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भारतीय अर्थव्यवस्था की चंद वास्तविकताएं साफ नजर आती हैं। 1990 के दशक से आर्थिक उदारीकरण के बाद औसत ब्याज दरों में गिरावट के बावजूद परिवार द्वारा की जा रही बचत में लगातार बढ़त दर्ज हुई है। हालांकि, 1991 से ही तेजी से बढ़ते भारतीय शेयर बाजार में किया गया निवेश बैंकों में जमा पर मिलने वाले ब्याज से दोगुना फायदा दिलाने का भरोसा देता रहा, फिर भी ज्यादातर लोग बचत के लिए बैंक ही चुनते हैं। भारतीय परिवार शेयर में निवेश करने के बजाय बैंक, सोना और संपत्ति पर ज्यादा भरोसा करते हैं। देखते हैं कि कैसे इन कारकों ने भारत के वृहत आर्थिक आधारों पर असर डाला। 2000 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था घरेलू बचत के सहारे बढ़ रही थी जो 2009 में '91-92 के सकल घरेलू उत्पाद के 21 फीसदी के स्तर से बढ़कर 37 फीसदी हो गयी थी और आज 32-33 फीसदी पर बनी हुई है। घरेलू पूंजी 1991-92 के 22% से बढ़ती हुई 2011-12 में 38 फीसदी से ऊपर चली गई। उदारीकरण के दो दशकों के दौरान भारत में शुद्घ विदेशी निवेश राष्ट्रीय निवेश का औसतन 3 फीसदी ही रहा । 1990 के दशक में जब भारत ने आर्थिक उदारीकरण की दिशा में मुक्त विदेशी निवेश और विदेशी व्यापार के लिए अपने दरवाजे खोले तो अर्थव्यवस्था संबंधी चर्चाओं में कई बातें उभरने लगीं। जनता तक यह संदेश पहुंचा कि भारतीय ज्यादा बचत नहीं करते, इसलिए घरेलू पूंजी कोष अपर्याप्त है। विकास के लिए विदेशी निवेश जरूरी है। निर्यात और विदेशी व्यापार को विकास का मुख्य कारक मानते हुए इस पर जोर दिया गया । विदेशी निवेश ने अंदरूनी विकास के मुकाबले बाहरी घाटे की भरपाई की दिशा में ज्यादा वित्तपोषण किया। सो, भारत की विकास गाथा में निवेश और मांग के संदर्भ में घरेलू आवेग बेहद महत्वपूर्ण कारक बन गए, लेकिन बाहरी बल की अहमियत भी कमोबेश बनी रही। भारत में विकास और रोजगार के लिए त्वरित उपायों की अगर बात करें तो इसका जवाब कापार्ेरेट भारत नहीं होगा।
रोजगार विहीन कॉपार्ेरेट विकास
क्रेडिट सुइस एशिया पैसेफिक इंडिया इक्विटी रिसर्च इन्वेस्टमेंट स्ट्रेटजी (जुलाई 2013) का अध्ययन दर्शाता है कि उदारीकरण की शुरुआत से दो दशक बाद राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में सार्वजनिक और निजी कंपनियों की साझा हिस्सेदारी सिर्फ 15% थी जिसका एक तिहाई यानि 5% सूचीबद्घ कॉरपोरेट घरानों का था। वे अर्थव्यवस्था का छोटा-सा सिरा भर हैं, पूरा ढांचा नहीं। उन्हें करीब 550 अरब डॉलर का निवेश और 18 लाख करोड़ रुपये से अधिक का बैंक ऋण हासिल हुआ और मुनाफा बढ़ता गया। कापार्ेरेट भारत वैश्विक सूची के अरबपतियों में नाम लिखाने लगा। पर गत 23 वषोंर् में देश के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्घि में उनका क्या योगदान रहा, सिर्फ 3 प्रतिशत? दो दशकों में उन्होंने कितने रोजगार पैदा किए? मात्र 28 लाख! तो नौकरियां और लोगों के रोजगार के स्रोत कहां से पैदा हुए?
