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राजघाट पर सद्बुद्धि यज्ञ और दिल्ली भर में मुख्यमंत्री और उनके सहयोगियों की प्रतीकात्मक शवयात्राएं। निराशा और अव्यवस्था में जकड़ी दिल्ली में आम आदमी पार्टी के शासन का यह पहला वर्ष है। एक ओर सम-विषम सरीखे शिगूफों के लिए भारी-भरकम प्रचार बजट, अपनी ही पीठ थपथपाने के शर्तिया इंतजाम और दूसरी तरफ…सर्दी में कपड़े उतारकर छाती पीटते, सरकार विरोधी प्रदर्शन करते लोग।
सालभर पहले आशाओं की बसंती पालकी में दिल्ली वालों ने जिन अरविंद केजरीवाल को कंधे पर उठाया था, आज उन उम्मीदों को कचरे के ढेर पर ला पटका है। सिर्फ बारह महीने में यह हाल! क्या देश की राजधानी में सामाजिक आन्दोलन की उस राजनीति का तिलिस्म टूट रहा है जिस पर पूरे देश और दुनिया की निगाहें लगी थीं? हां, सड़कों पर फैला कूड़ा, डलावों के बजबजाते ढेर, हजारों निगमकर्मियों की महीनों से खाली जेबें और इस सबके बावजूद अपनी 'उपलब्धियों' का ढोल पीटती सरकार।
आम आदमी पार्टी के विरुद्ध दिल्ली की जनता का यह आक्रोश आयातित नहीं है। यह किसी दल के दायरे से भी नहीं बंधा। यह गुबार ऐसा है जो नेता के साथियों ने अपनी हरकतों से उठाया है। बेदाग शासन का वादा करने वालों के राज में बात दागी मंत्रियों से बढ़कर सचिवालय के सबसे बड़े बाबू तक पहुंचेगी, किसने सोचा था? दिल्ली की चिंता छोड़ लोग दादरी के लिए दोहरे हुए जाएंगे, किसने सोचा था? राज और काज को सुधारने का दम भरने वाले राज्यपाल से रार के मौके ही तलाशते रहेंगे, किसने सोचा था?
यह सोचने का वक्त है। एक साल का समय कम नहीं होता…अंतिम परिणाम के तौर पर नहीं, क्रियान्वयन के स्तर पर ही सही, कुछ काम तो दिखना चाहिए! अकर्मण्यता और आरोपों की राजनीति ने दिल्लीवालों का ही दिल नहीं तोड़ा, राजनीति का लबादा ओढ़कर आया एक अराजक वैचारिक छद्म भी तोड़ा है। यदि ऐसा कुछ भी नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी भी अब केजरीवाल पर है।
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