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आवरण कथा : करार से बहार

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May 30, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 May 2016 13:23:04

एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में तेजी से उभरते भारत ने पड़ोसी देशों के साथ संबंध बेहतर बनाने की अपनी नीति को नई ऊंचाई प्रदान की है। अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी और ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी की मौजूदगी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों देशों के बीच चाबहार संधि के जरिए आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ करते हुए व्यापारिक संबंधों को नया आयाम दिया है। चाबहार गलियारे से भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच सीधा व्यापार मार्ग उपलब्ध होगा। इस संधि से पाकिस्तान बेचैन है तो उसकी जड़ में प्रतिद्वंद्विता पर टिकी उसकी नीतियां ही जिम्मेदार हैं ल्ल  पाञ्चजन्य ब्यूरो
अपनी सरकार का दूसरा वर्ष पूरा करते-करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ईरान जाकर वह लक्ष्य हासिल कर दिखाया है, जिससे भारत ही नहीं, ईरान और अफगानिस्तान भी कई सदियों से वंचित थे।
औपनिवेशिक युग ने इस भूभाग के भूगोल को बुरी तरह प्रभावित किया था। भारतीय उपमहाद्वीप में उसकी समाप्ति भारत के विभाजन के साथ हुई। वास्तव में 1947 में हुए भारत विभाजन के कई आयाम हैं, और इन्हें कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है।
एक आयाम है इतिहास का। विभाजन के कारण भारत अपने ही समृद्धतम इतिहास के कई अध्यायों से कट गया। आज भारत और अफगानिस्तान या भारत और ईरान के ऐतिहासिक संबंधों को कितने लोग जानते हैं?  इतिहास की उनकी बची-खुची जानकारी को विकृत करने के लिए पाकिस्तान अपने हथियारों का, विशेषकर मिसाइलों का नाम उन अफगानों और ईरानियों के नाम पर रखता गया, जिन्होंने कभी भारत पर हमले किए थे। इसके अलावा इतिहास क्या था, उसे परखने का कोई चारा विभाजन से बदले भूगोल ने नहीं छोड़ा था।
इसी तरह दूसरा बड़ा आयाम था भूगोल का। जहां तक हमारी प्राकृतिक सीमाएं थीं, उसके और हमारे बीच कई कृत्रिम सीमाएं बन गई थीं। तीसरा बड़ा आयाम था अर्थव्यवस्था। विभाजन ने भारत की जीवंत अर्थव्यवस्था का बंटवारा कुछ निर्जीव टुकड़ों में कर दिया था। गेहूं, कपास और जूट-पटसन जैसी कुछ बेहद अहम फसलों के क्षेत्र विभाजन के बाद भारत से छिन गए थे, इनकी पूर्ति करने में हमें काफी समय लगा।
पाकिस्तान का जन्म होने, और भारत-अफगानिस्तान की प्राकृतिक सीमा के पहले एक कृत्रिम राजनैतिक-भौतिक-सैनिक-वैचारिक सीमा पैदा हो जाने के कारण भारत का अपना राजनैतिक-भौतिक-सैनिक-वैचारिक व्याप भी सीमित हो गया था। भारत के इस सीमित व्याप का सबसे ज्यादा फायदा उठाया पाकिस्तान ने। जिसे वह अपना भू-रणनैतिक महत्व कहता था, वास्तव में उसकी मुख्य धुरी ही यह थी कि अफगानिस्तान को बंधक बनाकर वह भारत को परेशान करने में सक्षम हो गया था और जिन ताकतों की इच्छा भारत को परेशानी में डालने की रहती थी, वे पाकिस्तान को डालरों, युआनों, रियालों में चंदा, मेहनताना, इनाम, खैरात वगैरह देती रहती थी। इस खैराती बाजार में अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए आतंकवाद पाकिस्तान का दूसरा हथकंडा था, और है। आतंकवाद की इस फैक्ट्री का कच्चा माल था अफगानिस्तान और आज भी है। आतंकवादियों की भर्ती, ट्रेनिंग, फंडिंग के लिए अफीम की तस्करी-यानी पूरी आतंक इंडस्ट्री अफगानिस्तान पर निर्भर थी। इस कारण (कुछ कारण और भी हैं) पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपनी रणनैतिक गहराई मानता रहा और ऐसा करते समय वह अपने कथित भू-रणनैतिक महत्व को पूरी तरह भूलता रहा।
कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों से निबटने की प्रभावी रणनीति क्या होगी-इस सवाल पर पंजाब के पूर्व डीजीपी के़ पी़ एस़ गिल  ने एक बार कहा था कि पिछले एक हजार वर्ष में जब भी भारत की अफगान नीति कमजोर हुई है, हमें कश्मीर में समस्या का सामना करना पड़ा है। वास्तव में अफगानिस्तान को अपनी रणनैतिक गहराई बनाने और बनाए रखने के लिए पाकिस्तान को वहां कट्टरपंथ से लेकर आतंकवाद, और अफीम-हीरोइन की खेती करनी पड़ती थी। यह एक सतत प्रक्रिया बना दी गई थी, जिसका खामियाजा अंतत: कश्मीर को भुगतना पड़ता था।
अफगानिस्तान के साथ भारत के संबंध पुन: जीवंत होते ही निश्चित रूप से इसका असर आने वाले समय में अफगानिस्तान से लेकर कश्मीर तक के आतंकवाद पर देखने को मिलेगा।
स्वाभिमानी अफगानों को (याद दिला दें कि अफगान और अफगानिस्तान दोनों संस्कृत शब्द हैं, और ईरान भी आर्यवर्त से आर्यन का अपभ्रंश है) इन्हीं हरकतों के कारण पाकिस्तान फूटी आंख नहीं सुहाता। जवाब में पाकिस्तान उनसे बंधक के तौर पर व्यवहार करता था। अफगानिस्तान को विदेशों से मिल सकने वाला अनाज और दवाइयां तक पाकिस्तान की मर्जी की मोहताज थीं। आत्मरक्षा लायक हथियार तो दूर की बात थे।
पूर्व राजनयिक श्री जे. के. त्रिपाठी  के अनुसार, ''चाबहार समझौते के बाद, ईरान के रास्ते, अफगानिस्तान के लिए सांस लेने का ऐसा रास्ता खुल गया है, जो पाकिस्तान की मर्जी का मोहताज नहीं है। इसमें पाकिस्तान की कोई दखलंदाजी नहीं रहेगी।'' अब अफगानिस्तान की गर्दन दबाने से पहले उसे एक साथ भारत, ईरान, अफगानिस्तान और संभवत: जापान से लोहा लेना पड़ेगा।
ईरान के साथ चाबहार बंदरगाह का विस्तार करने का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कदम एक ही झटके में विभाजन का तो नहीं, लेकिन विभाजन के कारण पैदा हुई भौगोलिक-राजनैतिक और सैनिक समस्याओं का समाधान कर देता है। अफगानिस्तान और ईरान तक लाहौर होकर जाने का रास्ता उपलब्ध नहीं है। कोई बात नहीं। आप कांडला जाएं, वहां से चाबहार (ईरान) जाएं और फिर ट्रेन से अफगानिस्तान जा सकते हैं। बीच में टोकने वाला कोई नहीं होगा।
चाबहार के इस तरह के निहिताथार्ें को सभी ने देखा है, उन्होंने जो नहीं देखा है, वह वास्तव में इस देश को परम वैभव की ओर ले जाने वाला निहितार्थ है। कोई भी चित्र सिर्फ एक रेखा से नहीं बनता। कोई रेखा सिर्फ एक बिन्दु से नहीं बनती। पूरे चित्र को समझने के लिए जरूरी है, कुछ बिन्दुओं को मिलाया जाए। इन बिन्दुओं में पहला कोई नहीं है, या सभी पहले हैं। शुरुआत करते हैं, प्रधानमंत्री की सऊदी अरब यात्रा से।     
प्रधानमंत्री मोदी 2-3 अप्रैल को सऊदी अरब की यात्रा पर गए थे। इन बातों का अपना, लेकिन भावनात्मक, महत्व है कि सऊदी अरब ने प्रधानमंत्री को अपने सवार्ेच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया, या सऊदी अरब ने श्रीमद्भगवत गीता का अरबी संस्करण जारी किया। महत्वपूर्ण यह भी है कि व्यापार, निवेश, आतंकवाद और रणनीतिक भागीदारी के मसलों पर दोनों देशों ने नजदीक आने की इच्छा और कोशिश की है, इन आशयों के समझौते हुए हैं। विशेषज्ञ कहते हैं, सऊदी अरब की, उसके बाजार की और उसके तेल की जो आवश्यकता है, उसका महत्व सभी जानते हैं। लेकिन सऊदी अरब को अपनी गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए अपने दरवाजे भारत के लिए खोलने की जो आवश्यकता है, वह भी इस पृष्ठभूमि का एक हिस्सा है। अब सऊदी अरब के साथ संबंधों में सुधार ने पहले से चली आ रहीं कई  समस्याओं को समाप्त कर दिया। जैसे, कश्मीर के मसले पर सऊदी अरब का पुराना रवैया, पाकिस्तान का पहलू, क्षेत्रीय