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खर्च कम, खुशियां ज्यादा

by
Feb 8, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Feb 2016 13:07:56

 

कहते हैं बीमारी से भगवान बचाए… शायद इसीलिए चिकित्सक को भगवान कहा भी गया। लेकिन यह समय है जो शायद कहावतों पर भी अपने निशान छोड़ता जाता है।

रोगाणुओं के बदलते प्रकारों, जटिल से जटिलतर होती जाती चिकित्सा पद्धतियों और 'डॉक्टर' बनने की तेज होती होड़ ने बीमार और उसके भगवान के रिश्ते को इलाज के भारी-भरकम बिल तले दबा दिया। बड़ी बीमारी यानी बड़ा डॉक्टर यानी बड़ा-सा बिल… ऐसे में जब डॉक्टर का चोगा मरीजों को डराने लगा और पेशे के रूप में चिकित्सक होना मुनाफे की गारंटी बन चुका हो ऐसे में कुछ चिकित्सक लोकोक्तियों को फिर से उनके अर्थ देने में जुटे हैं। पश्चिमी ओडीशा के राउरकेला में एक बड़े कैंसर अस्पताल के निर्माण की नींव रखने वाले जिले के सर्जन डॉ.एस.के.घोष कैंसर के चलते आवाज खो चुके लोगों को उनकी आवाज लौटाते बंेगलुरू के डॉ. विशाल राव और गांव-देहात में गरीब-असहाय कैंसर रोगियों के दरवाजे तक जाते अहमदनगर, महाराष्ट्र के डॉ. स्वप्निल माने कुछ ऐसे ही चिकित्सक हैं। कैंसर के विरुद्ध युद्ध के यह योद्धा अपने मरीजों के लिए ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें करुणा और समर्पण ज्यादा है, मुनाफा नहीं।

कैंसर रोगियों के दुख से द्रवित होकर भारत सेवाश्रम संघ को अपनी पूरी संपत्ति दान कर देने वाले डा.घोष कहते हैं, ''मैंने अपने 45 साल के कैरियर के दौरान कैंसर के कारण सैकड़ों परिवारों को बर्बाद होते हुए देखा है। वनवासी क्षेत्रों के मरीजों के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वह इस जानलेवा बीमारी का इलाज करा सकें। वह घुट-घुट कर दवाइयों के अभाव में जल्द ही दम तोड़ देते हैं।'' अस्पताल के लिए अपनी पूंजी दान कर देने के बाद भी डॉ. घोष को लगता है कि कैंसर रोगियों के लिए उन्हें कुछ और ज्यादा करना चाहिए। कुछ और करने की बेचैनी और सेवाभाव की आत्मीयता उनके स्वभाव में भी दिखती है।

पटना मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस, एमएस-ग्लासको, यूके व एडिनबरा से एफसीआरएस की डिग्री लेने वाले और राउरकेला स्टील प्लांट द्वारा संचालित इस्पात जनरल अस्पताल में सेवा दे चुके 85 साल के इन चिकित्सक के हौसले के आगे उम्र भी पस्त है। वे धावक रहे हैं दूसरे एशियन खेल में उन्होंने 100 मीटर दौड़ में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था। डॉ. घोष ने 1967 में इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई पूरी करने के दौरान राउरकेला के इस्पात जनरल अस्पताल में अपनी सेवाएं देनी शुरू कीं। लेकिन एक वर्ष बाद ही गरीब और जरूरतमंद रोगियों को सेवा देने के लिए नौकरी छोड़ दी और रामकृष्ण मिशन से जुड़ गए।

