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अर्थतंत्र में दो साल पहले तक जो सुस्ती थी, राजग सरकार के आने के बाद वह चुस्ती में बदली है। यानी रसातल में पड़ी अर्थव्यवस्था चल पड़ी है। सरकार ने इस क्षेत्र में जो काम किए वह आसान नहीं थे। यहां तक कि मध्यवर्ग को गैस सब्सिडी छोड़ने के लिए प्रेरित करना कठिन था, पर इस कार्य को सरकार ने कर दिखाया
आलोक पुराणिक
राजनीति और अर्थव्यवस्था का एक गहन रिश्ता होता है। दरअसल गहराई से देखें, तो तमाम राजनीतिक वादे अंतत: आर्थिक वादे होते हैं। रोजगार देने के वादे, किसानों की आय को दोगुना किये जाने के वादे, बुलेट ट्रेन का वादा, महंगाई पर नियंत्रण के वादे ये सारे वादे आखिर आर्थिक ही हैं। इसलिए अर्थव्यवस्था का संचालन किसी भी सरकार के कामकाज के आकलन का महत्वपूर्ण मानक होता है।
आर्थिक रिसाव खत्म करने की कोशिश
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार के दो साल का लेखा-जोखा लेते वक्त यह ध्यान रखना जरूरी है कि भारतीय अर्थव्यस्था को चलाने वाली सिर्फ सरकारी नीतियां ही नहीं होतीं। इस देश में मानसून भी अर्थव्यवस्था का प्रधानमंत्री होता है। और मानसून दो सालों से लगातार कमजोर जा रहा है। इस वक्त देश के करीब आधे जिले सूखे से जूझ रहे हैं। ऐसी सूरत में संसाधनों का बहुत महत्व है, ताकि सूखा राहत समेत तमाम योजनाओं में उनका इस्तेमाल किया जा सके। तमाम योजनाओं में संसाधनों का रिसाव रोककर मोदी सरकार ने दो साल में करीब 36,500 करोड़ रुपये बचाए हैं। एलपीजी सिलेंडरों में सब्सिडी को रोककर दो साल में करीब 21,672 करोड़ रुपए बचाए गए। करीब साढ़े तीन करोड़ फर्जी एलपीजी उपभोक्ताओं का पता लगाया गया। सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में रिसाव रोककर करीब 10,000 करोड़ रुपये बचाये गए वहीं करीब 1.6 करोड़ फर्जी राशनकार्ड धारियों का पता लगाया गया। मनरेगा भुगतान में फर्जीवाड़े को रोककर करीब 3,000 करोड़ रुपए बचाए गए हैं। तमाम स्कॉलरशिप और पेंशन योजनाओं में फर्जीवाड़े पर लगाम से भी 2,000 करोड़ रुपये बचे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि जैसे-जैसे भुगतान सीधे खातों में जाने लगेगा, वैसे-वैसे फर्जीवाड़े को पकड़ना आसान हो जायेगा। इसलिए आधार कार्ड से जुड़े भुगतानों का महत्व बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक समझ ने बताया कि आधार कार्ड भले ही कांग्रेसी योजना हो, कांग्रेस के लोकसभा प्रत्याशी-नंदन निलकेणी द्वारा शुरू की गयी हो, पर इसका एक मजबूत आधार है और यह अर्थव्यवस्था को एक मजबूत आधार देगी। इसलिए कांग्रेस के ऐसे ताने सुनने के बावजूद कि मोदी हमारी ही योजनाओं को आगे बढ़ा रहे हैं, आधार कार्ड योजना को सरकार ने सिर्फ चालू ही रखा, उसे आगे बढ़ाया।
आधार से जुड़े भुगतान के चलते अर्थतंत्र में एक चुस्ती आयी है। मध्यवर्ग को गैस की सब्सिडी छोड़ने के लिए प्रेरित करना आसान काम नहीं था। सब्सिडी को सीधे लाभार्थी के खाते में पहुंचाना कठिन काम था। पर सरकार ने इसे कर दिखाया। इस चुस्ती के लिए केन्द्र सरकार की तारीफ होनी चाहिए।
तमाम अनुमानों के मुताबिक आने वाले समय में मानसून के बेहतर होने की संभावना है। इसके बेहतर होने से समूची अर्थव्यवस्था में बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है। तमाम कंपनियों की बिक्री और मुनाफे के आंकड़े बता रहे हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों से बिक्री वैसे ही नहीं हो रही है, जैसी कि उन्होंने उम्मीद की थी। अर्थव्यवस्था से और भी कई पक्षों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं।