और वैश्विक राजनैतिक प्रश्न। ईरान के साथ भारत के संबंधों को लेकर सऊदी अरब सहज नहीं है, लेकिन उसे यह समझना पड़ा है कि भारत भी पाकिस्तान के साथ उसके विशेष संबंधों को लेकर बहुत सहज नहीं है। इस कूटनीति का असर यह हुआ है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब से मिलने वाला समर्थन अब अबाध और बिना शर्त नहीं रह गया है। किराए की सरकारें पालने का आर्थिक माद्दा भी सऊदी अरब में नहीं रह गया है। अंतरराष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद भले ही वहाबी मत पर आधारित हो, और भले ही सऊदी अरब इस मत का सबसे बड़ा पैरोकार हो, लेकिन आइएस का आतंकवाद खुद सऊदी अरब के लिए भारी पड़ रहा है। लिहाजा आतंकवाद के मसले पर भी दोनों देश नजदीक आए हैं, और सत्य यह है कि सऊदी अरब की मदद, सूचना और निशानदेही कई भारत विरोधी आतंकवादियों की धरपकड़ में निर्णायक साबित हुई है। यानी मोदी की सऊदी अरब यात्रा ने पाकिस्तान के हाथ से दो बड़े पत्ते छीन लिए हैं।
उधर भारत अब मध्य पूर्व में सिर्फ तेल का खरीदार नहीं रह गया है। वह राजनैतिक और सैनिक मामलों में भी एक महत्वपूर्ण पक्ष बन कर उभरा है। सऊदी अरब के साथ समझौतों के बाद भारत के लिए अफगानिस्तान और ईरान के साथ बात करना ज्यादा आसान और ज्यादा विश्वासकारी रहा है।
एक अन्य बिन्दु भारत के रक्षा और अंतरिक्ष प्रतिष्ठानों की सफलता का रहा है। जब आप उस देश के वासी होते हैं, जिसके पास अपनी ट्रैकिंग प्रणाली हो, अपनी परमाणु पनडुब्बी हो, अपनी पनडुब्बी से दागी जा सकने वाली मिसाइल हो, तो आप सिर्फ जबानी जमा खर्च करने वाली बड़ी शक्ति नहीं होते। जब आपके अंतरिक्ष शटल का प्रयोग पहली बार में ही सफल हो जाता है, तो दुनिया आपके साथ संबंध बनाने की ताक में रहती है, आपको संबंधों के लिए गिड़गिड़ाने की जरूरत नहीं रह जाती। मोदी की ईरान यात्रा के कुछ ही दिन पहले, भारत के वायुसेना अध्यक्ष ने स्वदेश निर्मित हल्के लड़ाकू विमान तेजस पर उड़ान भरी थी। जाहिर है, अगर यह परीक्षण उड़ान भी थी, तो यह परीक्षण पूरे आत्मविश्वास का था। यही आत्मविश्वास फिर विदेशों के साथ संबंधों में दमकता है।
 

चौथा बिन्दु विशुद्ध आर्थिक है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ईरान पहुंचे थे, तो उसी समय, भारत ने ईरान को 75 करोड़ डालर का वह चैक भी थमाया था, जो भारत को अतीत में खरीदे गए तेल के ऐवज में चुकाने हैं। ईरान को तेल का यह पैसा अभी और भी दिया जाना है, लेकिन इस रकम ने भारत की न केवल नेकनीयती, बल्कि चुका सकने की क्षमता भी सामने रख दी। इसके विपरीत इसी वर्ष 20 जनवरी को जब नवाज शरीफ भी तेहरान गए थे, तो खाली हाथ लौट आए थे, और जब मार्च में ईरानी राष्ट्रपति पाकिस्तान गए थे, तो उन्होंने दो बार पाकिस्तान से व्यापार बढ़ाने की गुहार की थी। आखिर ईरान लंबे समय तक प्रतिबंधों की मार झेलता रहा है। लेकिन पाकिस्तान से रूहानी को कोई उत्तर नहीं मिला। उल्टे आईएसआई ने उन्हें खरी-खोटी सुनाकर यह जरूर जता दिया कि पाकिस्तान में चौधरी केवल वही है। एक और अति महत्वपूर्ण बिन्दु। भारत ने यह सारी मुहिम शुरु होते ही, यह आदेश भी जारी किया कि भारत का गलत नक्शा प्रकाशित करने पर कड़ा दंड मिलेगा। इस पर पाकिस्तान काफी कसमसाया भी। पाकिस्तान के संदर्भ में, इसका साफ संबंध कश्मीर से है। इसी के साथ-साथ, भारत ने चीन से कहा है कि वह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में अपनी सारी गतिविधियां पूरी तरह बंद करे।
