संकट में चकमा बौद्धों का अस्तित्व
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संकट में चकमा बौद्धों का अस्तित्व

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Apr 25, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 25 Apr 2016 14:08:03

मिजोरम में निवास करने वाले अल्पसंख्यक चकमा बौद्ध और रियांग समुदाय ईसाई मिशनरी तत्वों की हिंसा और आतंक के शिकार। उनकी जमीन, भाषा और संस्कृति पर लगातार हो रहे हमले

आशीष कुमार 'अंशु', मिजोरम से
 शनिवार, 9 अप्रैल को न्यू खोजोसूरी गांव, जिला लुंगलई में एक 24 वर्षीय युवक को चर्च के पादरी ने बुरी तरह से पीटा। उनके जाने के बाद न तो युवक पुलिस के पास जाने की हिम्मत जुटा पाया और न स्थानीय 'बौद्ध चकमा सामाजिक संगठन'। पादरी ने अपने घर बुलाकर उस युवक की बुरी तरह पिटाई की जिससे उसे गम्भीर चोट आई। युवक का इलाज स्थानीय तेलबंग सिविल अस्पताल में हुआ।  
एक और घटना देखिए : 19 मई, 2010 की रात 9:30 बजे आईजॉल से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर मामित जिलान्तर्गत फूलदूंगसेई में बौद्ध गुरु वेन कच्छयाना भिकू पर जानलेवा हमला हुआ। भिकू बताते हैं कि हमला अचानक हुआ। यह हमला उन पर  तब किया गया जब वे भगवान बुद्ध की मूर्ति को गुवाहाटी से मारपारा दक्षिण के बौद्ध मंदिर में ले जा रहे थे। थाईलैंड से आई यह विशेष मूर्ति महाबोधि सोसाइटी, बेंगलुरू ने बौद्ध धार्मिक गुरु वेन कच्छयाना भिकू को दान में दी थी। जब वे इसे लेकर गंतव्य की तरफ बढ़ रहे थे, दूसरी तरफ सामने से आती गाड़ी से लगभग 10-12 मिजो क्रिश्चियन लड़कों ने उतर कर उनकी गाड़ी रुकवाई। इन युवकों ने गाड़ी के चालक को नीचे उतार कर मारना शुरू किया और बीच-बचाव करने के लिए जब भिकू नीचे उतरे तो उन्हें भी बुरी तरह पीटा गया।
मिजोरम में लुंगलई, ममित, लांगतलाई जिलों में अल्पसंख्यक चकमा बौद्धों पर  अत्याचारों का एक लंबा सिलसिला है। पूवार्ेत्तर की बात करें तो चकमाओं की आबादी 2.5 लाख के आसपास है। मिजोरम में यह एक लाख है। एक अनुमान के अनुसार दो प्रतिशत चकमा कन्जर्वजन कर क्रिश्चियन बन चुके हैं। जो चकमा क्रिश्चियन बनने को तैयार नहीं हुए, उन्हें बार-बार इस बात का एहसास कराया जाता है कि वे मिजोरम के अंदर संख्या में महज एक लाख के आसपास हैं, इसलिए उन्हें मिजो क्रिश्चियनों की हर बात माननी होगी। यदि वे बार-बार के अपमान से बचना चाहते हैं तो सरल रास्ता यही है कि वे क्रिश्चियन हो जाएं। एक्सीलेन्स इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च ने अक्टूबर 2013 के अपने अंक में 'चकमा ट्राइब ऑफ मिजोरम नॉर्थ ईस्ट  इंडिया : ए स्टडी ऑफ देयर फेथ एंड बिलिव' लेख लिखा, ''अंग्रेजों ने अपने राज में सभी आदिवासी समुदायांे का कन्वर्जन कराने में सफलता पाई। सिर्फ चकमा बौद्ध इसके लिए राजी नहीं हुए थे।'' इसी साल फरवरी के अंतिम सप्ताह में मिजोरम के लुंगलाई जिले में तुईछांग छूह गांव में एक प्राथमिक स्कूल में आग लगा दी गई। एक घर गिरा दिया गया। लुंगलाई जिला के उपायुक्त अभिजीत बिजॉय चौधरी मीडिया को इस संबंध में जानकारी नहीं देना चाहते। इस मामले में स्थानीय लोगों का कहना है, ''मिजो क्रिश्चियन छात्रों के एक समूह ने बौद्ध बच्चों के स्कूल को जला दिया व एक घर को तहस- नहस कर दिया। दरअसल यहां मिजो क्रिश्चियन 49 चकमा परिवारों से गांव खाली कराना चाहते थे।''
