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जन्मदिवस पर विशेष
-यादव राव जोशी-
श्रद्धेय डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में हिंदुओं को एकजुट करने का जो सपना संजोया था, वह तथ्यपरक और ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित था। हमारे राष्ट्र का अभ्युदय कल की घटना नहीं, बल्कि अत्यंत पौराणिक है। विश्व अभी अपनी आंखें खोल ही रहा था, जब हमारा राष्ट्र महान परंपरा और गौरव का स्वर्णमंडित इतिहास रच चुका था। वास्तव में दुनिया के कई हिस्सों में मानव संस्कृति और सभ्यता का प्रकाश हमारे महान पूर्वजों के सौजन्य से ही पहुंचा।
इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने इस महान राष्ट्र का निर्माण किया और उसकी विरासत को संजोकर रखा, वे पूरी दुनिया में हिंदुओं के रूप में जाने जाते थे। विश्व मंच पर इस्लाम या ईसाइयत के उभरने के सदियों पहले से हिंदुओं का अस्तित्व था। स्वाभाविक है कि प्राचीन समय से ही इस देश का भाग्य हिंदुओं के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है। जब तक हिंदू संगठित रहे और अपने महान राष्ट्रीय आदशोंर् के प्रति जागरूक रहे, देश तेजी से प्रगति करता हुआ समृद्धि और शक्ति के शीर्ष पर विराजमान रहा। लेकिन बदलते समय ने जब उस एकता पर ग्रहण लगाया तब लोगों के हृदय में बसा गौरवपूर्ण राष्ट्रीय भाव हाशिए पर चला गया। नतीजा, देश को गुलामी और पतन के अंधकार ने लीलना शुरू कर दिया। तात्पर्य यही है कि हिंदुओं के उत्थान में देश का उत्थान निहित है, जबकि उनकी अवनति से देश अवनति के गर्त में गिरने लगता है।
राष्ट्र का उद्धार
इसलिए, डॉ़ हेडगेवार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि राष्ट्र के उद्धार के लिए जरूरी है कि हिंदू आत्मविश्वास से परिपूर्ण और आश्वस्त होकर जागें और एक सशक्त सामाजिक इकाई के तौर पर पुनर्गठित हों। यहां दूसरों में दोष तलाशने और अपने पतन के लिए उन्हें जिम्मेदार मानने की कोई गुंजाइश नहीं। यह आत्म-सुधार और अपने विचारों को नई प्रगतिकारी काया में ढालने पर केंद्रित एक सकारात्मक दृष्टिकोण था। इसके साथ ही डॉ. हेडगेवार ने तत्कालीन घटनाओं की कड़वी वास्तविकताओं पर भी नजर डाली। उन्होंने अतीत और वर्तमान, दोनों पर बारीकी से गौर किया। किताबी दर्शन बघार कर निरर्थक समाधान परोसना उनके स्वभाव में नहीं था। वह किशोरावस्था से ही राष्ट्र की आजादी हेतु विभिन्न आंदोलनों से जुड़े रहे। उनके व्यावहारिक अनुभव और गहरी अंतदृर्र्ष्टि ने उन्हें तत्कालीन घटनाओं का आकलन करने की अद्भुत क्षमता प्रदान की थी।
हमारे देश की धरती पर जब मुगल हमलावरों ने कदम रखा तो राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक नई चुनौती खड़ी हो गई। उनके अतीत की गाथा और उस दौरान दिखीं प्रवृत्तियां, दोनों इस बात का इशारा कर रही थीं कि वे हमारी राष्ट्रीय पहचान और ढांचे को मटियामेट करने पर आमादा हैं। वे हमारे राष्ट्रीय जीवन के हर पहलू के विरोधी थे। भारतीय जीवन-मूल्य, गौरव, नायक-महानायक और यही नहीं, राष्ट्रीय एकता और मातृभूमि की शुचिता तक के। उनके प्रति दिखाई गई सद्भावना और उदारता महंगी पड़ी और उनका आक्रामक स्वभाव और उग्र होता चला गया और भारत को अपने अतिथ्य की बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी। देशभर में सांप्रदायिक दंगे भड़कने लगे और मोपला में हुआ कांड बर्बरता की सारी सीमाएं लांघ गया।
