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सावन आते ही गंगा तट पर भोले-भक्त कांवडि़ए गंगाजल भरकर शिव को प्रसन्न करने निकल पड़ते हैं। भक्ति और रोमांच से भरी यह यात्रा आनंद के साथ जीवन को सम्पूर्णता देती है।
पारस अमरोही
दिल्ली से हरिद्वार खाली कांवड़ लेकर पहंुचे लाखों कावडि़यों ने जब हर हर महादेव के घोष के साथ मोक्षदायनी गंगा का जल अपने आंचल में सहेजा, तो कंधों पर रखी कांवड़ चल दी अपने गंतव्य दिल्ली की ओर। मंैने अपने साथी छायाकार के साथ कांवडि़यों वाला बाना न केवल धारण किया बल्कि तय किया कि उनके हर प्रमुख पड़ाव पर ठहरकर रात्रि विश्राम करेंगे और उनकी गतिविधियों का जायजा भी लेंगे। एक आस्थावान कांवडि़ये के साथ मुझे एक सजग पत्रकार की भी भूमिका निभानी थी।
हरिद्वार में गंगा का प्रवाह तेज होता ही है। वहां उत्साह में पगे कांवडि़यों को अपने साथियों की मदद करते देख लगा कि पानी कैसे परस्पर बांधता है। कांवडि़यों का इलाका अलग-अलग, लेकिन उत्साह, सहयोग भावना और अनुशासन अनेकता में एकता प्रदर्शित करता नजर आता है। शिव की नगरी समानता का संदेश देती आयी है। सावन के महीने में तो धर्मनगरी हरिद्वार में गंगा के समानांतर जैसे आस्था की गंगा बहती है। हरिद्वार से हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व उत्तर प्रदेश के विभिन्न गांवों, कस्बों और नगरों तक जाने वाले मार्ग भगवा रंग में हिलोरे लेते हैं तो वातावरण में एक ही शब्द तैरता है-भोले-भोले। भोले यानी शिव और शिव का अर्थ है कष्ट सहकर भी सहकार का भाव बनाये रखना।
हरिद्वार में लाखों कांवडि़यों की उपस्थिति से बड़ा बाजार, मोती बाजार, विष्णुघाट, बिरला घाट पट जाते हैं। गंगा भी उदारमना होकर कांवडि़यों के स्वागत में अपना दामन फैला देती है। आस्था के साथ अनुशासन भी नजर आया। कहीं कोई हील-हुज्जत नहीं। सब भोले और भोली। महिला कांवडि़यां यहां भोली हो जाती हैं और पुरुष भोले। दुकानदार से कोई सामान पूछना है तो संबोधन होगा-भोले और होमगार्ड से रास्ता जानना है तो भोले। शिव सहज हैं इसीलिए आस्थावान उन्हें भोले भंडारी कहते हैं। कांवडि़यों की हर टुकड़ी कंधों पर कांवड़ धारण करती तो धर्मघोष से वातावरण शिवमय हो जाता। शिव का संकल्प लेकर अपने इलाके के छोटे-बडे़ शिवालयों तक कदम बढ़ाने वालों में कोई भेद भी नहीं था-सब एक बराबर। हर की पैड़ी पर एक जत्थे ने पवित्र गंगाजल से कांवड़ भरकर कदम बढ़ाया तो वहीं जयघोष करता दूसरा जत्था अपनी कांवड़ तैयार करने लगा। हरिद्वार से दिल्ली के बीच रात में पांच पड़ावों पर ठहरने की अनिवार्यता थी। अगली सुबह गंतव्य की ओर बढ़ने के लिए विश्राम भी आवश्यक था। मेरठ, मोदीनगर, मुरादनगर, गाजियाबाद वाली सड़क पर राग-रागिनियों के बीच कांवडि़यों का सैलाब उमड़ता नजर आया। बीच में मनोरम झांकियां भी गुजरती रहीं। 24 घंटे में अपनी मंजिल तक पहुंचने को बेकरार डाक कांवड़ के हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के जत्थों को देखकर देश के तेज गेंदबाज ईशान्त शर्मा की सहज याद हो आई जिसने अपना दमखम इसी डाक कांवड़ की बदौलत पाया।
नोटों की कांवड़
हरिद्वार-दिल्ली के बीच पांच दिन की कांवड़ यात्रा के दौरान हमें दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के युवाओं की ऐसी कांवड़ भी देखने को मिली जिसे दस और बीस रुपए के नोटों से बनाया गया था। कांवड़ को असमय होने वाली बारिश से बचाने के लिए पॉलीथीन से ढका गया था। नोटों की इस कांवड़ पर 11 हजार 111 रुपए खर्च किए गए थे। कांवड़ ला रहे कैलाश बाबू भोले ने बताया कि हमारे दो जुड़वां बेटों ने हमें नोटों वाली कांवड़ लेकर आने की सलाह दी और दोनों ने परिश्रमपूर्वक इसे तैयार भी किया। नोटों के बीच जगत को निहारते भगवान आशुतोष का दर्शन अदभुत, आह्लादकारी और स्मरणीय रहा।