वित्त पोषण वंचित, पर रोजगार समृद्घ क्षेत्र
क्रेडिट सुइस का अध्ययन दिखाता कि गैर-कार्पोरेट क्षेत्रों ने कुल 90 फीसदी रोजगार पैदा किए और राष्ट्रीय जीडीपी का 50 फीसद योगदान दिया। आर्थिक जनगणना 2013-14, के अनुसार परिवार के स्वामित्व वाले करीब 5 करोड़ 77 लाख गैर-कृषि और गैर-निर्माण कारोबारों से 1 करोड़ 28 लाख नौकरियों का सृजन किया गया। इसमें से 60 फीसदी ओबीसी, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों द्वारा संचालित हैं और उनकी ओर से मुहैया कराए जा रहे ज्यादातर रोजगार ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। लेकिन इस सामाजिक न्याय और रोजगार से भरपूर क्षेत्र को अपनी जरूरत का सिर्फ 4% बैंकों से मिल पाता है, बाकी साहूकारों से उनके मनमाने ब्याज पर उठाना पड़ता है। रोजगार समृद्घ छोटे व्यवसायों को संगठित वित्त प्रदान करने के लिए मुद्रा वित्त योजना शुरू करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ''लोगों को लगता है कि बड़े उद्योग और व्यापारिक घराने ही ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराते हैं। सच तो यह है कि एमएसएमई क्षेत्र द्वारा सृजित 12 करोड़ रोजगार के मुकाबले बड़े व्यापारिक घरानों ने मात्र 1 करोड़ 2़5 लाख नौकरियां ही प्रदान की हैं।''
परिवारों की आर्थिक स्थिरता
भारत क्यों भिन्न है? दरअसल यहां संबंध-प्रधान सामाजिक व्यवस्था सांस लेती है, जबकि पश्चिम में अनुबंध आधारित व्यक्तिवादी जीवनशैली है। भारत में परिवार अनुबंध आधारित रिश्ता नहीं जो इच्छानुसार समाप्त किया जाए, बल्कि एक समन्वित सांस्कृतिक संस्था है जिसके सदस्य परवाह और साझा भावनाओं से बंधे होते हैं। यहां बुजुर्ग और कमजोर, बीमार और अस्वस्थ और बेरोजगार को जरूरी देखभाल मिलती है जिससे यहां बचत की सहज प्रवृत्ति का विकास होता है। पश्चिम में परिवार के अधिकांश कायोंर् का दायित्व सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा योजनाओं के माध्यम से राज्य वहन करता है। कह सकते हैं कि पश्चिम में परिवार का राष्ट्रीयकरण हैं। परिवार दायित्वों के राष्ट्रीयकरण से बचत प्रवृत्ति कमजोर हो जाती है जो अमेरिका में दिखाई देता है। 1960 के दौरान अमेरिका की राष्ट्रीय बचत 80% थी, वहीं 2006 की तीसरी तिमाही में घरेलू बचत लगातार गिरती हुई शून्य से 20% नीचे खिसक गयी थी। ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के बैरी बोसवर्थ ने लिखा है कि एशिया में बचत विरासती दायित्व है, जबकि अमेरिका में निजी पसंद।
लेकिन, व्यक्तिवादी पश्चिम से आयातित उदार आर्थिक नीतियों ने भारतीय परिवारों के पारंपरिक व्यवहार को प्रभावित नहीं किया। 1981-82 से 2007-08 के दौरान नियोजन अर्थव्यवस्था और उदार अर्थव्यवस्था की आय-खपत-बचत दरें दिखाती हैं कि जब प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी हुई तो 2007-8 में प्रति व्यक्ति खर्च 1991-92 के 64% से गिरकर 58 फीसदी पर दर्ज हुआ, परिणामस्वसरूप बचत बढ़ी, जिसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय परिवारों ने नई आर्थिक नीतियों की उपभोक्तावादी आदतों को तरजीह नहीं दी। पर अमेरिकी मानव विज्ञानी मार्शल शालीन्स के अनुसार अमेरिका में खरीदारी को आधुनिकता की परिणति माना जाता है।