तत्कालीन माहौल की जटिलताओं के बीच भी डाक्टरजी की राष्ट्रवादी विचारधारा की डोर दृढ़ बनी रही। मुसलमानों के संबंध में भी उनका दूष्टिकोण स्पष्ट था जो सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रवादिता से ही जुड़ा था और इसका कोई मजहबी सरोकार नहीं था। उनके मन में मुसलमानों के प्रति न तो कोई दूरी थी, न नफरत, जीवन के मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने अपनी इस उदारता को बरकरार रखा। वे देशभक्त मुसलमानों के साथ मजहबी भेदभाव से परे एक आत्मिक रिश्ता महसूस करते। उनकी कसौटी बस एक ही थी, देश और इसकी संस्कृति के लिए विशुद्ध प्रेम। उनकी नजर में एक देशभक्त मुसलमान और एक देशभक्त हिन्दू में कोई फर्क नहीं था। वे धार्मिक मान्यताओं के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं करते थे।
स्वदेशी भक्त
कलकत्ता में रहते हुए मौलवी लियाकत हुसैन के लिए डाक्टरजी का गहरा प्रेम इस बात का स्पष्ट उदाहरण है। डक्टरजी की उम्र उस समय करीब बीस-बाइस की रही होगी, जबकि मौलवी साठ पार कर चुके थे। मौलवी साहब लोकमान्य तिलक के अनन्य अनुयायी थे और स्वदेशी के भक्त थे। उन्होंने स्वदेशी सामान को लोकप्रिय बनाने के लिए एक दुकान खोल रखी थी। हालांकि वह खुद गरीब थे, फिर भी जरूरतमंदों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते। खासकर, गरीब छात्रों की शिक्षा के लिए मदद करने में वे विशेष रूप से आगे रहते थे। देशभक्तिपूर्ण कार्यों में सक्रिय तौर पर हिस्सा लेने के कारण अक्सर उन्हें जेल भी जाना पड़ता। इन्हीं सब कारणों से युवा डाक्टर हेडगेवार मौलवी साहब से प्रभावित हुए थे। वे अपने दोस्तों के साथ उन प्रभात फेरियों और सार्वजनिक बैठकों में जरूर शामिल होते जो मौलवी साहब आयोजित करते थे। एक बार जब मौलवी साहब बीमार पड़े तो डाक्टरजी उनके पास रुक गए और दिन-रात उनकी सेवा की।
देश के प्रति प्रेम दिखाने का मौका आने पर मौलवी साहब सब भूल जाते। एक बार इंग्लैंड के राजा और महारानी कलकत्ता की यात्रा पर आए। उनके स्वागत के लिए गार्ड ऑफ ऑनर सहित अनेक भव्य आयोजन किए गए। मौलवी साहब में भी शाही जोड़े के प्रति सम्मान जताने का उत्साह भर आया, लिहाजा वे शाही जोड़े से हाथ मिलाने के लिए पुलिस के घेरे में बाकायदा पंक्ति में खड़े होकर उल्लास के साथ आगे बढ़ने लगे। डाक्टरजी और उनके युवा दोस्त भी इसमें शामिल हो गए। उन्हें लगा कि करीब से सैन्य संरचनाओं को देखने का यह एक अच्छा मौका है। मौलवी साहब के नेतृत्व में यह जुलूस 'राजार जय रानीर जय' के नारे लगा रहा था। लेकिन थोड़ी ही दूर चलने के बाद एक ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें रोककर वापस जाने के लिए कह दिया। अपने समर्पित शिष्यों के साथ मौलवी साहब उसी मस्तमौला अंदाज में लौट पड़े, पर जबान अब एक अलग धुन की अलख जगा रही थी-'जागो, जागो रे भारत संतान' और इसमें जुड़ती जा रही थीं अन्य क्रांति-गीतों की कडि़यां। हालांकि डाक्टरजी को सैन्य संचालन गतिविधियों को न देख पाने का अफसोस सता रहा था, फिर भी मौलवी साहब के प्रति उनके प्रेम में कोई कमी नहीं आई। किसी को भी हैरानी हो सकती है कि इंसानों और बातों की पैनी परख करने वाले डाक्टरजी को मौलवी साहब से इतना गहरा लगाव क्यों था? कारण स्पष्ट था। डाक्टरजी किसी शख्सियत की ऊपरी काया से प्रभावित नहीं होते थे। उन्होंने मौलवी साहब के शिशु समान निश्छल और पवित्र दिल को पहचान लिया था, साथ ही उसमें लबरेज देशप्रेम को भी परख लिया था और उनके लिए यही पर्याप्त था।
सहज और चुंबकीय आकर्षण
नागपुर के समीउल्लाह खान स्वतंत्रता आंदोलन की जानी-मानी शख्सियत थे। डाक्टरजी उन्हें अच्छे से जानते थे। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें जब उनके उग्र भाषणों के लिए एक साल का सश्रम कारावास सुनाया गया, तो समीउल्लाह खान उन प्रमुख कांग्रेसी नेताओं में से थे जिन्होंने उन्हें माला पहनाई और गर्मजोशी से जेल विदा किया। जब खानसाहब नागपुर नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए तो डॉक्टरजी ने उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं दी थीं।
उन्होंने अपनी आकर्षक शैली में खानसाहब को कहा था, ''खानसाहब, आपके हमारी नगरपालिका के अध्यक्ष बनने के बाद मुझे अनुभव होता है मानो मेरे ही घर का एक सदस्य उस महत्वपूर्ण कार्यालय में पदासीन है।'' बाद में जब वे किसी काम से उनके कार्यालय आए तो उन्होंने कहा, ''डॉक्टर साहब, आपने यहां आने का कष्ट क्यों किया? आप बस एक संदेश भेज देते और मुझे आपके पास आकर यह बताने में खुशी होती कि काम हो गया है।''
इसमें कोई बनावट या पेच नहीं था। डॉक्टरजी की ईमानदारी पारदर्शी थी और आकर्षण चुंबकीय। ऐसा भी हुआ कि कोई उन पर नाराजगी जताने आया और सराहना करके चला गया। एक बार मुर्तजापुर में गणेशोत्सव के दौरान डॉक्टरजी ने अपना भाषण पूरा ही किया था कि सभास्थल के एक कोने से एक मुसलमान शख्स उनकी ओर बढ़ने लगा। लेकिन, वहां मौजूद लोगों ने उसे रोक दिया। वे उसके इरादों को लेकर आशंकित थे क्योंकि उन दिनों सांप्रदायिक तनाव का माहौल बना हुआ था और डॉक्टरजी को कई धमकी भरे पत्र भेजे गए थे। लेकिन वह शख्स डॉक्टरजी से मिलने के लिए बेचैन था। तभी डॉक्टरजी का ध्यान उधर गया और उन्होंने उसे आने के लिए कहा। वह आया, डाक्टरजी को माला पहनाई और कहा- ''डॉक्टरजी, मैंने कई बार अपने मुस्लिम दोस्तों से सुना कि आप एक कट्टर मुस्लिम-विरोधी हैं। इसलिए, मैं जानबूझकर आपका भाषण सुनने के लिए यहां आया। मैं देखना चाहता था कि आप मुसलमानों के खिलाफ क्या विष उगलते हैं। लेकिन, मुझे हैरानी है कि आपने एक भी शब्द ऐसा नहीं बोला जिससे मेरी मजहबी भावनाएं आहत होतीं।