स्कूल-कालेज बंद
कांवडि़यों की तादाद और उनके पड़ाव बनाने के लिए हरिद्वार, मेरठ, मुरादनगर, मोदीनगर के अधिकांश स्कूल-कालेजों में कांवड़ यात्रा के दौरान अवकाश घोषित करने की परंपरा है। इन विद्यालयों के परिसरों में भक्ति और आस्था का सैलाब नजर आता है। कोई कांवडि़या विश्राम अवस्था में तो कोई ल़गोटा बांधकर नहाता नजर आता है। कोई कांवड़ सेवा शिविर में बैठे डाक्टरों से अपने पैर के फफोलों पर दवा लगवाता नजर आता है तो कोई बुखार और सिरदर्द की गोली ले रहा होता है।
हरिद्वार से दिल्ली के बीच मुरादनगर में गंगा नहर के किनारे हंस इन्टर कालेज में लगे शिविर में बैठे डाक्टर जयभगवान तथा सेवादार व शिविर संचालक अजयवीर सिंह ने हमें बताया कि बीते दस साल से कांवडि़यों की सेवा के लिए हम यह नि:शुल्क शिविर लगा रहे हैं। आपसी सहयोग से हम साल में सेवा करते हैं। सेवादारों का कार्य विभाजन आठ-आठ घंटे के अंतराल के लिए होता है।
कांवड़ पर बाजार का असर
अपनी यात्रा के दौरान हमें कांवड़ के बदलते स्वरूप और बाजार की मुनाफे वाली प्रवृत्ति के भी दर्शन हुए। कांवड़ की सादगी की जगह अब भारी-भरकम कावंड़ों ने ले ली है। ज्यादा तादाद में डाक कांवड़ के साथ ऐसी झांकियां भी रास्ते भर देखने को मिलीं जिनको बनाने में ही लाखों खर्च किए गए थे। कहीं शिव शंखनाद करते नजर आये तो कहीं ट्रक पर भोलेनाथ सर्पमाला लपेटे अभयदान मुद्रा में दर्शन दे रहे थे। कई कांवड़ ऐसी थीं जिनमें एक मंच पर गंगाजल से भरे कई कलश रखे थे जिन्हें भोले भक्तिभाव से खींचते हुए गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। मोदीनगर में फरीदाबाद के श्याम संन्यासी मिले, कंधे पर बेंगी बनाकर दोनों ओर कलश रखकर गंगाजल ले जाते हुए। एकदम श्रवणकुमार की तरह। बोले-बीते सात साल से मेरा ऐसे ही घर लौटना होता है। सब भोले की कृपा का फल है।
कांवड़ मेला हरिद्वार ही नहीं, राजस्थान, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हिमाचल, दिल्ली के दुकानदारों की आमदनी का एक बड़ा जरिया है। हरिद्वार के दुकानदार विजय मित्तल का कहना था- कुंभ के बाद कांवड़ मेला एक बड़ा अवसर होता है। जल की गागर, कपड़ा, बांस, डोली, रस्सी, माला, खिलौने, प्रसाद, कपडे़ के जूते-चप्पल, प्लास्टिक शीट की बिक्री उनकी दुकान का सालभर का खर्च निकाल देती है।
तिरंगा होता भक्ति का रंग
डीजे पर शिव की लहरियों के बीच शिव को साक्षात् करतीं झांकियों वाली कांवड़ के आगे हाथ में तिरंगा लिए भोले अब भक्ति को राष्ट्रप्रेम के रंग में रंगते हुए भी नजर आए। कई कांवड़ों पर फहराता तिरंगा और डीजे पर बजते देशप्रेम के गीत युवाओं के उत्साह और भावनाओं को बढ़ाते नजर आए।
भोली व वृद्ध कांवडि़या
कांवड़ मार्ग पर लगने वाले सेवा शिविरों में अब भोली यानी महिला कांवडि़यों के लिए भी अलग व्यवस्था की जाती है। हमें ऐसे शिविरों की संख्या तो कम नजर आयी लेकिन जहां भी ऐसी व्यवस्था की गई थी, वहां महिला चिकित्सक से लेकर समाजसेवी महिलाएं तथा इलाके की पार्षद भी नजर आयीं।