आभिजात आर्थिक विचारक भारतीय परिवारों को पिछड़ा और अज्ञानी कहते हैं जो हमेशा सुरक्षित निवेश की तलाश में रहते हैं। कुछ बहुत ज्यादा बचत करने की आदत पर भी उनकी आलोचना करते हैं। भारत में जन्मे अमेरिकी अर्थशास्त्री ज़गदीश भगवती ने 1990 के दशक की शुरुआत में भारत सरकार को ऐसी नीतियां बनाने की सलाह दी जिससे परिवार द्वारा की जा रही बचत में 50% की कटौती हो ताकि खपत खर्च बढ़ जाए। सौभाग्य से भारतीय परिवारों ने उनकी सलाह नहीं मानी। वास्तव में आय के विस्तार के साथ जहां भारतीय परिवार बचत के विभिन्न तरीके आजमाने लगते हैं, वहीं खर्च पर भी नियंत्रण बनाए रखते हैं। वे अपनी आय की चादर के भीतर ही पांव फैलाते है और शायद ही उधार लेकर खर्च करते हैं। इसी आदत ने भारत को 2008 के वैश्विक संकट में भी मजबूती से खड़ा रखा। अगर भारतीय परिवारों ने विशेषज्ञों के नुस्खे आजमाए होते तो वे ज्यादा से ज्याादा बचत नहीं कर पाते और राष्ट्रीय निवेश और सकल घरेलू उत्पाद में उतनी वृद्घि नहीं हुई होती और न ही वे ऋण के कुचक्र से मुक्त रह पाते जो उनका जीवन बर्बाद कर सकता था या उन्हें दिवालिया बना सकता था। भारतीय और जापानी परिवारों में काफी समानता है। भारतीयों की तरह वे भी बैंकों में बचत पंसद करते हैं और शेयरों में जोखिम नहीं उठाते। इसी वजह से पश्चिम के अर्थशास्त्रीा जापानी वित्तीय प्रणाली का उपहास करते रहे हैं। लेकिन जब पश्चिम पर मौद्रिक संकट गहराया तो बैंक ऑफ जापान ने गर्व से ऐलान किया था कि पश्चिमी देशों के विपरीत जापानी वित्तीय प्रणाली पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत है। ऐसा ही भारत के साथ भी है। किसी व्यापार के वित्तपोषण में जो जोखिम भारतीय बैंक उठाता है, वैसा ही जापानी बैंक भी करते हैं। जापानी बैंकों को भी भारतीय बैंकों की ही तरह अनुपयोग्य परिसंपत्तियों की समस्या झेलनी पड़ती है। वे अनुपयोग्य परिसंपत्तियों से जुड़ी समस्या का समाधान कैसे निकालते हैं, यह जानना भारत के लिए भी प्रासंगिक होगा। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक समाधान के लिए आदतन पश्चिम की ओर मुंह करता है। जहां रिजर्व बैंक पश्चिमी मानकों को लागू कर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है, वहीं राष्ट्र यूपीए, खासकर यूपीए-2, की बोयी करीब दशक लंबी आर्थिक तबाही से उबरने का संघर्ष कर रहा है। आखिर कब रिजर्व बैंक और भारत के आर्थिक सलाहकार व्यक्तिवादी पश्चिम का अनुसरण करने की आदत छोड़कर समन्वित और परिवार आधारित भारत के विचारों का पालन करते हुए इस राह की ओर उन्मुख होंगे?
(लेखक प्रख्यात स्तंभकार और राजनीतिक-आर्थिक टीकाकार हैं)
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