डॉ. घोष कहते हैं, ''मैंने 2006 में पुष्पांजलि कैंसर फाउंडेशन की स्थापना की। इसके तहत लोगों को जागरूक करना और सप्ताह में एक दिन बाहर से बुलाए विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा वनवासी व गरीब लोगों को जांच के साथ इलाज भी किया जाता था। इसके बाद 2010 मैंने इस क्षेत्र में कैंसर अस्पताल खोलने का निर्णय लिया।'' अब भारत सेवा संघ के कैंसर अस्पताल का निर्माण कार्य चल रहा है। डॉ. घोष इस बीमारी की हल्की दस्तक और बाद में गहरी परेशानियों के बारे में लोगों को चेताते हैं। वे कहते हैं, ''पहले और दूसरे चरण पर जब यह रोग होता है तब हम छोटी-मोटी पीड़ा समझकर इसे अनदेखा करते हैं या कहें कि हमें पता ही नहीं चल पाता, लेकिन तीसरे चरण पर इसका इलाज इतना महंगा होता है कि सामान्य व्यक्ति की पहुंच से बाहर होता है। इस अस्पताल में गरीब-असहाय लोगों का इलाज नि:शुल्क होगा।'' जीवन की सार्थकता को लेकर ऐसे ही खयाल डॉ. विशाल राव के हैं जिन्हें कैंसर के चलते आवाज खो बैठे एक मरीज का उपचार के दौरान बोला गया पहला शब्द गहरा आध्यात्मिक संकेत दे गया। आज उनका बनाया यंत्र कैंसर की वजह से पैदा हुई 'चुप्पी' को तोड़ रहा है।

हेल्थ केयर ग्लोबल कैंसर सेंटर, बेंगलुरू में कैंसर सर्जन डॉ. राव के पास हर वर्ष गले के कैंसर से पीडि़त लोगों के ऐसे दर्जनों मामले आते हैं जिनमें वोकल कॉर्ड (जिससे स्वर निकलता है) निकाल दिए जाने के कारण रोगी आवाज खो चुका होता है। जो लोग सक्षम होते हैं वे महंगा 'वॉइस प्रोस्थेसीस' यंत्र लगवाकर फिर आवाज पा लेते हैं लेकिन गरीब मरीज ऐसा नहीं कर पाते। डॉ. राव के अनुसार जब भी वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते थे जिसके पास वॉइस प्रोस्थेसीस लगवाने के पैैसे नहीं होते थे तो वे दुख में डूब जाते थे। वे कहते हैं, ''मुझे दुख होता था। कई बार मैं चंदा इकट्ठा कर लोगों का ऑपरेशन कर उन्हें वाइस प्रोस्थेसीस लगवा देता था लेकिन यह कोई स्थायी समाधान नहीं था। '' कई बार उन्हें इस चिंता में घिरा देख चुके उनके मित्र शशांक महेश ने उन्हें बार-बार दूसरों से चंदा लेकर लोगों का इलाज करने पर टोका और इस समस्या का स्थाई समाधान तलाशने के लिए प्रयास करने को कहा। डॉ. राव कहते हैं, ''मैंने तभी सोच लिया कि कुछ न कुछ ऐसा जरूर करूंगा ताकि किसी गरीब को फिर ऐसी समस्या का सामना न करना पड़े।'' उन्हें इस प्रयास में सफलता भी मिली।

एक घटना बड़ी दिलचस्प है। डॉ. राव बताते हैं कि वाइस प्रोस्थेसीस बन जाने के बाद उनके पास जो पहला 'खामोश' मरीज आया उसका नाम रामकृष्णा था। इस बेहद गरीब मरीज को बीड़ी पीने के कारण गले का कैंसर हुआ था और रोग के तीसरे चरण में पकड़ में आने के कारण उसके 'वोकल कॉर्ड' निकाले जा चुके थे। 16 वर्ष से वह एक शब्द नहीं बोला था। उस घटना को याद करते हुए वे आज भी भावुक हो उठते हैं। वे कहते हैं, ''मैंने उसे अपना बनाया हुआ वाइस प्रोस्थेसिस लगाया। इसके बाद उसके मुंह से जो सबसे पहला शब्द निकला वह था ॐ। उन्होंने अपने वाइस प्रोस्थेसीस का नाम भी ॐ ही रखने का निश्चय कर लिया। अभी तक चार मरीजों को वे यह वाइस प्रोस्थेसिस लगा चुके हैं। पिछले वर्ष अक्तूबर में उन्होंने इसका पेटेंट कराया है। बाजार में मिलने वाला वाइस प्रोस्थेसीस जहां 20,000 रु. से 25,000 रु. हजार का होता है और एक साल तक चलता है, वहीं डॉ. राव की टीम के बनाए वाइस प्रोस्थेसीस की कीमत 50 रुपए है जो दो वर्ष तक अच्छे से काम करता है।