आपके भाषण की हर पंक्ति में देशभक्ति का ओजस्वी भाव भरा था और कहीं भी किसी के लिए विद्वेष या दुर्भावना नहीं थी।''1932 में मध्य प्रांत की सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के संघ शाखाओं में भाग लेने पर रोक लगाने के आदेश जारी किए और बाद में नगर निगम और जिला और स्थानीय बोर्ड के कर्मचारियों पर भी यह प्रतिबंध लगा दिया। विधान परिषद में इसपर गर्मागर्म बहस शुरू हो गयी। स्वतंत्र सदस्यों में से जिसने सरकार को आड़े हाथों लिया, वह थे बरार के एस़ एम़ रहमान। उन्होंने संघ पर सांप्रदायिक, फासीवादी, राजनीतिक होने के झूठे आरोपों और कई तरह की आलोचनाओं का पुरजोर विरोध किया और मजबूती से यह दलील रखी कि संघ की स्थापना को सात साल हो चुके हैं लेकिन इस दौरान किसी भी मुस्लिम संगठन ने कभी कोई आपत्ति नहीं जताई।
वृद्ध अरब सिपाही
नागपुर में संघ के विजयादशमी संचलन को देखकर एक वृद्ध अरब सिपाही की सहज टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है। सिपाही बहुत बूढ़ा था, शायद नब्बे पार कर चुका था और राजा भोंसले की सेना में था। कहा जाता है कि उसने राजा भोंसले की अंग्रेजों के साथ हुई आखिरी लड़ाई में हिस्सा लिया था और शाही महल के जलाए जाने की दुखदायी घटना का गवाह था, जो छह महीने तक सुलगता रहा था। जब उसने युवा स्वयंसेवकों का अनुशासित जुलूस देखा तो उसकी आंखें भर आईं और उसने कहा-''कौन कहता है कि संघ मुसलमान विरोधी है? लाठियों की जगह उनके हाथों में राइफल पकड़ा दो और काम पूरा हो जाएगा।''
साफ था कि मुसलमानों के संघ के प्रति इस रुख के पीछे डॉक्टरजी का उनके प्रति दिखाया गया सद्भाव था और उनका रुख किसी क्षणिक राजनीतिक विचारों की उपज नहीं थी। वे जानते थे कि मुसलमानों का दिल जीतने के लिए राजनीति के शतरंजी पासे बेमानी हैं, क्योंकि इससे उनका नजरिया बदला नहीं जा सकता और जब तक नजरिया नहीं बदलता, तब तक स्थायी एकता संभव नहीं है। डॉक्टरजी का मानना था कि दिलों को राष्ट्रीय स्तर पर अखंडता की डोर से बांधने के लिए सशक्त राष्ट्रीय दृष्टिकोण की बुनियाद तैयार करनी होगी।
यहां के मुसलमान कभी हिंदू माता-पिता की ही संतान थे। हो सकता है कि कुछ ऐतिहासिक कारणों से उनकी मनोग्रंथि में कुछ बदलाव आया हो, लेेकिन उनके 'खून' की रंगत हिंदुओं सी ही है। डॉक्टरजी यह भी जानते थे कि उनमें से कोई भी इस ऐतिहासिक सत्य से मुंह नहीं फेर सकता कि महज चंद दशकों या शताब्दियों पहले वे हिंदू थे। उन्हें पूरा भरोसा था कि उनके दृष्टिकोण में सुखद परिवर्तन आएगा और वे निश्चित रूप से एक बार फिर अपनी पुरानी जातिगत यादों को संजोकर राष्ट्रीयता के भाव को पािेषत करने के प्रयासों में शामिल होने के लिए प्रेरित होंगे। डॉक्टरजी को विश्वास था कि राष्ट्रीय भाव का परचम बुलंद करने और विवेकजन्य दृष्टिकोण पर अमल करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।
यादव राव जोशी (यह लेख ऑर्गनाइजर के 6 नवंबर, 1988 के दीपावली विशेषांक से लिया गया है। लेखक उस समय रा. स्व. संघ के सह सरकार्यवाह थे)
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