  अल्पसंख्यक बौद्ध चकमा समुदाय के लोग  तुईछांग छूह में पिछले चालीस साल से रह रहे हैं। मिजोरम सरकार  ने उन्हें स्कूल, राशन कार्ड, पहचान पत्र, बिजली सारी सुविधाएं दी हुई हैं। पर स्कूल जलाने की वजह  जानने        के  लिए यह जानना जरूरी है कि पिछलेे साल 17 दिसम्बर को लुंगलई में क्या हुआ था। इस दिन लुंगलई के अतिरिक्त उपायुक्त ने 49 चकमा परिवारों को तुईछांग छूह गांव को छोड़ने का नोटिस दिया था। तुईछांग छूह के परिवारों ने इस नोटिस के खिलाफ असम उच्च न्यायालय में एक 'रिट पीटिशन' डाली। न्यायालय ने गांव को खाली करने के आदेश पर रोक लगा दी।  गुवाहाटी उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद स्कूल जलाने, घर गिराने और 49 चकमा परिवारों को गांव खाली करने की धमकी देने की घटना मिजोरम के लुंगलई में नाजुक कानून व्यवस्था की स्थिति की तरफ इशारा करती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी देश भर में अल्पसंख्यकों के हितों की बात तो करती हैं लेकिन मिजोरम जहां उन्हीं की पार्टी की सरकार है, में वे अल्पसंख्यक मामले पर एक शब्द नहीं बोलतीं। मिजोरम में चकमा बौद्धों पर मिजो क्रिश्चियनों द्वारा लगातार हो रहे हमलों पर सोनिया गांधी और उनकी पार्टी का पक्ष क्या है, यह जानने के लिए जल्द ही एक चकमा प्रतिनिधिमंडल सोनिया गांधी से मिलेगा।  
मिजोरम में ममित जिले के खटलांग गांव में चर्च के लिए लोगों ने जमीन देने से साफ इनकार कर दिया था। चकमाओं के इस गांव में चर्च बनाने का मकसद यही था कि वे इस गांव में कन्वर्जन की नींव रखना चाहते थे। 'मिजोरम चकमा अलायंस अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन' के अध्यक्ष पारितोष चकमा के अनुसार उसके बाद ममित के उपायुक्त के निर्देश पर उपखंड अधिकारी ने धमकी दी कि वे खटलांग की सभी योजनाएं और सुविधाएं बंद कर देंगे क्योंकि मिजोरम की पूरी व्यवस्था कन्वर्जन के पक्ष में खड़ी है।
   27 अप्रैल, 2011 की बात है जब मिजोरम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री लालथनहॅवला के बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले स्थानीय चकमा समुदाय के लोगों को कहे गए अपशब्दों के बाद अल्पसंख्यक चकमा और ब्रू आदिवासी समाज ने इसका विरोध किया। ब्रू को रियांग भी कहते हैं। चकमा और रियांग आदिवासी समाज है। 35,000 रियांग आज भी त्रिपुरा मंे शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर हैं। रियांग मिजोरम के अलावा त्रिपुरा में भी हैं। मुख्यमंत्री के बयान के बाद चकमा और रियांग समाज आक्रोशित हो गया था। यह घटना उस समय की है, जब मिजोरम में मिजो क्रिश्चियन छात्रों के बीच काम करने वाले सबसे बड़े संगठन 'मिजो जिराइल पॉल द्वारा' आइजॉल के वणप्पा हॉल में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मिजोरम के मुख्यमंत्री ने चकमा और रियांग जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मिजो भाषा में 'नॉकसक', 'वाई छेहो' और 'टूइकूक' जैसे अपशब्दों का प्रयोग किया। 'नॉकशक' का शाब्दिक अर्थ अवांछित या बाधा, 'वाई छेहो' का अर्थ बिना काम के और 'टूइकूक' का अर्थ गंदी नाली का कीड़ा होता है। इस घटना के बाद लगभग सभी चकमा और रियांग छात्रों व कई  सामाजिक संगठनों ने मुख्यमंत्री के इस वक्तव्य का जमकर विरोध किया। उनका कहना था कि जब सरकार के मुखिया ही इस तरह के गैर जिम्मेदार किस्म के वक्तव्य देंगे तो उनके मातहतों से क्या उम्मीद की जा सकती है?

