चौथा स्तम्भ / नारद - बहस को तमाशे में बदलते  'कारीगर'
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चौथा स्तम्भ / नारद – बहस को तमाशे में बदलते  'कारीगर'

by
Mar 21, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Mar 2016 12:01:17

पहले जब अखबारों में कोई खबर छपती थी तो लोग उस पर भरोसा करते थे। उनकी कटिंग्स को आगे चलकर प्रमाण के तौर पर भी दिखाया जाता था। इस विश्वसनीयता को थोड़ा बहुत टीवी चैनलों ने भी संभालकर रखा। कुछ अपवाद जरूर रहे, लेकिन परिस्थितियां इतनी बुरी कभी नहीं हुईं, जितनी आज हैं। एक के बाद एक ऐसी खबरें मीडिया में आ रही हैं, जो 2-4 दिन बाद ही फर्जी साबित हो जाती हैं। सच्चाई सामने आने के बाद न तो मीडिया संस्थान इनकी जिम्मेदारी लेते हैं और न ही मीडिया की तथाकथित 'सेल्फरेगुलेटरी' संस्थाएं उनकी कोई जिम्मेदारी तय करती हैं। क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि ऐसी तमाम फर्जी खबरों में से ज्यादातर भाजपा और संघ के खिलाफ   रही हैं?
योग अध्यापकों के तौर पर मुसलमानों को भर्ती न करने का दावा करती एक आरटीआई सामने आई। एक छोटे से न्यूज पोर्टल पर यह फर्जी खबर पोस्ट हुई। अगले दिन शायद ही ऐसा कोई चैनल या अखबार रहा हो, जिस पर यह खबर हू-ब-हू न दी गई हो। न तो किसी ने तथ्यों की पड़ताल कराई और न ही सरकार का पक्ष जानने की कोशिश की। कुछ मिनटों के अंदर ही विभाग के मंत्री ने मीडिया को बुलाकर बयान दिया कि 'योग के अध्यापक के तौर पर मुसलमानों को भर्ती नहीं करने की सरकारी नीति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। आप लोग इस समाचार को अभी न चलाएं, इस बारे में अधिकारियों से कागजात मांगे गए हैं।' लेकिन घंटों बाद तक किसी अखबार की वेबसाइट या चैनल ने मंत्री का बयान तक नहीं दिखाया। शाम तक सारी सच्चाई सामने आ गई कि कैसे एक 'पत्रकार' ने कंप्यूटर पर फोटोशॉप की मदद से वह लाइन खुद ही जोड़ी थी। किसी ने इस झूठ पर माफी नहीं मांगी, बस गलत खबर को चलाना बंद कर दिया।
ऐसा नहीं कि आरटीआई में फजीर्वाड़े का ये इकलौता मामला है। कुछ दिन पहले ऐसा ही मामला उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में आया था। तब भी दिल्ली के कई अखबारों ने लिखा कि आरटीआई के जवाब में सरकार ने मुस्लिम मजहब को 'आतंकवादियों का मजहब' बताया है। क्या यह मोदी सरकार को बदनाम करने और दंगों के लिए मुसलमानों को उकसाने का मामला नहीं लगता?
कुछ ऐसा ही हुआ मशहूर गायक मोहम्मद रफी के बेटे शाहिद रफी के साथ। टाइम्स ऑफ इंडिया समेत तमाम अंग्रेजी-हिंदी अखबारों ने खबर छापी कि मोहम्मद रफी के बेटे ने कहा है कि मोदी-राज में मुसलमान भारत में सुरक्षित नहीं हैं। जबकि उन्होंने ऐसा कुछ कहा ही नहीं था। देश के सबसे महान गायक के परिवार को विवादों में घसीटने के इस 'खेल' के पीछे आखिर कौन लोग हैं?
कुछ ऐसा ही हुआ देहरादून में भाजपा के प्रदर्शन में पुलिस के एक घोड़े के घायल होने के मामले में। करीब 12 घंटे तक 'भाजपा विधायक ने डंडे से मारकर घोड़े की टांग तोड़ दी' के जाप के बाद चैनलों ने वीडियो फुटेज को ध्यान से देखने की जरूरत समझी। तब जाकर पता चला कि घोड़े की टांग दरअसल सड़क के गड्ढे में फंसने से टूटी थी। यही झूठी खबर भी फैलाई गई कि चोट इतनी गंभीर है कि घोड़े का पैर काटना पड़ेगा।
गोहत्या पर पाबंदी के विरोध में अभियान चलाने वाला मीडिया का एक तबका अचानक पशु-प्रेमी हो गया।
उधर, सारे झटकों और निराशाओं के बाद भी दिल्ली के टीवी चैनलों का 'केजरीवाल प्रेम' जारी है। विजय माल्या पर दो दिन संसद में हंगामा हुआ। सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बीच संसद में तीखी-बहस भी हुई। सबकुछ होने के 3 दिन बाद अरविंद केजरीवाल ने एक ट्वीट किया, जिसमें वही बातें कहीं जो अब तक विपक्ष के दूसरे नेता कई बार कह चुके थे। लेकिन हिंदी चैनलों ने ऐसे दिखाया मानो कोई बहुत बड़ा खुलासा हो गया हो। इस मामले में मीडिया की भरसक कोशिश रही कि विजय माल्या को मनमोहन सरकार के 10 साल में मिले हजारों करोड़ के कर्जों का ठीकरा मोदी सरकार पर फोड़ा जाए।  बैंकों के संकट और माल्या के मामले पर सभी हिंदी चैनलों की रिपोटिंर्ग अधकचरी और अधूरी जानकारी के आधार पर रही। पहले इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने खबर छापी कि थी सरकार ने कंपनियों को सरकारी बैंकों से मिला लाखों करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया है। यह झूठी खबर सबसे तेज चैनल के 'क्रांतिकारी' एंकर के लिए 'तथ्य' बन गई। उन्होंने हाथ मसलते हुए हर वह बात कही, जिससे कहीं न कहीं उनकी अल्प जानकारी उजागर हुई। हालांकि ऐसा करते हुए वो प्रोपेगेंडा करने के अपने मुख्य लक्ष्य में कुछ हद तक सफल जरूर हो गए होंगे। अर्थव्यवस्था से जुड़े इन मुद्दों पर समझ-बूझ वाली बहसों की उम्मीद की जाती है, लेकिन न्यूज चैनल इसे भी तमाशे में बदल देते हैं।
केरल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश में संघ से जुड़े कार्यकताअरं की एक के बाद एक हत्याएं हो रही हैं। अखलाक पर महीने भर 'राष्ट्रीय मातम' मनाने वाला मीडिया इन खबरों को छिपाने में लगा है। केरल में स्कूली बच्चों के आगे संघ के कार्यकर्ता पर जानलेवा हमले की खबर भी जरूरी नहीं समझी गई। अगर कहीं दिखाई भी गई तो इस एहतियात के साथ कि किसी को पता न चल पाए कि इसके पीछे वामपंथी गिरोहों का हाथ है। लेकिन मुख्यधारा के कर्ता-धर्ता यह भूल गए हैं आज के दौर में सूचना पर उनका एकाधिकार खत्म हो चुका है। वह झूठ फैलाएंगे तो सच्चाई भी अपना रास्ता बना ही लेगी।     ल्ल 

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