक्षक श्री अशोक सिंहल की मृत्यु के संदर्भ में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने केरल में मीडिया से य्ह शोक समाचार साझा करने के लिए एक प्रेस वार्ता को संबोधित किया था। वे उस वक्त केरल प्रवास पर थे, इसलिए वहां यह प्रेस वार्ता करने का निर्णय लिया गया था। उस प्रेस वार्ता में एक पत्रकार ने उनसे कम्युनिस्टों की हिंसा पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाहिए। श्री भागवत ने कहा भी कि यह अवसर ऐसे सवालों के जवाब देने का नहीं है, पर फिर भी पूछा है तो हमारा यही कहना है कि हम शांति के लिए तैयार हैं। इस पर आज के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने बहुत अशोभनीय टिप्पणी करते हुए श्री भागवत की बात को अनसुना कर दिया था।
केरल में मारे गए कुल संघ कार्यकर्ताओं में से 98 प्रतिशत तो दलित समाज से आते थे, तो फिर माकपा दलित हितैषी कैसे कही जा सकती है? दिल्ली के जेएनयू में भाषण देने वाले कन्हैया में अगर हिम्मत है तो तिरुअनंतपुरम के यूनिवर्सिटी कॉलेज में जाकर वहां एआइएसएफ की यूनिट खोलने की बात बोल कर दिखाएं, वहां के हालात समझ आ जाएंगे।
उस कॉलेज में एसएफआइ के अलावा किसी और छात्रदल को काम नहीं करने दिया जाता। देश के बुद्धिजीवी केरल जाकर वहां के हालात देखें और चाहें तो उस पर श्वेत पत्र जारी करें। माकपा एक बड़ा छलावा है और उसी से वह सांस लेती है। -जे. नंदकुमार अ.भा. सह प्रचार प्रमुख, रा.स्व. संघ
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