मेरठ देहात क्षेत्र के एक गांव के बाहर केवल महिला कांवडि़यों के लिए सेवा शिविर मिला। हमने शिविर की बाबत जानकारी हासिल की तो पता चला कि गांव की महिला प्रधान रामकली देवी ने गांव की महिलाओं के आर्थिक सहयोग से शिविर लगाया है। शिविर में महिला कांवडि़यों के लिए गांव से चारपाइयां तथा स्नान के लिए टिन शेड की विशेष व्यवस्था देखकर हम अभिूभूत थे। इसी तरह उम्रदराज भोले भी कांवड़ सहित जब शिविरों में पहुंचते, सेवादार उनकी सेवा करने को दौड़ पड़ते। कोई नौजवान उनकी कांवड़ अपने कंधे पर लेकर जगह पर सहेजता तो कोई इन भोलों के स्वास्थ्य का हाल पूछकर उनसे खाने का अनुरोध करते हुए सहारा देता। कई शिविरों में ता हमेंे वृद्ध कांवडि़यों के पैर दबाने वालों की युवा टीम भी नजर आयी।
सब भोले और भोली
श्रावण मास में धर्मनगरी हरिद्वार में किसी का कोई नाम नहीं होता। न कोई चुन्नू-मुन्नू, न सर्वजीत-इन्द्रपाल। न गुंजन, न कोई प्रिया। सब कांवडि़यों को भोले या भोली के नाम से संबोधित किया जाता है। धार्मिक सामग्री बेचने वाले एक दुकानदार से हमने रुद्राक्ष की माला के बारे में पूछा। जवाब था- भोले, खरीद लो। फिर नया माल अगले सावन में आएगा। सड़क-बाजार, सब जगह भोले-भोले का संबोधन। रिक्शावाला तक-'भोले जरा बच के', जैसे संबोधन से वातावरण की गरिमा को बढ़ाता नजर आता है। किसी को भोले और भोली के संबोधन से कोई गुरेज होता है और न कोई इस संबोधन को कोई और नाम देता नजर आता है। कांवड़ यात्रा के दौरान भी सभी एक दूसरे को भोला या भोली पुकारते नजर आए। शिव सबको एकाकार करते नजर आए।
कांवडि़यों के सैलाब में कई नौजवान शिव के औघड़ स्वरूप को धारण कर अपने चेहरे पर कई तरह के 'मास्क' लगाए भी दिखे। कोई हाथ में त्रिशूल लेकर कांवडि़यों की रक्षा करता नजर आया तो किसी ने हाथ में बेसबाल का बल्ला भी ले रखा था। हालांकि कई लोग इनको हिंसक प्रदर्शन के नजरिए से देखते हैं लेकिन मकसद होता है हरिद्वार से बाहर निकलने पर रास्ते में जंगल में सुरक्षा।
रात में कांवडि़यों के साथ हमारा पड़ाव ऐसे स्थान पर हुआ जहां घने जंगल के बावजूद पीने के पानी की व्यवस्था थी। कई जगह किसानों ने अपने पंपिंग सेट चलाकर न केवल पीने की व्यवस्था कर उदारता दिखायी बल्कि भोजन, दूध व केले खाने की मनुहार तक की।
भगवान परशुराम ने अपने आराध्य शिव को प्रसन्न करने के लिए कांवड़ लाकर जलाभिषेक किया था जिससे कहते हैं, कांवड़ लाने की परंपरा का सूत्रपात हुआ। समय के साथ इसमें काफी बदलाव आता गया, लेकिन आस्था में कोई कमी नहीं आयी है। कांवड़ लाना कोई धार्मिक पर्यटन नहीं बल्कि एक संकल्प है। परंपरा में जब बदलाव आता है तो कुछ विकृतियां भी आना स्वाभाविक है। कांवडि़यों को लेकर समाज का एक वर्ग इसमें अराजकता और विकृतियों की चर्चा करता है। पर लाखों कांवडि़यों के बीच अनुशासनहीन लोगों की तादाद ज्यादा नहीं होती। अब तो करीब-करीब कावडि़यों के हर दूसरे जत्थे में महिलाओं व बच्चों की खासी संख्या रहती है। ऐसे में कांवड़ टोली का मुखिया खुद अनुशासन की हिदायत देकर कदम बढ़ाता है।
पांच दिन की इस अनोखी और कभी न भूलने वाली कांवड़ यात्रा के दौरान मुझे कांवडि़यों के बीच रातें गुजारने का भी अवसर मिला, लेकिन कहीं मर्यादा टूटती नजर नहीं आयी। नाम नहीं केवल भोले, और खाना खाने से पहले दूसरे से इजाजत लेना और मनुहार करके खाना, इन पड़ावों को यादगार बना देने वाले क्षण थे।
हर की पैड़ी से कांवड़ लेकर चलने वाले जत्थों की रास्ते में ग्रामीण जगह-जगह रोकर दूध, फल, मिठाई, शरबत, पूड़ी-सब्जी, जलेबी, मालपुआ तक से जमकर सेवा करते नजर आये। कई जगह हमने भी इनका आनन्द लिया। सेवा करने वाले चाहते थे कि कांवडि़ये उनके हाथों ज्यादा से ज्यादा अपनी पसंद का पदार्थ खायें और उन्हें ज्यादा से ज्यादा पुण्य मिले। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
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