 

''मिजोरम  में विकास की बयार चकमा समाज के बीच पहुंचने ही नहीं दी गई है। उन्हें बेहद चालाकी के साथ  शिक्षा व सरकारी नौकरियों से दूर किया जा रहा  है''
-निहारकांति चकमा,पूर्व मंत्री

 

मिजोरम में चकमा और रियांग जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भेदभाव आम बात हो गई है। इसकी एक वजह यह है कि चकमा समाज के लोग अहिंसा प्रिय हैं। इस बात को मिजो समाज के लोग भी जानते हैं। पर राज्य की सरकार मानो ईसाई धर्म के प्रचार के लिए है। राज्य के मुख्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में कहा, ''ईसाई न सिर्फ मिजोरम के समाज मंे परिवर्तन का द्योतक रहा है बल्कि हमारे बीच में प्रौढ़ शिक्षा की अवधारणा वहीं से आई है। हम सौ फीसदी साक्षरता की दर पाने की उम्मीद रखते हैं लेकिन दक्षिण मिजोरम के दो जिलों की वजह से हमारा यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा।'' उनका इशारा शायद मारा (सिआहा) और लुंगलेई की तरफ था। ये दोनों जिले मारा और चकमा समुदायों के गढ़ माने जाते हैं। इनकी आबादी लगभग 70,000 है। मारा खुद को मिजो क्रिश्चियन से अलग मानते हैं, इसलिए वे मिजोरम में भेदभाव के शिकार हैं। राज्य के इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों की अपनी-अपनी स्वायत जिला परिषद है।  इन दो अल्पसंख्यक समुदायों के बीच शिक्षा की दुर्दशा के लिए दोषी राज्य सरकार ही है।
2011 की जनगणना के अनुसार मिजोरम में साक्षरता 91़.58 प्रतिशत है। देश का सबसे अधिक पढ़ा-लिखा जिला सर्चिप (98.76 प्रतिशत) और दूसरा जिला आइजॉल (98़.50 प्रतिशत) मिजोरम में हैं इसके बावजूद 96 प्रतिशत से भी अधिक ऐसे गांव हैं, जहां उच्च विद्यालय नहीं है। मिजोरम सरकार में चकमा समुदाय से मंत्री रहे निहार कान्ति चकमा के अनुसार चकमा समाज में शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है जिसकी वजह से समाज में जागरूकता की कमी और सुविधाओं का अभाव है। सचाई यही है कि बेहद चालाकी के साथ मिजोरम में विकास की बयार चकमा समाज के लोगों के बीच पहुंचने ही नहीं दी गई। आज उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों से दूर किया जा रहा है तो दूसरी तरफ उनकी जमीन पर भी अलग-अलग बहाने से कब्जा किया जा रहा है। चकमा समाज के लोग सरकारी नौकरी में प्रवेश न पा सकें इसलिए मिजो भाषा को सरकारी नौकरियांे के लिए अनिवार्य किया गया जबकि चकमा उसी समाज के नागरिक हैं। उनके पास अपनी भाषा 'चकमा भाषा' और लिपि है।
यह सच है कि चकमा मिजोरम की सरकारी कामकाज की भाषा नहीं है लेकिन चकमा ऑटोनॉमस काउंसिल में यह भाषा सिखाई जाती है। त्रिपुरा के स्कूलों में भी बच्चे चकमा भाषा पढ़ रहे हैं। इस भाषा की लिपि ऑरक है। चकमा समुदाय की यह पुरानी मांग रही है कि उनकी भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया जाए लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। मिजोरम में प्राथमिक और मध्य विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए होने वाली परीक्षा में पचास फीसदी सवाल मिजो भाषा में पूछे जाते हैं। इसका अर्थ यही निकलता है कि मिजोरम की सरकार ने मिजो छोड़कर दूसरे समाज के लोगों को परीक्षा से बाहर रखने का यह सरल रास्ता निकाला है।
