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बासाहेब आंबेडकर की जयंती पर इस बार देशभर में खास उत्साह दिखा। 125वीं जयंती होने के नाते यह स्वाभाविक माना जाना चाहिए। विभिन्न राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और देश के नागरिक अपने महापुरुषों के स्मरण, उनके सपनों को पूरा करने के लिए एकजुट हों, इससे अच्छी बात और क्या होगी? लेकिन यह मौका सिर्फ भाषण झाड़ने, साहित्य बिक्री करने और झंडे-बिल्ले लहराने का नहीं है। यह मौका पड़ताल का है।
बाबासाहेब का सपना बड़ा था। एक बड़े, सबल समाज का सपना। इस सपने को किसने जिया?
हिन्दू समाज में जातिगत अंतर और छुआछूत का दंश उन्हें गहरे सालता था। वे इस बुराई से मुक्त शक्तिशाली समाज का सपना देखते थे। बाबासाहब के रहते हुए और उनके जाने के बाद भी इस सपने को कौन पूरा कर रहा था? उत्तर की तलाश कुछ लोगों को वहां तक ले जा सकती है जहां उनके लिए सबसे हैरानी भरा जवाब लिखा है— राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ!
तत्कालीन सामाजिक स्थितियों को देखते हुए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की चिंता थी कि हिन्दू धर्म में तत्व की श्रेष्ठता पर दो मत नहीं है। किंतु प्रत्यक्ष व्यवहार में वह तत्व देखने में नहीं आता। दूसरी ओर बाबासाहेब बार-बार सवाल उठाते थे कि यदि हिन्दू उपदेशानुसार सर्वत्र वृहत ब्रह्म तत्व है तो फिर हिन्दू धर्म में असमानता क्यों है?
अलग-अलग समय, अलग-अलग मनों में उमड़ती ऐसी चिंता और सवाल ही भविष्य के भारत की राह गढ़ रहे थे।
1938 में पूना संघ शिविर में डॉ. आंबेडकर ने शिविर अधिकारियों से सीधे पूछा- ''यहां अस्पृश्य समाज में कितने स्वयंसेवक हैं?'' उत्तर मिला, ''इसमें न कोई सवर्ण है और न ही कोई अस्पृश्य।'' निश्चित ही, छुआछूत के नितांत अभाव और स्वयंसेवकों के अनुशासन से बाबासाहब अभिभूत थे।
सामाजिक समरसता के इसी भाव की तो अपेक्षा थी। वे महाराष्ट्र में कराड और दापोली की शाखा में भी गए। संघ के स्वयंसेवकों के आचरण में उन्हें यह भाव दिखा। उनसे पहले 1934 में ऐसा ही दृश्य महात्मा गांधी ने भी देखा था।
यूं तो देश के अनेक महापुरुषों में वैचारिक विरोध की तलाश की जा सकती है लेकिन यह मानना होगा कि उनकी बड़ी चिंताएं साझा थीं। उन चिंताओं को दूर करने वाला विचार एक ही हो सकता था— देश को प्यार करने वाले समाज की सामूहिक-संगठित शक्ति। इस शक्ति को जगाने का काम संघ अपने स्थापना काल से ही कर रहा है। स्थापना के सातवें वर्ष यानी 1932 में ही नागपुर विजयादशमी महोत्सव के समय प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने घोषित किया था कि संघ में जातिभेद और अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।
आधुनिक हिन्दू समाज में समरसता के लिए काम करने वाले महापुरुषों डॉ. हेडगेवार और डॉ.आंबेडकर का जीवन समाज जीवन को सही दिशा देने के लिए ही तो समर्पित था। शैली का अंतर हो सकता है परंतु काम तो एक ही है! डॉ.आंबेडकर ने झकझोरा और डा.हेडगेवार ने संगठित किया।
बाबासाहब जहां हिन्दू कोडबिल की परिभाषा में इस भूमि पर जन्मे सभी मत-पंथों को समान नियम-कानून की एक छतरी के नीचे लेकर आए वहीं संघ का तो अपनी स्थापना के समय से ही यह विचार रहा कि जाति-भेद से परे, एक मातृभूमि, एक पुरखों की संतानों को एक सूत्र में पिरोने वाला सूत्र हिन्दुत्व का ही है। और यही सूत्र राष्ट्र जीवन में समरसता ला सकता है।
जगत में जड़ कुछ भी नहीं, सब चैतन्य है और सबकी जड़ें एक ही हैं। हिन्दुत्व का यही तो अनूठा दर्शन है। समय के थपेड़ों और विदेशी आक्रमणकारियों के हल्लाबोल में कुछ कुरीतियां इस समाज में घर कर गईं। विदेशियों के आने से पूर्व महतर नाम की कोई जाति भारत में नहीं थी। मैला ढोने की प्रथा भारत में नहीं थी क्योंकि घरों में शौच जाने की प्रथा ही उस समय नहीं थी। विदेशी आक्रमणों के साथ ऐसी विकृतियां समाज में आईं। छुआछूत की भावना उभरी और गंभीर बीमारी की तरह फैलती चली गई।
ऐसी कुरीतियां दूर हों, समाज समानता, सम्मान और सौहार्द की सकारात्मक राह पर अग्रसर हो। राष्ट्र मनीषियों के मन की यही साध, यही टीस रही।
बाबासाहेब की 125वीं जयंती के अवसर पर राजनीति के भले कितने मंच सजे हों, यह देखना सुखद है कि जाति और छुआछूत की जकड़न पहले के मुकाबले घटी है और घटती जा रही है।
लेकिन यह भी सच है कि बीमारी जड़ से मिटाए बिना जाती नहीं। भेदभाव को मिटाने का जैसा संकल्प संघ ने दिखाया समाज क्षेत्र के हर संगठन और हर व्यक्ति को अपने आचरण में ऐसा ही संकल्प उतारना होगा। बाबासाहब ने कहा था-''अस्पृश्यों का उद्धार केवल अस्पृश्यों के बलबूते नहीं होगा। पूरे समाज को साथ लेकर बढ़ने से होगा।'' आइए, उस सपने को पूरा करें, भेदभाव और अस्पृश्यता को इसके आखिरी कोने तक से साफ करने के लिए पूरे समाज को साथ लेकर आगे बढ़ें।
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