स्टॉक बाजार दो साल में सिर्फ 12 प्रतिशत
मुंबई शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक 14 मई, 2014 को 23,815 बिंदु पर बंद हुआ था, यह 30 मई, 2016 को करीब 26,726 बिंदु पर बंद हुआ। यानी दो साल में इसमें करीब बारह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है। इससे ज्यादा पैसा तो कोई बैंक के 'फिक्स्ड डिपॉजिट' में दो साल में कमा सकता था। यानी शेयर बाजार ने मोटे तौर पर निवेशकों को निराश ही किया है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि भविष्य में स्टॉक बाजार निराश ही करेगा। हाल के दिनों में तमाम कंपनियों के परिणामों के जो विश्लेषण आ रहे हैं, उनके मुताबिक बिक्री और मुनाफे में बेहतरी के लक्षण दिखना शुरू हो गये हैं। मोटर साइकिलों से लेकर कारों की बिक्री में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। कार कंपनियों और मोटर साइकिल कंपनियों के शेयरों के भाव ने ऊपर का रुख दिखाना शुरू किया है।
लगातार दो सूखे के मौसम के बाद भी अर्थव्यवस्था में ज्यादा संकट नहीं है, यह अपने आप में एक आश्वस्तिकारक बात है। उम्मीद है कि दो या तीन तिमाहियों के बाद बेहतर होती अर्थव्यवस्था का साया शेयर स्टॉक बाजार पर साफ दिखायी देने लगे। पर शेयर बाजार के जो कारोबारी मोदी के आगमन पर बहुत जल्दी बहुत मोटी कमाई की उम्मीद लगाये थे, वे निराश ही हुए हैं। यह सरकार अंबानी-अडानी की सरकार है, यह बात कम से कम शेयर बाजार के आंकड़े तो नहीं बताते। दो साल में कुल 12 प्रतिशत का रिटर्न अंबानियों और अडानियों के लिए निराशाजनक ही है। कुल मिलाकर स्टाक बाजार के अल्प अवधि निवेशक, जो मोदी सरकार के आते ही लाखों करोड़ों में खेलने के ख्वाब देख रहे थे, निराश हुए। उनकी समझ में एक बात आ गयी है कि शेयर बाजार अंतत: दीर्घकालीन निवेश के प्रतिफल देता है।
खेती के लिए तैयारियां
कृषि क्षेत्र के लिए मोदी सरकार ने काफी कुछ करने की कोशिश की है, पर मौसम पर निर्भरता, छोटा रकबा और पुराना-गहरा आर्थिक दुष्चक्र किसानों की बड़ी समस्या है। किसानों की आत्महत्या के मसले को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में जमकर उठाया था । तमाम बीमा योजनाओं और दूसरी योजनाओं के बावजूद किसानों की समस्याएं पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। सूखे ने इन समस्याओं को और ज्यादा बढ़ा दिया है। पर किसानों की समस्या सिर्फ सूखा नहीं है। 2016-17 के आम बजट ने किसानों के लिए काफी कुछ करने की कोशिश की है। पर हाल में केन्द्र सरकार की एक पहल खेती-किसानी को एक नये बेहतर स्तर तक ले जा सकती है, पर इसमें कुछ समय लग सकता है। अप्रैल में राजग सरकार ने समग्र कृषि बाजार बनाने की पहल करते हुए एक पोर्टल का उद्घाटन किया, जिसमें उल्लेख है कि-कृषि उत्पादों के एक बाजार से दूसरे बाजार तक मुक्त प्रवाह, मंडी के अनेकों शुल्कों से उत्पादकों को बचाने और उचित मूल्य पर उपभोक्ता के लिए कृषि वस्तुओं को मुहैया कराने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय कृषि बाजार को विकसित करने के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम तैयार किया है। इन उद्देश्यों के लिए बनाया गया ई-प्लेटफार्म सितंबर, 2016 तक 200 से ज्यादा कृषि मंडियों को कवर करेगा और मार्च 2018 तक कुल 585 मंडियों में ऐसी प्रणाली विकसित की जाएगी जो किसानों के लिए अपनी पैदावार को बाजार तक पहुंचाने को आसान बनाएगी।
