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-तरुण विजय-
जब चेन्नई में मैंने पहली बार रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत जी का यह कथन दोहराया कि 'मंदिर, कुआं और श्मशान घाट पर हिन्दू के लिए सांझा होना चाहिए' तो काफी सुगबुगाहट हुई। तमिलनाडु में जातिगत वैमनस्य चरम पर है और हिन्दुओं के श्मशान घाट वंचितों के लिए अलग यानी अनुसूचित जातियों के लिए श्मशान और पंडित भी अलग कर दिए गए हैं। बहुतार्थ मंदिरों में उन्हें दर्शन से अब रोका नहीं जाता पर उनके प्रति गहरा भेदभाव तो होता ही है। श्री भागवत के बयान को मैंने कई जगह संत तिरुवल्लुवर की वाणी से जोड़कर कहा तो वहां संघ के 'उच्च जाति' वाला मानने वालों को आश्चर्य हुआ। आंबेडकरवादी दल के नेता श्री तोल तिरुमावन मुझसे मिले और सार्वजनिक स्वागत किया। वे बोले कि संघ के प्रमुख ऐसा बयान दे सकते हैं, इसका उन्हें विश्वास ही नहीं था।
कुछ सप्ताह पूर्व उत्तराखंड के जौनसार बावर में एक मंदिर में अनुसूचित जाति के कुछ लोगों के साथ दर्शनार्थ गया तो दर्शन तो हुए पर देवता की डोली में हाथ लगाते ही भड़क उठे तथाकथित स्वार्थों ने जमकर पत्थर मारे। वह स्तब्धकारी, अविश्वसनीय दृश्य था। पढ़े-लिखे सरकारी नौकरियों में लगे लोग अपने ही हिन्दू बंधुओं को पत्थर मार-मारकर सिर्फ इसलिए खत्म करना चाहते थे क्योंकि वे भी देवदर्शन का समान अधिकार मांग रहे थे।
हम रक्त से लहूलुहान भागे- एक गाड़ी चालक के साथ कुछ किमी. गए तो उसने भी डर के मारे रास्ते में उतार दिया। वहां सड़क निर्माण विभाग के मजदूर ने हमें अस्थायी टीन-शेड में छुपाया, सिर पर पट्टी बांधी, शाल ओढ़ाया और कहा-मैं अपने ट्रक ड्राइवर के साथ आपको छुपा कर अस्पताल ले जाऊंगा। पता चला वह मुसलमान था। उमर नाम था उसका।
अस्पताल में जौनसार के कुछ मित्र मिलने आए तो मैंने कहा- यह कैसी विडंबना है- पढ़े लिखे हिन्दू, हिन्दुओं को पत्थर मार मार कर लहुलुहान कर रहे थे और अनपढ़ मुसलमान ने हिफाजत की। जब तक अनुसूचित जाति के लोग देवदर्शन चाहते हैं, ये पत्थर तभी तक तो पड़ेंगे। जब देवदर्शन की इच्छा ही छोड़ दी, ऐसे अहंकारी और मूर्ख हिन्दुओं को छोड़ दूसरा मजहब अपना लिया, उसके बाद किसे पत्थर मारेंगे? हम बाबासाहेब के साथ घटी त्रासदी इतनी जल्दी क्यों भूल गए?
सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने लिखा, आप सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं, हम आपके साथ हैं। आदरणीय रंगा हरि जी ने कोच्चि से कहा-आपके संघर्ष ने स्वयंसेवकों के प्रति विश्वास दृढ़ किया है कि संघ जातिभेद विरुद्ध है। ये शब्द मेरे रक्षा कवच बने।
एक अध्ययन के अनुसार गत पांच वर्षों में बाईस हजार सफाई कर्मचारी सीवर साफ करते हुए, उपर्युक्त उपकरणों के अभाव में जहरीली गैस के कारण मर गए। अभी इस वर्ष 28 जनवरी को चेन्नई के पास एक उन्नीस साल का लड़का सीवर साफ करते हुए मर गया।
गांवों में तो स्थिति यह है कि अनुसूचित जाति के लोगों की बस्ती बाकी गांव से अलग, कुछ बाहर होती है। आज भी नलों या हैण्डपंपों से पानी लेना कठिन होता है जहां से बाकी कथित 'सवर्ण' लेते हैं। कभी-कभी हमारे सुधारवादी संत उनके बीच जाते हैं- वह भी खबर बन जाती है क्योंकि अनुसूचित जाति की बस्तियों में साधु-संतों का जाना आमतौर पर नहीं होता।
जाति की दीवार इतनी मजबूत है कि पार्टियों की बाड़ लांघ हम एक हो जाते हैं-वंचित लिखते हैं कि वंचितों पर पत्थर मारना क्यों बाध्यकारी हो गया था। जब चोट लगे तो अनुसूचित जाति के लोगों के साथ खड़े होने में उन्हीं की जाति के नेताओं को भी दस बार सोचना पड़ता है, क्योंकि उन्हें अपनी 'प्रगति गाथा' के लिए तथाकथित सवर्णों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
अनुसूचित जाति के मेधावी, तीव्र-कुशाग्र लोगों को प्राय: दूसरा मत क्यों अपनाना पड़ता है? इस परिदृश्य में बाबू जगजीवन राम का उदाहरण एक कीर्ति स्तम्भ की भांति दिग्दर्शक है। उन्होंने अपमान, तिरस्कार सहा लेकिन अपने हिन्दू धर्म के प्रति अडिग और अभिमानी रहे। और उन्हें सर्वाधिक सहारा दिया-महामना मदन मोहन मालवीय जी ने। आदर्श हिन्दू नेता के रूप में महामना, बस महामना ही थे। न केवल उन्होंने जगजीवन राम जी को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए बुलाया बल्कि मन्दिर के अभियान में सतत् उनके साथ खड़े रहे और अहंकारी-तुच्छ बुद्धि के पंडितों को सही दिशा दिखाई।
लेकिन आश्चर्य की बात है कि देश-धर्म और जनहित पर लौह स्तम्भ की भांति अडिग रहने वाले इस अंबेडकर को कांग्रेस ने कभी भारत रत्न के योग्य नहीं माना और न ही बाबू जगजीवन राम को वह सम्मान मिला जिसके वे सच्चे हकदार थे। क्या उनका एकमात्र दोष यही हुआ कि समानता की लड़ाई लड़ते हुए भी वे हिन्दू बने रहे? यदि अपमान और तिरस्कार सहते हुए वे भी मत परिवर्तन कर लेते तो देश में सामाजिक भूचाल आ जाता।
आपातकाल के विरुद्ध आवाज उठाते हुए उन्होंने सिटिजन्स फॉर डेमोक्रेसी दल बनाया। तब प्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकार अब अब्राहम का वह कार्टून मुझे याद है जिसमें उन्होंने बाबू जगजीवन राम को एक बड़ा पत्थर जमीन से उठाते हुए (कांग्रेस) दिखाया जिसके नीचे दबे केंचुए बाहर निकल रहे थे। क्या यह सरकार ऐसे महान धर्मनिष्ठ राष्ट्रवादी, साहसी लोकतांत्रकि बाबू जगजीवन राम को भारतरत्न देने पर विचार करेगी? वे इस सम्मान के सच्चे हकदार हैं।
(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)
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