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भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। दीनदयाल उपाध्याय जी इसे स्वयंसिद्ध हिन्दू राष्ट्र मानते थे। हमारे पूर्वजों और ऋषि-मनीषियों ने राष्ट्र की कल्पना केवल भौगोलिक दृष्टिकोण से कभी नहीं की, बल्कि राष्ट्र की अभिकल्पना चारित्रिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आधार पर की गई। अथर्ववेद में कहा गया है –
माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या!
यानी पृथ्वी मां स्वरूप है और हम सभी मानव उसके पुत्र। मातृभूमि की इस भक्ति से ही एकात्म की अनुभूति पैदा होती है। यह भारत हमारी माता है। हम सब उसकी संतान होने से एक परिवार हैं। इस समाज में सभी पंथ, संप्रदाय हमारे हैंं। समाज में जितनी भी बोलियां बोली जाती हैं, वे सब अपनी हैं। सभी जातियंा इस समाज के एक विराट शरीर के अवयव हैं। उनमें भी में एक ही चैतन्य है, इस प्रकार के एकात्म का बोध इस मातृभूमि की भक्ति से पैदा होता है और इससे ही सामर्थ्य का सृृजन होता है।
इस राष्ट्र चेतना के विस्तार का विवरण हमारे साहित्य, वेदों जिनमें अथर्ववेद व ऋग्वेद प्रमुख हैं, खूब मिलता है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त मेंे 63 श्लोकों की एक मालिका है, जिसमें धरती के साथ हमारा संबंध क्या है, की व्याख्या है।
भद्र इछन्त ऋशय: स्वर्विद: ॥ तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे रुं ।
ततो राष्ट्र बलं ओजष्च जातम् ॥ तदस्मै देवा उपसं नमन्तु ।
अर्थात आत्मज्ञानी ऋषियों ने जग कल्याण की इच्छा से सृष्टि के प्रारंभ में जो दीक्षा लेकर किया, उससे राष्ट्र निर्माण हुआ। राष्ट्रीय बल और ओज प्रकट हुआ। सो सब राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।
राष्ट्र का भौगोलिक विस्तार
हिमालया समारम्य यावदिन्दु सरोवरम ्
हिन्दु स्थानमिति ख्यात मान्द यन्ताक्षरयोगत:
यह भूमि जो हिमालय से कन्याकुमारी तक फैली है वह हिन्दुस्तान है। विष्णुपुराण में भी वर्णन है कि हिमालय के दक्षिण की ओर, समुद्र के उत्तर की ओर यह एक सम्पूर्ण भारत राष्ट्र है। कर्मकांड या अनुष्ठान के लिए हम जो संकल्प लेते हैं उसमें भी भारत का महातम्य व भौगोलिक विस्तार का स्मरण है-
जम्बू द्वीपे भरत खण्डे भारत वर्षे आर्यावर्तान्तर्ग देशैक पुण्यक्षेत्र षष्टि संवतसराणां़.़.़.़.़.़.़.।
संस्कृतिनिष्ठ राष्ट्र
हमारे राष्ट्र का अधिष्ठान है हमारी संस्कृति जो सनातन है। हम समस्त नदियों की समस्त जल स्रोतों की आराधना करते हैंं। आज भी जब किसी अनुष्ठान में जल का आचमन करते हैं तो यह मंत्र उच्चारित करते हैं-
गंडं्गेयच यमुने चैव गोदावरी सरस्वति
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् संनिधिं कुरू
यहां गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु और कावेरी से आह्वान किया जाता है कि हमारे इस अनुष्ठान के लिए वे हमें जल प्रदान करें।
दीनदायाल उपाध्याय भारत को प्राचीन काल से ही भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूप से एक राष्ट्र प्रतिपादित करते है।
1848 में जर्मन विद्वान मैक्स मूलर ने एक मनगढंत सिद्घांत दिया कि 1500 ईस्वी पूर्व आयार्ें ने हमारे देश पर आक्रमण कर यहां के मूल निवासियांे को दास बनाया। उसने हड़प्पा में मिले भग्नावशेषों के आधार पर कहा कि सिंधु घाटी सभ्यता पर आक्रमण हुआ था। उसने वेदों में वर्णित सरस्वती नदी को अफगानिस्तान मंे होने का दावा कर हमारे ग्रंथों की विश्वसनीयता और मूल होने पर भी सवाल खड़ा कर दिया। झूठ काफी चला लेकिन अब यह ध्वस्त हो चुका है।