देश में इस समय करीब 7,000 मंडियां हैं। इनका नियमन कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानून के तहत होता है। फिलहाल किसान अपनी उपज मंडियों या बाजार समितियों के जरिए बेचते हैं, जो कि उनकी उपज पर कई तरह के शुल्क लगाते हैं। अब पूरे राज्य के लिए एक लाइसेंस होगा और एक बिंदु पर लगने वाला शुल्क होगा। मूल्य का पता लगाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नीलामी होगी। इसका असर यह होगा कि पूरा राज्य एक बाजार बन जाएगा और अलग-अलग बिखरे हुए बाजार खत्म हो जाएंगे। किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए और अधिक विकल्प मिलेंगे। वे देशभर से फल-सब्जियों और अन्य उपज की खरीद-फरोख्त कर सकेंगे। ऑनलाइन प्लेटफार्म होने से पारदर्शिता बढ़ेगी। किसानों को बेहतर कीमत मिल सकेगी। किसानों की आफत यह है कि एक साल प्याज कम होता है, तो उसके भाव आसमान चूमते हैं। इस पर हल्ला-बवाल होता है, कई किसानों को लगता है कि प्याज के अलावा किसी और सब्जी को उगाने में घाटा है। इतना प्याज हो जाता है कि मारा-मारा मिलता है। जैसे इस साल खबर है कि प्याज की फसल कुछ ज्यादा ही हुई है। एक समग्र कृषि बाजार ऐसी स्थितियों से निपटने में मदद कर सकता है। पर इस समग्र बाजार के परिणाम आने में वक्त लगेगा।
लेकिन खेती को लेकर लंबी तैयारियां बहुत जरूरी हैं, दो खास वजहों से। एक तो यह कि जब पूरी अर्थव्यवस्था के 7 प्रतिशत से ज्यादा की दर से विकास की बात हो रही है, तब कृषि क्षेत्र का विकास बमुश्किल एक प्रतिशत की दर से हो रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण के हिसाब से 2015-16 में कृषि क्षेत्र का विकास 1़1 प्रतिशत की दर से ही होने की उम्मीद है। यानी अर्थव्यवस्था का जो इलाका देश के बड़े हिस्से की जनसंख्या को सहारा देता हो, उसका सिर्फ एक प्रतिशत की दर से विकास समूची अर्थव्यवस्था के सात-आठ प्रतिशत की दर के विकास पर पानी सा फेर देता है। दूसरी बात यह है कि समूची अर्थव्यवस्था तब कायदे से विकसित हो पायेगी, जब खेती-ग्रामीण क्षेत्र की आय तेजी से बढ़े। इतिहास बताता है कि गरीबी में कमी उन सालों में बहुत तेजी से आयी, जब कृषि विकास की दर चार फीसद के आसपास रही। आंकड़े बताते हैं कि अगर खेती-किसानी की आय कम होती है, तो तमाम कंपनियों की मोटर साइकिलों से लेकर दंत मंजन तक की बिक्री में कमी आने लग जाती है। ऐसी सूरत में दरअसल सिर्फ कृषि विकास ही नहीं, पूरी अर्थव्यवस्था के विकास की ही योजना है।
नौकरी नहीं रोजगार
अर्थव्यवस्था में एक परिवर्तन यह हो रहा है कि अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा है, पर रोजगार के मौके बहुत ज्यादा नहीं आ रहे हैं। विश्व के कई संस्थान इस बात से सहमत हैं कि 2016-17 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर आठ प्रतिशत के आसपास तक पहुंच सकती है, पर अर्थव्यवस्था का विकास और तमाम लोगों का विकास अलग बात है। अर्थव्यवस्था में नयी नौकरियां ज्यादा नहीं पैदा हो रही हैं। इसकी वजह है मशीनों, नयी तकनीकी के चलते लोगों की जरूरत कम पड़ रही है। कम लोगों से ही ज्यादा काम लिया जा रहा है।