राज्य सरकार की कई परियोजनाओं के चलते भी चकमा बौद्ध समाज को उनकी ही जमीन से बेदखल होने को मजबूर कर दिया है। मिजोरम के ममित जिले में डम्पा टाइगर रिजर्व के विस्तार के कारण  227 चकमा परिवार विस्थापित हुए जबकि इस टाइगर रिजर्व में वर्तमान में कुल जमा छह शेर ही हैं।
मिजोरम में अ. भा. वनवासी कल्याण आश्रम के संगठन मंत्री संजय कनाडे के अनुसार चकमा और मिजोरम के दूसरे अल्पसंख्यक समाज पर विभिन्न प्रकार से अत्याचार सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि वे कन्वर्जन कर क्रिश्चियन हो जाएं। जिन अल्पसंख्यकों ने बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन कर लिया, वे मिजोरम की मुख्य धारा में शामिल कर लिए गए। श्री कनाडे बताते हैं कि इन सारी स्थितियों की जानकारी देश की केन्द्र सरकार के पास भी है। देश के साथ खड़े लोगों के साथ देश की सरकार खड़ी हो, इसका समय आ गया है।
मिजोरम में हेमंत लारमा लंबे समय से चकमा बौद्धों के साथ होने वाले भेदभाव के मुद्दे पर लड़ रहे हैं। वे कहते हैं, ''मिजोरम के चकमा बौद्धों के मुद्दे को देश के लोग जानते ही नहीं। उन्हें यह भी नहीं पता कि मिजोरम में क्रिश्चियन अल्पसंख्यक नहीं, बहुसंख्यक है इसलिए मिजोरम में ईसाई, बौद्ध धर्मस्थल भी तोड़ते हैं और सभी तरह से हमारे समुदाय के लोगों को डराने का प्रयत्न करते हैं ताकि बौद्ध समुदाय के लोग गले में क्रॉस डाल कर हाथ में बाइबिल थाम लें। यह मिजोरम की विडम्बना है कि क्रिश्चियन समुदाय पूरे देश में अल्पसंख्यक होने के नाते अपने लिए कई तरह की सुविधाओं की मांग करता है। लेकिन मिजोरम में बहुसंख्यक होने पर अपने राज्य के अल्पसंख्यकों को कोई नई सुविधा तो दूर की बात जो उनका अधिकार है, वह भी देने से इनकार कर देता है।''ये सारी खबरें दिल्ली के मीडिया में भी नहीं आतीं क्योंकि दिल्ली के वे सभी अखबार जो खुद को  राष्ट्रीय कहते हैं और वे सभी खबरिया चैनल जो पूरे देश की खबर रखते हैं,     उनका मिजोरम राज्य में एक भी संवाददाता नहीं है। फिर मिजोरम की खबर दिल्ली तक कैसे पहंुचेगी? बहरहाल, मिशनरी आतंक का यह सिलसिला मिजोरम मंे खत्म होना चाहिए। इसके लिए देश के दूसरे राज्यों के क्रिश्चियन समाज के लोगों को भी आवाज बुलंद करनी होगी। साथ ही साथ पूरे देश को मिजोरम के बौद्ध समुदाय तक यह संदेश भेजना होगा कि मिजोरम में चकमा बौद्ध अकेले नहीं हैं, बल्कि देश की सरकार और लोग उनके साथ हैं।  

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