डॉ. स्वप्निल माने की कहानी थोड़ी अलग है। इसमें डॉ. घोष जैसा सपना और डॉ. राव जैसी कोशिशों के सूत्र साथ बुने हैं। असहाय मरीज के लिए इससे बढ़कर क्या होगा कि 'उपचार' उसके पास चलकर आ जाए! मेडिकल फाउंडेशन ट्रस्ट और रिसर्च सेंटर के संस्थापक डॉ. माने कई गरीब कैंसर रागियों के लिए उपचार की अंतिम आशा के रूप में उनके गांव-दरवाजे तक पहुंचते हैं।

नौकरी के दौरान डॉ. माने अक्सर देखते थे कि कई मरीजों के पास इलाज के पैसे तो दूर की बात स्वयं के खाने पीने के भी पैसे नहीं होते थे। डॉ. माने ने महाराष्ट्र के राहुरी में क्लीनिक खोला और कम खर्च में लोगों का इलाज शुरू किया। वे बताते हैं,''हमने कई स्वयंसेवी संस्थाओं को भी इसके बारे में बताया और 2015 में इसे सांईं धाम नाम दे दिया। इसके बाद हमें शिरडी सांईं ट्रस्ट, चेन्नै एवं फिरोजशाह गोदरेज फाउंडेशन, मुंबई एवं ऐसी ही देश की कुछ संस्थाओं का सहयोग भी मिलने लगा।'' डॉ. माने 13 डॉक्टरों और 6 अन्य लोगों के समूह के साथ अब तक महाराष्ट्र के 60 से ज्यादा गांवों में नि:शुल्क कैंसर चेकअप और दवाइयों की व्यवस्था कर चुके हैं। फाउंडेशन ने कई छोटे गांव गोद भी लिए हैं। वहां के लोगों का नि:शुल्क इलाज किया जा रहा है। कैंसर से लड़ने वाले इन योद्धाओं की लड़ाई कठिन जरूर है मगर अपनी विजय को लेकर वे आश्वस्त हैं। क्योंकि यह कोशिशें ही है जो उन्हें संकल्प पूरा करने की दहलीज तक ले आई हैं। कहते हैं ना, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती… कहावतें बदली नहीं हैं…वे अपने मायने फिर तलाश रही हैं। आदित्य भारद्वाज और अश्वनी मिश्र   

 

 

स्वामी विवेकानंद मेरे आदर्श हैं। उन्होंने सदैव त्याग और सेवा की सीख दी है। कैंसर एक ऐसा रोग है जो रोगी के साथ–साथ उसके परिवार को भी बर्बाद कर देता है। यह पीड़ा मुझे सहन नहीं हो रही थी और लगातर कचोटती थी। मैंने तय किया कि जो भी समाज का दिया मेरे पास है मैं इन गरीब–असहाय लोगो को समर्पित करूंगा। शायद इससे बढ़कर मेरे जीवन में अब और कुछ नहीं हो सकता। — डॉ. एस. के.

 

ॐ… इस एक शब्द के साथ रामकृष्णा की आंख से बहे आंसुओं और खुद मेरे भीतर उठी संतुष्टि की लहर ने मुझे गहरे तक झकझोर दिया। वह मरीज मुझसे खुशी से लिपट गया। उस क्षण मुझे लगा कि डॉक्टर बनने का उद्देश्य पूरा हो गया।— डॉ. विशाल राव घोष

 

कैंसर के बारे में लोगों को अधिक से अधिक जागरूक करना और उन्हें बहुत कम खर्च में इलाज सुलभ कराना ही हमारा लक्ष्य है। हम जागरूकता कार्यक्रमों के जरिए प्रयास करते हैं कि कैंसर बढ़ने पर बाद में रोगी को पछताना न पड़े, इसके लिए जरूरी है कि कैंसर की बीमारी को शुरू में पहचानकर उसका ठीक इलाज कर दिया जाए — डॉ. स्वप्निल माने

 

6%का इजाफा हुआ है 2012-15 में कैंसर पीडि़तों की मृत्यु दर में

11लाख मामले सामने आ रहे हैं भारत में हर साल कैंसर के

1,300लोगों की कैंसर से मौत भारत में हर दिन

7,00,000भारतीयों की मौत होती है कैंसर से हर साल जिनमें 80 प्रतिशत मरीज बिल्कुल अंतिम चरण पर इलाज के लिए पहुंचते हैं। तब तक देर हो चुकी होती है।

 

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