एक अनुमान के मुताबिक एक दशक पहले 10 लाख रुपये के औद्योगिक उत्पादन के लिए औसतन 11 लोगों की जरूरत होती थी, अब सिर्फ छह लोग ही उस काम को पूरा कर दे रहे हैं। काम हो रहा है, पर लोगों के लिए नौकरियां नहीं पैदा हो रही। तकनीकी के इस्तेमाल को रोका नहीं जा सकता। अगर रोजगार बढ़ाने के चक्कर में तकनीक पर रोक लगाई जाये, तो नतीजा यह होगा कि तमाम कंपनियां अपना कारोबार वहां शिफ्ट कर देंगी, जहां ऐसे बंधन न हों, और जहां निर्माण कार्य सस्ता पड़ता हो। इसलिए मोदी सरकार नौकरियों की नहीं आजीविका रोजगार की बात करती है। छोटी रकम के ऋण वाली मुद्रा योजना के तहत करीब 3.48 करोड़ लोगों को डेढ़ लाख करोड़ रुपए के ऋण दिये गये हैं। इस तरह के कजोंर् से छोटे कारोबार को सहारा मिलता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ई-रिक्शा और ई-बोट बांटते हुए दिखते हैं, इन योजनाओं से नौकरियां न भी मिल रही हों, रोजगार मिल रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था आजीविका, रोजगार तो पैदा कर सकती है, पर पक्की नौकरियां इस विकास से निकलेंगी, इसमें अभी संदेह ही है। इसलिए रोजगार बढ़ोतरी पर लगातार काम होना चाहिए। पक्की नौकरी की शक्ल में नहीं, तो किसी भी किस्म के रोजगार की शक्ल में।
सूखा और खाद्यान्न
केन्द्र सरकार के सामने अपने दूसरे साल के अंत और तीसरे साल की शुरुआत में सूखा एक विकट समस्या खड़ी कर गया है। अच्छी खबर यह है कि सूखे की वजह से गेहूं की पैदावार में कोई नकारात्मक फर्क आने की आशंका नहीं है। बुरी खबर यह है कि भुखमरी से परेशान लोगों के मरने की काफी खबरें आनी शुरू हो गयी हैं। इस वस्तु स्थिति से यह बात स्पष्ट है कि अकाल का मतलब गेहूं की कमी नहीं होता, क्रय-शक्ति की कमी होता है। क्रय-शक्ति सबके पास हो तो गेहूं और आटा सबकी पहुंच में होगा। मोदी सरकार के सामने चुनौती यह है कि ऐसे अकाल के समय में मनरेगा या दूसरी योजनाओं के जरिये समाज की आखिरी कतार पर खड़े व्यक्ति के पास भी क्रय-क्षमता हो। किसी भी सरकार के कार्यकाल में भुखमरी से हुई एक भी मौत सेंसेक्स के 5000 बिंदु उछलने की सफलता पर पानी फेर देती है। दालों के मसले को भी गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है। 180 रुपये प्रति किलो पर बिक रही उड़द की दाल किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत सुखद तस्वीर पेश नहीं करती। सरकार को दालों के मसले पर एक ठोस खाका पेश करना चाहिए कि आने वाले वक्त में इस समस्या से कैसे निपटा जायेगा। क्योंकि यह एकाध साल की समस्या नहीं है, बल्कि लगभग हर साल की समस्या है। अरहर की दाल को आम आदमी तक सस्ते भावों में कैसे पहुंचाया जाये, यह सिर्फ आर्थिक सवाल नहीं है, राजनीतिक सवाल भी है। दाल-रोटी प्रत्येक व्यक्ति को सुलभ होनी चाहिए।
तेज गति की दरकार
चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याएं अनगिनत हैं इसलिए उनमें गति की दरकार है। इस क्षेत्र में हासिल तमाम उपलब्धियों को रेखांकित करने के बाद यह लगातार देखा जाना चाहिए कि रोजगार और खाद्यान्न की कीमतों के मोर्चे पर कोई कमी न रह जाए, क्योंकि हाशिए पर जी रहा साधनहीन लोगों के जीवनयापन से जुड़े ये दो मसले ऐसे हैं, जो हर तरह के चुनावों पर असर डालते हैं। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
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