इसका क्या संदेश है? संदेश बहुत साफ है। भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को न अपनी नियति मान कर स्वीकार करने जा रहा है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों को उनकी नियति के भरोसे छोड़ने जा रहा है। आतंकवाद पर कसता अंतरराष्ट्रीय शिकंजा, अफगानिस्तान में अफीम की खेती पर लग सकने वाला अंकुश, अफगान तालिबान के प्रति अमेरिका की नई सख्ती- सारे लक्षण इसी दिशा में हैं कि कुछ देर से ही सही, अच्छे दिन पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी आएंगे।
अब देखें, चाबहार समझौते का तात्कालिक प्रभाव। इस समझौते की वजह से भारत के लिए यूरिया और कच्चे तेल के परिवहन के खर्च में 25 प्रतिशत की बचत होगी। भारत ईरान में एक बड़ा बाजार भी तैयार कर सकेगा। इस समझौते से आने वाले समय में भारत को काफी सस्ता कच्चा तेल मिलने लगेगा जिसका लाभ भारत की जनता को होगा और भारत में महंगाई को नियंत्रण में रखने में मदद मिलेगी। इसके अलावा भारत चाबहार हवाईअड्डे पर कच्चे तेल का भण्डारण भी कर सकेगा जिसे जरूरत होने पर इस्तेमाल किया जा सकेगा।
इस समझौते का दूसरा सबसे बड़ा लाभ अफगानिस्तान को हुआ है। वह पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त हुआ है और उसकी प्रगति का रास्ता भी खुल गया है। वह अब न केवल भारत के बूते भारत से जुड़ गया है, बल्कि पूरी दुनिया से, खासकर यूरोप से  जुड़ गया है। भारत चाबहार बन्दरगाह से अफगानिस्तान तक गलियारा बनाएगा, जिससे होकर भारतीय सामान को आसानी से अफगानिस्तान पहुंचाया जा सकेगा। विदेश संबंधों के जानकार भारत-ईरान-अफगानिस्तान के बीच उभरे इस नए समीकरण को सकारात्मक नजरिए से देख रहे हैं।     ल्ल

 

यह होगा चाबहार करार से
–   अफगानिस्तान को शेष दुनिया के साथ व्यापार करने के लिए प्रभावी और अधिक मित्रवत मार्ग मिलेगा।
–    इस मार्ग का विस्तार मध्य एशियाई देशों तक किया जा सकता है और जब इसे अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारे से जोड़ा जाएगा, तो यह एक ओर दक्षिण एशिया से और दूसरी ओर यूरोप से जुड़ जाएगा।
–   पारंपरिक समुद्री मागार्ें के मुकाबले इस मार्ग से यूरोप तक माल भेजने में लगने वाले समय और खर्च में 50 फीसदी तक बचत होगी।
–    चाबहार गलियारा शांति और समृद्धि का गलियारा होगा। आर्थिक विकास और सशक्तिकरण से इसे मजबूती मिलेगी। यह तीनों देशों के बीच की सीमाओं को तोड़ेगा और आम लोगों के आपसी संपर्क की नई मिसाल पेश करेगा।
–    यह समझौता उनके विरुद्ध आपसी सहयोग के लिए खड़े होने की हमारी क्षमता को मजबूती देगा, जिनका एकमात्र मकसद बेगुनाहों की हत्या करना है।
–   चाबहार को एक क्षेत्रीय व्यापार केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए भारत खोलेगा 500 मिलियन डॉलर का 'लाइन ऑफ क्रेडिट'
–   बंदरगाह की मदद से भारत अफगानिस्तान और मध्य एशिया में समुद्र-जमीन मार्ग से सामान भेज सकेगा।
–   चाबहार में संयुक्त निवेश से भारत को अफगानिस्तान, मध्य एशिया और सीआईएस देशों के साथ जोड़ा जा सकता है।
–    चाबहार और जहेदान के बीच 500 किमी रेल लाइन बिछाने में भारत मदद करेगा।
–   भारत के इस कदम से पाकिस्तान में चीन का  दखल कम होने के आसार।
–    अफगानिस्तान के निमरोज सूबे में 220 किमी सड़क बनाने में भारत ने लगाए हैं 10 करोड़ डॉलर। यह सड़क चाबहार तक बढ़ाई जाएगी।
–    भारत के लिए चाबहार बंदरगाह का रणनीतिक महत्व, इससे अरब सागर में चीन की उपस्थिति का  मुकाबला करने में मदद मिलेगी।
–    तेहरान से 1800 किमी दूर चाबहार से सटा है मुक्त व्यापार क्षेत्र।
–    चाबहार में बंदरगाह बनाने का करार पहली बार 2003 में ईरानी राष्ट्रपति खतामी के नई दिल्ली दौरे के दौरान तैयार हुआ था। तब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।
–  गुजरात के कांडला बंदरगाह और चाबहार के बीच का फासला नई दिल्ली और मुंबई के बीच की दूरी से कम है। 

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