बाबासाहेब आंबेडकर ने स्वयं इस बारे में तर्कशील दृष्टि से स्थिति साफ की। उन्होंने लिखा — ''ऋग्वेद में सातों नदियों के बारे में जिस भाव व भाषा में लिखा गया है वह काफी महत्वपूर्ण है। कोई भी विदेशी नदियों को मेरी गंगा, मेरी यमुना और मेरी सरस्वती जैसे आत्मीयता व श्रद्घा भाव से संबोधित नहीं कर सकता जब तक कि उसका इनके साथ लंबा, आत्मीय संबध न रहा हो और उनके प्रति भावनात्मक लगाव न हो। ऋग्वेद के इस संदर्भ के बाद इस सिद्घांत के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता कि आर्यों ने भारत पर हमला कर गैर-आर्यों को अपना दास बना लिया था।''
हमारी अटूट राष्ट्र भक्ति
हमारे राष्ट्रवाद का मर्म – 'भारत माता की जय' है। वाल्मीकि रामायण में भी राष्ट्र के प्रति गहरी आस्था प्रकट की गई है। प्रसंग है – लंका विजय के बाद जब यह विषय आया कि क्यों न प्रभु राम अपनी सेना समेत वहीं रह जाएं। तब सोने की लंका दुनिया की संपत्ति की राजधानी थी। लेकिन भगवान राम लक्ष्मण से कहते हैं —
'…जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी।'
अर्थात हमारी जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बड़ी है।
हम अखंड भारत के उपासक हैं। दीनदयाल जी कहते हैं 'अखंड भारत हमारे लिये राजनैतिक नारा नहीं वरन् श्रद्घा का विषय है।'
भारत, एक आराध्य भूमि
अपनी मातृभूमि का स्वरूप कितना दिव्य-भव्य है, इस बात की समाज को हमेशा जानकारी रहे ऐसी व्यवस्था अपने पूर्वजों ने कर रखी है। तीर्थ यात्रा के चारों धाम का अर्थ है मातृभूमि की पूरी प्रदक्षिणा। इन धामों की यात्रा करने से जान पड़ता है कि अपनी मातृभूमि कितनी विस्तृत, वंदनीय और आदरणीय है।
राष्ट्र की आत्मा, चिति व विराट
दीनदयाल उपाध्याय जी कहा करते थे- किसी भी कार्य के गुण-दोषों का निर्धारण करने की शक्ति अथवा मानक चित्ति शक्ति है। प्रकृति से लेकर संस्कृति तक में उसका सर्वव्यापक प्रभाव है।
उत्थान, प्रगति और धर्म का मार्ग चिति है। चित्ति सृजन है। चित्ति ही किसी भी राष्ट्र की आत्मा है जिसके सम्बल पर ही राष्ट्र का निर्माण संभव है। चित्ति विहीन राष्ट्र की कल्पना व्यर्थ है।
राष्ट्र का हर नागरिक, राष्ट्रीय हित से जुड़ी संस्थाएं सब इस चिति के दायरे में आती है। कोई भी समाज किसी बात को श्रेष्ठ अथवा अश्रेष्ठ क्यों मानता है? जो 'चित्ति' के अनुकूल हो वह श्रेष्ठ अर्थात् संस्कृति, जो चित्ति के प्रतिकूल हो वह अश्रेष्ठ अर्थात् विकृति।
यह चित्ति जन्मजात होती है, इसके उत्थान-पतन से राष्ट्रों का उत्थान-पतन होता है। अपनी 'चित्ति' के विस्मरण ने हमें दूसरों का गुलाम बनाया, चित्ति के पुन: स्मरण ने आजादी दिलाई।
स्वस्थ समाज की शक्ति – 'विराट'। यह समाज की अन्तर्निहित एवं प्रतिरोधक शक्ति है। समाज के समस्त घटकों का जन्म 'विराट' से ही होता है। घटकों में पृथकता का भाव 'विराट' को शिथिल करता है। सांस्कृतिक राष्ट्र की नियामिका शक्ति है 'चित्ति' एवं 'विराट'। जागृत चित्ति एवं शक्तिशाली विराट राष्ट्र का नियोजन एवं संर्वधन करते हैं।
-मुरलीधर राव (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं)
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